PANDIT RAMESH DUBEY IS A INTERNATIONAL CELEBRITY ASTROLOGER. VISITS- ALL OVER THE WORLD, HAS UNLIMITED FOLLOWERS.
Friday, October 3, 2014
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तोडफोड रहित वास्तु समाधान
भारतीय भवन निर्माण कला की अद्वितीय परंपरा को सारे विश्व में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता रहा है. भारतीय भवन निर्माण कला स्वयं में कला, विज्ञान तथा आध्यात्म काएक ऐसा अभूतपूर्व तथा विलक्षण संगम है जिसके समकक्ष शिल्प कला विश्व के किसी भी भाग में नही पायी जाती. हमारे भवनों में जहां एक ओर रहने की सुविधाजनक व्यवस्थाओं काचिंतन किया गया है वहीं दूसरी ओर गृहस्थ जीवन पर ज्योतिष, तंत्र तथा दैवीय शक्तियों के प्रतीकात्मक तथा व्यावहारिक प्रभाव का लाभदायक प्रभाव प्राप्त करने के निमित्त वास्तु शास्त्रनामक एक पूरा विधान भी गढा गया तथा उसके अनुसार भवनों को ज्यादा उपयोगी तथा गृहस्थ जीवन को पूर्णता प्रदान करने में सहयोगी बनाने का भी प्रयास किया गया.
आज हम पुनः भवन निर्माण के प्राचीन नियमों अर्थात वास्तु को मान्यता दे रहे हैं. कई भव्य भवन जो वास्तु के सिद्धांतों के अनुसार नही थे बल्कि विख्यात आर्किटेक्टों के निर्देशन में बने थेउनको तोडकर वास्तुशास्त्र के अनुसार बनाने पर वहां रहने वालों को अत्यंत ही सुखद परिणाम प्राप्त हुए. जिसने आज वास्तु को भवन निर्माण के लिए एक अनिवार्यता के रूप में प्रस्तुत करदिया है. एक ऐसा शास्त्र जो हमारी अन्य पारंपरिक विधाओं की ही तरह अपने महत्व को प्रमाणित करने में समर्थ हो रहा है.
वास्तु के अनुसार बनाये गए घरों से होने वाले लाभों के कारण काफी सारे धनवान लोगों ने अपने भवनों को तोडकर नए सिरे से निर्मित किया मगर ऐसा हर व्यक्ति के लिए संभव नही होता.आज जब बने बनाये मकानों का दौर चल रहा है तब आप उसमें वास्तु के अनुकूल निर्माण की उम्मीद नही कर सकते. ऐसी स्थिति में यक्ष प्रश्न खडा हो जाता है कि क्या किया जाये?
ऐसी परिस्थिति में वास्तु से संबंधित विविध साधनाओं की व्यवस्था है जिनके प्रयोग से आप गृहदोषों का निवारण कर सकते हैं. ये प्रयोग निम्नलिखित हैं :-
वास्तु पुरूष साधना संपन्न करें. अथवा विश्वकर्मा साधना अथवा त्रिपुर सुंदरी साधना संपन्न करें.
यदि आप उपरोक्त साधनाओं से संबंधित मंत्र साधनाओं का स्वयं प्रयोग करें तो सबसे अच्छा होगा, यदि न कर पायें तो किसी प्रामाणिक तांत्रिक से यंत्र सिद्ध करवाकर घर में स्थापित करें तोभी लाभदायक होगा.
घर में पारद शिवलिंग की स्थापना करना भी समस्त दोषों का समाधान करता है. पारा एक द्रवीय धातु है इसे विविध संस्कारों के द्वारा ठोस बनाया जाता है. यह रसविद्या के अंतर्गत आताहै कुछ लोग रसायनों का प्रयोग कर भी पारे को ठोस बनाकर शिवलिंग बना रहे हैं इनसे खास लाभ नही प्राप्त होगा. प्रामाणिक पारद शिवलिंग आप अपने विवेकानुसार किसीविश्वसनीय संस्थान से प्राप्त करें. मुझे साधना सिद्धि विज्ञान, भोपाल तथा फयूचर पाइंट दिल्ली के पारद शिवलिंग श्रेष्ठ लगे.
रसोई घर में या जहां आप अन्न रखते हैं वहां प्राणप्रतिष्ठित अन्नपूर्णा यंत्र लाल कपडे में बांधकर लटकायें या रखें.
यदि संभव हो तथा प्राप्त हो सके तो भैरव यंत्र को लाल कपडे में बांधकर अपने घर के प्रवेश द्वार पर बांधें या फिर ऐसी जगह पर रखें कि किसीव्यक्ति के घर में प्रवेश करते ही उसकी नजर सबसे पहले उस यंत्र पर ही पडे. ऐसा करना आपके घर तथा घर के लोगों को बुरी नजर से बचाने मेंसहायक होगा.
गृहस्थ जीवन का आधार होता है ÷घर'. घर यानी वह स्थान जहां आप रहते हैं. यदि वह आपके अनुकूल हो तो आपके लिए स्वास्थ्य सेलेकर समृद्धि तक सब कुछ प्राप्त करने में सहायक होता है.कुछ सावधानियां जो मकान बनाते समय ध्यान मे रखनी चाहिये वे आगे की पंक्तियोंमें स्पष्ट कर रहा हूं. इनका ध्यान रखने से अधिकतर भूमि दोषों का निवारण हो जाता है :-
यदि नींव खोदते समय हड्डी मिले तो उसे पूरी तरह निकालकर जल मे विसर्जित करें तथा भूमि में गंगाजल आदि डालकर पवित्रीकरण के बाद हीनिर्माण प्रारंभ करें.
नींव खोदते समय तांबे से बना सर्प शेषनाग तथा चांदी से बना कछुआ भगवान विष्णु के प्रतीक रूप में डालना चाहिए.
सोना या सोने की मूर्ति यदि नींव में न डालें तो श्रेष्ठ होगा, क्योंकि यह समृद्धि को नष्ट करता है. अपवाद स्वरूप अपने गुरू द्वारा प्रदत्त या फिरकिसी श्रेष्ठ तांत्रिक द्वारा किसी खास प्रयोजन के लिए दिए गए सोने के उपकरण डाले जा सकते हैं.
मेरी राय में मूर्ति के लिए चांदी का प्रयोग ही श्रेष्ठ है.
मूर्ति के स्थान पर संबंधित देवता का यंत्र सिद्ध करके डालना ज्यादा लाभप्रद होता है.
गृह पूजन में वास्तु पुरूष पूजन के साथ साथ क्षेत्रपाल व भैरव पूजन करवाना भी लाभप्रद होता है.
वास्तु पूजन के द्वारा आप का घर ज्यादा शांत तथा अनुकूल बन सकेगा और दैवीय कृपा की प्राप्ति हो सकेगी.
Friday, September 26, 2014
स्वप्न विज्ञान
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क्या है स्वप्न का विज्ञान ?
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आदि काल से ही मानव मस्तिष्क अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के प्रयत्नों में सक्रिय है। परंतु जब किसी भी कारण इसकी कुछ अधूरी इच्छाएं पूर्ण नहीं हो पाती (जो कि मस्तिष्क के किसी कोने में जाग्रत अवस्था में रहती है) तो वह स्वप्न का रूप ले लती हैं।
आधुनिक विज्ञान में पाश्चात्य विचारक सिगमंड फ्रायड ने इस विषय में कहा है कि स्वप्न'' मानव की दबी हुई इच्छाओं का प्रकाशन करते हैं जिनको हमने अपनी जाग्रत अवस्था में कभी-कभी विचारा होता है। अर्थात स्वप्न हमारी वो इच्छाएं हैं जो किसी भी प्रकार के भय से जाग्रत् अवस्था में पूर्ण नहीं हो पाती हैं व स्वप्नों में साकार होकर हमें मानसिक संतुष्टि व तृप्ति देती है।
सपने या स्वप्न आते क्यों है? इस प्रश्न का कोई ठोस प्रामाणिक उत्तर आज तक खोजा नहीं जा सका है। प्रायः यह माना जाता है कि स्वप्न या सपने आने का एक कारण ÷नींद' भी हो सकता है। विज्ञान मानता है कि नींद का हमारे मस्तिष्क में होने वाले उन परिवर्तनों से संबंध होता है, जो सीखने और याददाश्त बढ़ाने के साथ-साथ मांस पेशियों को भी आराम पहुंचाने में सहायक होते हैं। इस नींद की ही अवस्था में न्यूरॉन (मस्तिष्क की कोशिकाएं) पुनः सक्रिय हो जाती हैं।
वैज्ञानिकों ने नींद को दो भागों में बांटा है पहला भाग आर ई एम अर्थात् रैपिड आई मुवमेंट है। (जिसमें अधिकतर सपने आते हैं) इसमें शरीर शिथिल परंतु आंखें तेजी से घूमती रहती हैं और मस्तिष्क जाग्रत अवस्था से भी ज्यादा गतिशील होता है। इस आर ई एम की अवधि १० से २० मिनट की होती है तथा प्रत्येक व्यक्ति एक रात में चार से छह बार आर ई एम नींद लेता है। यह स्थिति नींद आने के लगभग १.३० घंटे अर्थात ९० मिनट बाद आती है। इस आधार पर गणना करें तो रात्रि का अंतिम प्रहर आर ई एम का ही समय होता है (यदि व्यक्ति समान्यतः १० बजे रात सोता है तो ) जिससे सपनों के आने की संभावना बढ़ जाती है।
स्वप्नों का अर्थ..........................
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भारतीय दर्शनशास्त्र के अनुसार भूत, वर्तमान और भविष्य का सूक्ष्म आकार हर समय वायुमंडल में विद्यमान रहता है। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो सूक्ष्माकार होकर अपने भूत और भविष्य से संपर्क स्थापित करता है। यही संपर्क स्वप्न का कारण और स्वप्न का माध्यम बनता है।
व्यक्ति सक्रिय है, वह स्वप्न अवश्य देखता है। सभी प्राणियों में मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो स्वप्न देख सकता है। अर्थात् जो मनुष्य स्वप्न नहीं देखता, वह जीवित नहीं रह सकता। इसका अभिप्राय यह है कि जो जीवित और सक्रिय है, वह स्वप्न अवश्य देखता है। केवल जन्म से अंधे व्यक्ति स्वप्न नहीं देख सकते लेकिन वे भी स्वप्न में ध्वनियां तो सुनते ही हैं। अर्थात स्वप्न तो उनको भी आते हैं। स्वप्न सोते हुए ही नहीं, जागते हुए भी देखे जा सकते हैं। इस प्रकार स्वप्न को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है..................
1) जागृत अवस्था के स्वप्न
2) निद्रावस्था के स्वप्न
जागृत अवस्था के स्वप्न कवियों, दार्शनिकों, प्रेमी-प्रेमिकाओं, अविवाहित किशोर, युवक-युवतियों को अधिक आते हैं। ये स्वप्न कलात्मक होते हैं। भारतीय दर्शनशास्त्र के अनुसार भूत, वर्तमान और भविष्य का सूक्ष्म आकार हर समय वायुमंडल में विद्यमान रहता है। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो सूक्ष्माकार होकर अपने भूत और भविष्य से संपर्क स्थापित करता है। यही संपर्क स्वप्न का कारण और स्वप्न का माध्यम बनता है। जिस व्यक्ति विशेष की साधना इतनी प्रबल होती है कि वह जागृतावस्था में या ध्यानावस्था में इन भूत-भविष्य के सूक्ष्म आकारों से संपर्क कर लेता है, वही योगी और भविष्यदृष्टा कहलाता है।
अवचेतन मन की पहुंच हमारे शरीर तक ही सीमित नहीं, वरन् वह विश्व के किसी भी भाग में जब चाहे पहुंच सकता है। उसके द्वारा तीनों लोकों के कोने-कोने का समाचार प्राप्त हो सकता है। अतः भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान अवचेतन मन से ही संभव है।
सपने बनते कैसे हैं : ...........................
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दिन भर विभिन्न स्रोतों से हमारे मस्तिष्क को स्फुरण (सिगनल) मिलते रहते हैं। प्राथमिकता के आधार पर हमारा मस्तिष्क हमसे पहले उधर ध्यान दिलवाता है जिसे करना अति जरूरी होता है, और जिन स्फुरण संदेशों की आवश्यकता तुरंत नहीं होती उन्हें वह अपने में दर्ज कर लेता है। इसके अलावा प्रतिदिन बहुत सी भावनाओं का भी हम पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। जो भावनाएं हम किसी कारण वश दबा लेते हैं (गुस्सा आदि) वह भी हमारे अवचेतन मस्तिष्क में दर्ज हो जाती हैं। रात को जब शरीर आराम कर रहा होता है मस्तिष्क अपना काम कर रहा होता है। (इस दौरान हमें चेतनावस्था में कोई स्कुरण संकेत भावनाएं आदि नहीं मिल रही होती) उस समय मस्तिष्क दिन भर मिले संकेतों को लेकर सक्रिय होता है जिनसे स्वप्न प्रदर्शित होते हैं। यह वह स्वप्न होते हैं जो मस्तिष्क को दिनभर मिले स्फुरण, भावनाओं को दर्शाते हैं जिन्हें दिनमें हमने किसी कारण वश रोक लिया था। जब तक यह प्रदर्शित नहीं हो पाता तब तक बार-बार नजर आता रहता है तथा इन पर नियंत्रण चाहकर भी नहीं किया जा सकता।
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आदि काल से ही मानव मस्तिष्क अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के प्रयत्नों में सक्रिय है। परंतु जब किसी भी कारण इसकी कुछ अधूरी इच्छाएं पूर्ण नहीं हो पाती (जो कि मस्तिष्क के किसी कोने में जाग्रत अवस्था में रहती है) तो वह स्वप्न का रूप ले लती हैं।
आधुनिक विज्ञान में पाश्चात्य विचारक सिगमंड फ्रायड ने इस विषय में कहा है कि स्वप्न'' मानव की दबी हुई इच्छाओं का प्रकाशन करते हैं जिनको हमने अपनी जाग्रत अवस्था में कभी-कभी विचारा होता है। अर्थात स्वप्न हमारी वो इच्छाएं हैं जो किसी भी प्रकार के भय से जाग्रत् अवस्था में पूर्ण नहीं हो पाती हैं व स्वप्नों में साकार होकर हमें मानसिक संतुष्टि व तृप्ति देती है।
सपने या स्वप्न आते क्यों है? इस प्रश्न का कोई ठोस प्रामाणिक उत्तर आज तक खोजा नहीं जा सका है। प्रायः यह माना जाता है कि स्वप्न या सपने आने का एक कारण ÷नींद' भी हो सकता है। विज्ञान मानता है कि नींद का हमारे मस्तिष्क में होने वाले उन परिवर्तनों से संबंध होता है, जो सीखने और याददाश्त बढ़ाने के साथ-साथ मांस पेशियों को भी आराम पहुंचाने में सहायक होते हैं। इस नींद की ही अवस्था में न्यूरॉन (मस्तिष्क की कोशिकाएं) पुनः सक्रिय हो जाती हैं।
वैज्ञानिकों ने नींद को दो भागों में बांटा है पहला भाग आर ई एम अर्थात् रैपिड आई मुवमेंट है। (जिसमें अधिकतर सपने आते हैं) इसमें शरीर शिथिल परंतु आंखें तेजी से घूमती रहती हैं और मस्तिष्क जाग्रत अवस्था से भी ज्यादा गतिशील होता है। इस आर ई एम की अवधि १० से २० मिनट की होती है तथा प्रत्येक व्यक्ति एक रात में चार से छह बार आर ई एम नींद लेता है। यह स्थिति नींद आने के लगभग १.३० घंटे अर्थात ९० मिनट बाद आती है। इस आधार पर गणना करें तो रात्रि का अंतिम प्रहर आर ई एम का ही समय होता है (यदि व्यक्ति समान्यतः १० बजे रात सोता है तो ) जिससे सपनों के आने की संभावना बढ़ जाती है।
स्वप्नों का अर्थ..........................
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भारतीय दर्शनशास्त्र के अनुसार भूत, वर्तमान और भविष्य का सूक्ष्म आकार हर समय वायुमंडल में विद्यमान रहता है। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो सूक्ष्माकार होकर अपने भूत और भविष्य से संपर्क स्थापित करता है। यही संपर्क स्वप्न का कारण और स्वप्न का माध्यम बनता है।
व्यक्ति सक्रिय है, वह स्वप्न अवश्य देखता है। सभी प्राणियों में मनुष्य ही एक मात्र ऐसा प्राणी है जो स्वप्न देख सकता है। अर्थात् जो मनुष्य स्वप्न नहीं देखता, वह जीवित नहीं रह सकता। इसका अभिप्राय यह है कि जो जीवित और सक्रिय है, वह स्वप्न अवश्य देखता है। केवल जन्म से अंधे व्यक्ति स्वप्न नहीं देख सकते लेकिन वे भी स्वप्न में ध्वनियां तो सुनते ही हैं। अर्थात स्वप्न तो उनको भी आते हैं। स्वप्न सोते हुए ही नहीं, जागते हुए भी देखे जा सकते हैं। इस प्रकार स्वप्न को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है..................
1) जागृत अवस्था के स्वप्न
2) निद्रावस्था के स्वप्न
जागृत अवस्था के स्वप्न कवियों, दार्शनिकों, प्रेमी-प्रेमिकाओं, अविवाहित किशोर, युवक-युवतियों को अधिक आते हैं। ये स्वप्न कलात्मक होते हैं। भारतीय दर्शनशास्त्र के अनुसार भूत, वर्तमान और भविष्य का सूक्ष्म आकार हर समय वायुमंडल में विद्यमान रहता है। जब व्यक्ति निद्रावस्था में होता है तो सूक्ष्माकार होकर अपने भूत और भविष्य से संपर्क स्थापित करता है। यही संपर्क स्वप्न का कारण और स्वप्न का माध्यम बनता है। जिस व्यक्ति विशेष की साधना इतनी प्रबल होती है कि वह जागृतावस्था में या ध्यानावस्था में इन भूत-भविष्य के सूक्ष्म आकारों से संपर्क कर लेता है, वही योगी और भविष्यदृष्टा कहलाता है।
अवचेतन मन की पहुंच हमारे शरीर तक ही सीमित नहीं, वरन् वह विश्व के किसी भी भाग में जब चाहे पहुंच सकता है। उसके द्वारा तीनों लोकों के कोने-कोने का समाचार प्राप्त हो सकता है। अतः भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान अवचेतन मन से ही संभव है।
सपने बनते कैसे हैं : ...........................
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दिन भर विभिन्न स्रोतों से हमारे मस्तिष्क को स्फुरण (सिगनल) मिलते रहते हैं। प्राथमिकता के आधार पर हमारा मस्तिष्क हमसे पहले उधर ध्यान दिलवाता है जिसे करना अति जरूरी होता है, और जिन स्फुरण संदेशों की आवश्यकता तुरंत नहीं होती उन्हें वह अपने में दर्ज कर लेता है। इसके अलावा प्रतिदिन बहुत सी भावनाओं का भी हम पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। जो भावनाएं हम किसी कारण वश दबा लेते हैं (गुस्सा आदि) वह भी हमारे अवचेतन मस्तिष्क में दर्ज हो जाती हैं। रात को जब शरीर आराम कर रहा होता है मस्तिष्क अपना काम कर रहा होता है। (इस दौरान हमें चेतनावस्था में कोई स्कुरण संकेत भावनाएं आदि नहीं मिल रही होती) उस समय मस्तिष्क दिन भर मिले संकेतों को लेकर सक्रिय होता है जिनसे स्वप्न प्रदर्शित होते हैं। यह वह स्वप्न होते हैं जो मस्तिष्क को दिनभर मिले स्फुरण, भावनाओं को दर्शाते हैं जिन्हें दिनमें हमने किसी कारण वश रोक लिया था। जब तक यह प्रदर्शित नहीं हो पाता तब तक बार-बार नजर आता रहता है तथा इन पर नियंत्रण चाहकर भी नहीं किया जा सकता।
Thursday, September 25, 2014
सर्व -यन्त्र -मंत्र -तंत्रों-त्किलम-स्त्रोत
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।। पार्वत्युवाच ।।
देवेश परमानन्द, भक्तानाम भयं प्रद !
आगमाः निगमाश्चैव, बीजं बीजोदयस्तथा ।।१।।
समुदायेन बीजानां, मन्त्रो मंत्रस्य संहिता ।
ऋषिच्छन्दादिकं भेदो, वैदिकं यामलादिकम् ।।२।।
धर्मोऽधर्मस्तथा ज्ञानं, विज्ञानं च विकल्पन ।
निर्विकल्प-विभागेन, तथा षट्-कर्म-सिद्धये ।।३।।
भुक्ति-मुक्ति-प्रकारश्च, सर्वं प्राप्तं प्रसादतः ।
कीलनं सर्व-मन्त्राणां, शंसयद् हृदये वचः ।।४।।
इति श्रुत्वा शिवा-नाथः, पार्वत्या वचनं शुभम् ।
उवाच परया प्रीत्या, मन्त्रोत्कीलनकं शिवां ।।५।।
।। शिव उचाव ।।
वरानने ! हि सर्वस्य, व्यक्ताव्यक्तस्य वस्तुनः ।
साक्षी-भूय त्वमेवासि, जगतस्तु मनोस्तथा ।।६।।
त्वया पृष्टं वरारोहे ! तद्वक्ष्याम्युत्कीलनम् ।
उद्दीपनं हि मंत्रस्य, सर्वस्योत्कीलनम भवेत् ।।७।।
पूरा तव मया भद्रे ! समाकर्षण-वश्यजा ।
मन्त्राणां कीलिता-सिद्धिः, सर्वे ते सप्त-कोटयः ।।८।।
तदानुग्रह-प्रीतस्त्वात्, सिद्धिस्तेषां फलप्रदा ।
येनोपायेन भवति, तं स्तोत्रं कथाम्यहम ।।९।।
श्रृणु भद्रेऽत्र सततमावाम्यामखिलं जगत् ।
तस्य सिद्धिर्भवेत्तिष्ठे, माया येषां प्रभावकम् ।।१०।।
अन्नं पानं हि सौभाग्यं, दत्तं तुभ्यं मया शिवे !
संजीवनं च मन्त्राणां, तथा दत्तुं पुनर्धुवम ।।११।।
यस्य स्मरण-मात्रेण, पाठेन जपतोऽपि वा !
अकीला अखिला मन्त्राः, सत्यं सत्यं न संशयः ।।१२।।
विनियोगः- ॐ अस्य सर्व-यन्त्र-मन्त्र-तन्त्राणामुत्कीलन-मन्त्र-स्तोत्रस्य मूल-प्रकृतिः ऋषिः, जगतीच्छन्द, निरञ्जनो देवता, क्लीं वीजं, ह्रीं शक्तिः, ह्रः सौं कीलकं, सप्त-कोटि-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-कीलकानां सञ्जीवन-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः-ॐ मूल-प्रकृतिः ऋषये नमः शिरसि, ॐ जगतीच्छन्दसे नमः मुखे, ॐ निरञ्जनो देवतायै नमः हृदि, ॐ क्लीं वीजाय नमः गुह्ये, ॐ ह्रीं शक्तये नमः पादयो, ॐ ह्रः सौं कीलकाय नमः नाभौ, ॐ सप्त-कोटि-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-कीलकानां सञ्जीवन-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः सर्वांगे ।
षडङ्ग-न्यास – कर-न्यास – अंग-न्यास -
ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ ह्रः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
ध्यानः-
ॐ ब्रह्म-स्वरुपममलं च निरञ्जनं तं,
ज्योतिः-प्रकाशमनिशं महतो महान्तम् ।
कारुण्य-रुपमति-बोध-करं प्रसन्नं,
दिव्यं स्मरामि सततं मनु-जीवनाय ।।
एवं ध्यात्वा स्मरेन्नित्यं, तस्य सिद्धिरस्तु सर्वदा । वाञ्छितं फलमाप्नोति, मन्त्र-संजीवनं ध्रुवम् ।।
मन्त्रः- ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्रादीनामुत्कीलनं कुरु-कुरु स्वाहा ।
ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं षट्-पञ्चाक्षराणामुत्कीलय उत्कीलय स्वाहा । ॐ जूं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्राणां सञ्जीवनं कुरु-कुरु स्वाहा ।
ॐ ह्रीं जूं, अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः, कं खं गं घं ङं, चं छं जं झं ञं, टं ठं डं ढं णं, तं थं दं धं नं, पं फं बं भं मं, यं रं लं वं, शं षं सं हं ळं क्षं । मात्राऽक्षराणां सर्व उत्कीलनं कुरु-कुरु स्वाहा ।
ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ सोऽहं हंसोऽहं ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ ॐ जूं सोहं हंसः ॐ ॐ हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं हं जूं हं सं गं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं सोऽहं हंसो यं लं लं लं लं लं लं लं लं लं लं लं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं , ॐ ह्रीं जूं सर्व-मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-स्तोत्र-कवचादीनां सञ्जीवय-सञ्जीवय कुरु-कुरु स्वाहा । ॐ सोऽहं हंसः ॐ सञ्जीवनं स्वाहा । ॐ ह्रीं मन्त्राक्षराणामुत्कीलय, उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा ।
ॐ ॐ प्रणव-रुपाय, अं आं परम-रुपिणे । इं ईं शक्ति-स्वरुपाय, उं ऊं तेजो-मयाय च ।।
ऋं ॠं रंजित-दीप्ताय, लृं ॡं स्थूल-स्वरुपिणे, एं ऐं वाचां विलासाय, ओं औं अं अः शिवाय च ।।
कं खं कमल-नेत्राय, गं घं गरुड़-गामिने । ङं चं श्री चन्द्र-भालाय, छं जं जय-कराय च ।।
झं ञं टं ठं जय-कर्त्रे, डं ढं णं तं पराय च । थं दं धं नं नमस्तस्मै, पं फं यन्त्र-मयाय च ।।
बं भं मं बल-वीर्याय, यं रं लं यशसे नमः । वं शं षं बहु-वादाय, सं हं ळं क्षं-स्वरुपिणे ।।
दिशामादित्य-रुपाय, तेजसे रुप-धारिणे । अनन्ताय अनन्ताय, नमस्तस्मै नमो नमः ।।
मातृकाया प्रकाशायै, तुभ्यं तस्यै नमो नमः । प्राणेशायै क्षीणदायै, सं सञ्जीव नमो नमः ।।
निरञ्जनस्य देवस्य, नाम-कर्म-विधानतः । त्वया ध्यानं च शक्तया च, तेन सञ्जायते जगत् ।।
स्तुतामहमचिरं ध्यात्वा, मायाया ध्वंस-हेतवे । सन्तुष्टा भार्गवायाहं, यशस्वी जायते हि सः ।।
ब्रह्माणं चेतयन्ती विविध-सुर-नरास्तर्पयन्ती प्रमोदाद् ।
ध्यानेनोद्दीपयन्ती निगम-जप-मनुं षट्-पदं प्रेरयन्ती ।।
सर्वान् देवान् जयन्ती दिति-सुत-दमनी साऽप्यहंकार-मूर्ति-
स्तुभ्यं तस्मै च जाप्यं स्मर-रचितमनुं मोचये शाप-जालात् ।।
इदं श्रीत्रिपुरा-स्तोत्रं पठेद् भक्तया तु यो नरः ।
सर्वान् कामानवाप्नोति सर्व-शापाद् विमुच्यते ।।………
Saturday, July 19, 2014
तिथि अनुसार आहार
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प्रतिपदा को कूष्माण्ड(कुम्हड़ा, पेठा) न खाये, क्योंकि यह धन का
नाश करने वाला है।
द्वितीया को बृहती (छोटा गन या कटेहरी) खाना निषिद्ध है।
तृतीया को परवल खाना शत्रुओं की वृद्धि करने वाला है।
चतुर्थी को मूली खाने से धन का नाश होता है।
पंचमी को बेल खाने से कलंक लगता है।
षष्ठी को नीम की 🌳पत्ती, फल या दातुन मुँह में डालने से नीच योनियों
की प्राप्ति होती है।
सप्तमी को ताड़ का फल खाने से रोग बढ़ता है था शरीर का नाश
होता है।
अष्टमी को नारियल का फल खाने से बुद्धि का नाश होता है।
नवमी को लौकी खाना गोमांस के समान त्याज्य है।
एकादशी को शिम्बी(सेम), द्वादशी को पूतिका(पोई) अथवा त्रयोदशी
को बैंगन खाने से पुत्र का नाश होता है।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-34)
अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति, चतुर्दशी और अष्टमी तिथि, रविवार,
श्राद्ध और व्रत के दिन स्त्री-सहवास तथा तिल का तेल खाना और
लगाना निषिद्ध है।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, ब्रह्म खंडः 27.29-38)
रविवार के दिन मसूर की दाल, अदरक और लाल रंग का साग नहीं
खाना चाहिए।
(ब्रह्मवैवर्त पुराण, श्रीकृष्ण खंडः 75.90)
सूर्यास्त के बाद कोई भी तिलयुक्त पदार्थ नहीं खाना चाहिए।
(मनु स्मृतिः 4.75)
लक्ष्मी की इच्छा रखने वाले को रात में दही और सत्तू नहीं खाना
चाहिए। यह नरक की प्राप्ति कराने वाला है।
(महाभारतः अनु. 104.93)
दूध के साथ नमक, दही, लहसुन, मूली, गुड़, तिल, नींबू, केला,
पपीता आदि सभी प्रकार के फल, आइसक्रीम, तुलसी व अदरक
का सेवन नहीं करना
चाहिए। यह विरूद्ध आहार है।
दूध पीने के 2 घंटे पहले व बाद के अंतराल तक भोजन न करें।
बुखार में 🍼दूध पीना साँप के जहर के समान है।
काटकर देर तक रखे हुए फल तथा कच्चे फल जैसे कि आम,
अमरूद, 🍋पपीता आदि न खायें। फल भोजन के पहले खायें। रात
को 🍋🍌फल नहीं खाने चाहिए।
एक बार पकाया हुआ भोजन दुबारा गर्म करके खाने से शरीर में गाँठें
बनती हैं, जिससे टयूमर की बीमारी हो सकती है।
अभक्ष्य-भक्षण करने (न खाने योग्य खाने) पर उससे उत्पन्न पाप
के विनाश के लिए पाँच दिन तक गोमूत्र, गोमय, दूध, दही तथा घी
का आहार करो।
Friday, July 11, 2014
कामाक्षी स्त्रोतम......
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कामाक्षी स्तोत्रम्
कल्पानोकह_पुष्प_जाल_विलसन्नीलालकां मातृकां
कान्तां कञ्ज_दलेक्षणां कलि_मल_प्रध्वंसिनीं कालिकाम् ।
काञ्ची_नूपुर_हार_दाम_सुभगां काञ्ची_पुरी_नायिकां
कामाक्षीं करि_कुम्भ_सन्निभ_कुचां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥१॥
कान्तां कञ्ज_दलेक्षणां कलि_मल_प्रध्वंसिनीं कालिकाम् ।
काञ्ची_नूपुर_हार_दाम_सुभगां काञ्ची_पुरी_नायिकां
कामाक्षीं करि_कुम्भ_सन्निभ_कुचां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥१॥
काशाभांशुक_भासुरां प्रविलसत्_कोशातकी_सन्निभां
चन्द्रार्कानल_लोचनां सुरुचिरालङ्कार_भूषोज्ज्वलाम् ।
ब्रह्म_श्रीपति_वासवादि_मुनिभिः संसेविताङ्घ्रि_द्वयां
कामाक्षीं गज_राज_मन्द_गमनां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥२॥
चन्द्रार्कानल_लोचनां सुरुचिरालङ्कार_भूषोज्ज्वलाम् ।
ब्रह्म_श्रीपति_वासवादि_मुनिभिः संसेविताङ्घ्रि_द्वयां
कामाक्षीं गज_राज_मन्द_गमनां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥२॥
ऐं क्लीं सौरिति यां वदन्ति मुनयस्तत्त्वार्थ_रूपां परां
वाचाम् आदिम_कारणं हृदि सदा ध्यायन्ति यां योगिनः ।
बालां फाल_विलोचनां नव_जपा_वर्णां सुषुम्नाश्रितां
कामाक्षीं कलितावतंस_सुभगां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥३॥
वाचाम् आदिम_कारणं हृदि सदा ध्यायन्ति यां योगिनः ।
बालां फाल_विलोचनां नव_जपा_वर्णां सुषुम्नाश्रितां
कामाक्षीं कलितावतंस_सुभगां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥३॥
यत्_पादाम्बुज_रेणु_लेशम् अनिशं लब्ध्वा विधत्ते विधिर्_
विश्वं तत् परिपाति विष्णुरखिलं यस्याः प्रसादाच्चिरम् ।
रुद्रः संहरति क्षणात् तद् अखिलं यन्मायया मोहितः
कामाक्षीं अति_चित्र_चारु_चरितां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥४॥
विश्वं तत् परिपाति विष्णुरखिलं यस्याः प्रसादाच्चिरम् ।
रुद्रः संहरति क्षणात् तद् अखिलं यन्मायया मोहितः
कामाक्षीं अति_चित्र_चारु_चरितां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥४॥
सूक्ष्मात् सूक्ष्म_तरां सुलक्षित_तनुं क्षान्ताक्षरैर्लक्षितां
वीक्षा_शिक्षित_राक्षसां त्रि_भुवन_क्षेमङ्करीम् अक्षयाम् ।
साक्षाल्लक्षण_लक्षिताक्षर_मयीं दाक्षायणीं सक्षिणीं
कामाक्षीं शुभ_लक्षणैः सुललितां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥५॥
वीक्षा_शिक्षित_राक्षसां त्रि_भुवन_क्षेमङ्करीम् अक्षयाम् ।
साक्षाल्लक्षण_लक्षिताक्षर_मयीं दाक्षायणीं सक्षिणीं
कामाक्षीं शुभ_लक्षणैः सुललितां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥५॥
ओङ्काराङ्गण_दीपिकाम् उपनिषत्_प्रासाद_पारावतीम्
आम्नायाम्बुधि_चन्द्रिकाम् अध_तमः_प्रध्वंस_हंस_प्रभाम् ।
काञ्ची_पट्टण_पञ्जराऽऽन्तर_शुकीं कारुण्य_कल्लोलिनीं
कामाक्षीं शिव_कामराज_महिषीं वन्दे महेश_प्रियाम् ॥६॥
आम्नायाम्बुधि_चन्द्रिकाम् अध_तमः_प्रध्वंस_हंस_प्रभाम् ।
काञ्ची_पट्टण_पञ्जराऽऽन्तर_शुकीं कारुण्य_कल्लोलिनीं
कामाक्षीं शिव_कामराज_महिषीं वन्दे महेश_प्रियाम् ॥६॥
ह्रीङ्कारात्मक_वर्ण_मात्र_पठनाद् ऐन्द्रीं श्रियं तन्वतीं
चिन्मात्रां भुवनेश्वरीम् अनुदिनं भिक्षा_प्रदान_क्षमाम् ।
विश्वाघौघ_निवारिणीं विमलिनीं विश्वम्भरां मातृकां
कामाक्षीं परिपूर्ण_चन्द्र_वदनां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥७॥
चिन्मात्रां भुवनेश्वरीम् अनुदिनं भिक्षा_प्रदान_क्षमाम् ।
विश्वाघौघ_निवारिणीं विमलिनीं विश्वम्भरां मातृकां
कामाक्षीं परिपूर्ण_चन्द्र_वदनां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥७॥
वाग्_देवीति च यां वदन्ति मुनयः क्षीराब्धि_कन्येति च
क्षोणी_भृत्_तनयेति च श्रुति_गिरो याम् आमनन्ति स्फुटम् ।
एकानेक_फल_प्रदां बहु_विधाऽऽकारास्तनूस्तन्वतीं
कामाक्षीं सकलार्ति_भञ्जन_परां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥८॥
क्षोणी_भृत्_तनयेति च श्रुति_गिरो याम् आमनन्ति स्फुटम् ।
एकानेक_फल_प्रदां बहु_विधाऽऽकारास्तनूस्तन्वतीं
कामाक्षीं सकलार्ति_भञ्जन_परां वन्दे महेश_प्रियाम् ॥८॥
मायाम् आदिम्_कारणं त्रि_जगताम् आराधिताङ्घ्रि_द्वयाम्
आनन्दामृत_वारि_राशि_निलयां विद्यां विपश्चिद्_धियाम् ।
माया मानुष रूपिणीं मणि_लसन्मध्यां महामातृकां
कामाक्षीं करि राज मन्द_गमनां वन्दे महेश प्रियाम् ॥९॥
आनन्दामृत_वारि_राशि_निलयां विद्यां विपश्चिद्_धियाम् ।
माया मानुष रूपिणीं मणि_लसन्मध्यां महामातृकां
कामाक्षीं करि राज मन्द_गमनां वन्दे महेश प्रियाम् ॥९॥
कान्ता काम_दुधा करीन्द्र_गमना कामारि_वामाङ्क_गा
कल्याणी कलितावतार_सुभगा कस्तूरिका_चर्चिता
कम्पा_तीर_रसाल_मूल_निलया कारुण्य_कल्लोलिनी
कल्याणानि करोतु मे भगवती काञ्ची_पुरी देवता ॥१०॥
कल्याणी कलितावतार_सुभगा कस्तूरिका_चर्चिता
कम्पा_तीर_रसाल_मूल_निलया कारुण्य_कल्लोलिनी
कल्याणानि करोतु मे भगवती काञ्ची_पुरी देवता ॥१०॥
Thursday, July 10, 2014
* अपर्णा अप्सरा साधना
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अपसरा साधना स्पष्ट शब्दो मेँ यह काम भावना की साधना है। अप्सरा का अर्थ एसी देवी वर्ग से है जोसौंदर्य की द्रष्टि से अनुपमेय हो। मुख की सुन्दरता के साथ साथ देह व वाणी सौँन्दर्य न्रत्य संगीतकाव्य-हास्य-विनोद सभी प्रकार के सौंदर्योँ से भरपूर हो।जिसे देख कर मन मोहित हो काम स्फुरन आरंम्भ हो जाए..............
कुंकुमपंअकलंकितदेहा गौरपयोधरकपम्पितहारा।नूपूरह ंसरणत्पदपदूमाकं नवशीकुरुते भुविरामा॥
अर्थ-जिसका शरीर केसर के उबटन से सुन्दर बना हुआ है, जिसके गुलाबी स्तनोँ पर मोती का हार झूल रहा है चरण कमल मे नुपूर रुपी हंस शब्द करतेँ हो। एसी लोकोत्तर सुन्दरी किसे अपने वश मे नहिकर सकती।
आवश्यक सामग्री
-गुलाबजल,गुलाब का इत्र, अप्सरा का चित्र,दीपक, शुद्ध घी या चमेली का तेल, एक बेजोट,कोरा श्वेत वस्त्र केसर दो गुलाब के फूल,शंख की माला, श्वेत या कंबल का आसन, सफेद धोती गमझा,
दिन व समय-किसी भी मास की एक तारीख को या किसी भी पुष्य नक्षत्र मे की जा सकती है। रात्रि 11 बजे करे।@मंत्र-ॐ ल्रं ठं ह्रां सः सः[OM LRAM THM HRAM SH SH]
विधी-साधना के करने से पूर्व बेजोट पर श्वेत वस्त्र कोरा वस्त्र बिछा कर अप्सरा का चित्र रखेँ! दीपक जला कर केसर से पूजन करे।उक्त विधी द्वारा अंगो को चित्र मे स्पर्श करें! [>समस्त अप्सराओ की साधना मे यह वैदिक विधी प्रयोग की जा सकती है।
अं नारिकेल रुपायै नमः-शिरसिआं वासुकी रुपायै नमः-केशायइं सागर रुपायै नमः- नेत्रयोईँ-मत्यस्य रुपायै नमः -भ्रमरेउं मधुरायै नमः- कपोलेऊं गुलपुष्पायै नमः- मुखेएं गह्वरायै नमः-चिबुकेऐं पद्मपत्रायै नमः-अधरोष्ठेओं दाडिमबीजायै नमः-दंतपंक्तौऔं हंसिन्यै नमः-ग्रिवायैअं पुष्प वल्ल्यै नमः-भुजायोःअः सूर्यचंद्रमाय नमः-कुचेकं सागरप्रगल्भायै नमः- वक्षेखं पीपरपत्रकायै नमः-उदरौगं वासुकीझील्यै नमः-नाभौघं गजसुंडायै नमः-जंघायैचं सौंदर्यरुपायै नमः पादयौघं हरिणमोहिन्यै नमः-चरणेजं आकाशाय नमः-नितम्भयोझं जगतमोहिन्यै नमः-रुपेटं काम प्रियायै नमः- सर्वांगेअब अप्सरा के भावोँ की कल्पना करेँठं देवमोहिन्यै नमः-गत्यमौडं विश्व मोहिन्यै नमः-चितवनेढं अदोष रुपायै नमः-द्रष्ट्यैतं अष्टगंधायै नमः-सुगंधेषुथं देवदुर्लभायै नमः-प्रणयंदं सर्वमोहिन्यै नमः-हास्येघं सर्वमंगलायै नमः-कोमलांग्यैनं धनप्रदायै नमः- लक्ष्म्यैपं देहसुखप्रदाय नमः-रत्यैफं कामक्रिडायै नमः-मधुरेबं सुखप्रदायै नमः-हेमवत्यैभं आलिंगनायै नमः-रुपायैमं रात्रौसमाप्त्यैनमः-गौर्यैय ं भोगप्रदायै नमः-भोग्यैरं रतिक्रयायै नमः-अप्सरायैलं प्रणयप्रियायै नमः-दिव्यांगनायैवं मनोवांछितप्रदायनमः-अप्सराय ैशं सर्वसुखप्रदायै नमः-योगरुपायैषं कामक्रिडायै नमः-देव्यैसं जलक्रिडायै नमः-कोमलांगिन्यैहं स्वर्ग प्रदायै नमः-अर्पणाप्सरायै
अब एक गुलाब का पुष्प चित्र के पास रखे गुराब का इत्र रुई मे ले कर चित्र के पास रख दे। एवं अब स्वयं इत्र लगावेँ। एक मुलैठी या इलायची चबा जाऐ।अब लोटे मे जल ले उसमेँ गुलाब जल व गंगा जल मिला कर
विनयोग करेँॐ अस्य श्री अर्पणा अप्सरा मंत्रस्य कामदेव ऋषि पंक्ति छंद काम क्रिडेश्वरी देवता सं सौन्दर्य बीजं कं कामशक्ति अं कीलकं श्री अर्पणाप्सरा सिध्दयर्थं रति सुख प्रदाय प्रिया रुपेण सिद्धनार्थमंत्र जपे विनयोगःन्यास/ करन्यासॐअद्वितीयसौँदर्यनमः शिरषिॐकामक्रिड़ासिध्दायैनमः मुखेॐआलिंगनसुखप्रदायैनमः ह्रिदीॐदेहसुखप्रदायैनमः गुह्योॐआजन्मप्रियायैनमः पादयोॐमनोवांछितकार्यसिद्धा यै नमः करसंपुटेॐ दरिद्रनाशय विनियोगायैनमः सरवांगेॐसुभगायै अंगुष्ठाभ्यां नमःॐसौन्दर्यायै तर्जनीभ्यां नमःॐरतिसुखप्रदाय मध्यमाभ्यां नमःॐदेहसुखप्रदाय अनामिकाभ्याम नमःॐ भोगप्रदाय कनिष्ठाभ्यां नमःॐ आजन्मप्रणयप्रदायै करतलपृष्ठाभ्यांनमःध्यानहेम प्रकारमध्ये सुरविटपटले रत्नपीठाधिरुढांयक्षीँ बालां स्मरामः परिमल कुसुमोद्भासिधम्मिल्लभाराम पीनोत्तुंग स्तननाढ्य कुवलयनयनां रत्नकांचीकराभ्यां भ्राम द्भक्तोत्पलाभ्यां नवरविवसनां रक्तभूषांगरागाम्रात्री
काल मेँ मन मे प्रेमिकासे मिलने का भाव रख कर 11 शंख की माला से जाप करेँ। 5 माला पूर्ण हो जाने पर पर प्रमाव प्रत्यक्ष होने लगता हैनाना प्रकार की क्रिडा अप्सरा द्वारा की जाती है विचलित हुए बिना जप पूर्ण हो जाए तो वचन हरा लेँ।@विशेषसाधना से एक दिन पूर्व ही साधना कक्ष को साफ कर लेना चाहिए अर्धरात्री से मौन रखे कर अकले दिन रात मेँ साधना से पूर्व मौन खत्म होता है व्यसन कामुकता पूर्णतः वर्जित है। साधना से पूर्व गुरु,गणेश,शिव,इष्ट पूजन आवश्यक है आसन शुद्धी माला संस्करण आसन जाप आदी कर लेना चाहिए ताकी साधना की सफलता की संभावना बनी रहे ये सभी साधनाओँ का आधार होते है@भाव की प्रधानतायह साधना काम भाव की है अर्थ ये नही की आप कामुक भाव से करे। भाव ये है की एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के प्रेम मे व्याकुल उसे पुकार रहा है।
नोट- ये साधना एक दिवसी अवश्य है परन सरल नहि सात्विक्ता से रह कर, मौन रह कर, काम क्रोध लोभ मोह त्याग कर, मनको शांत रख कर ही आप साधना मे अपनी सफलता की संभावना को बढा सकतेँ है सामग्री को बदला जाए या इनके विकल्पो का प्रयोग करना वर्जित है।।याद रखे गाण्डिवधारी अर्जुन जैसा धनुर्धर खुद को अप्सरा के श्राप से नहि बचा पाया था। अतः किसी भी साधना या शक्ती को सहज न समझेँ। देवराज इन्द्र द्वारा इन्हे साधना भंग करने हेतु पहुँचाया जाता रहा अतः ये इस कार्य मे निपुण होतीँ है अतः साधक विचलित न हो ये आवश्यक है।
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