Wednesday, September 21, 2016

पितर या  पितृ  गण

""""""""""""""""""""""""""""""""""

पितर या पितृ गण कौन हैं ?
=====================
पितृ गण हमारे पूर्वज हैंजिनका ऋण हमारे ऊपर है ,क्योंकि उन्होंने कोई ना कोई उपकार हमारे जीवन के लिए किया है | मनुष्य लोक से ऊपर पितृ लोक है,पितृ लोक के ऊपर सूर्य लोक है एवं इस से भी ऊपर स्वर्ग लोक है| आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर सबसे पहले ऊपर उठती है तो वह पितृ लोक में जाती है ,वहाँ हमारे पूर्वज मिलते हैं |अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो ये हमारे पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं की इस अमुक आत्मा ने हमारे कुल में जन्म लेकर हमें धन्य किया |इसके आगे आत्मा अपने पुण्य के आधार पर सूर्य लोक की तरफ बढती है |वहाँ से आगे ,यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य लोक को बेध कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है,लेकिन करोड़ों में एक आध आत्मा ही ऐसी होती है ,जो परमात्मा में समाहित होती है |जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता | मनुष्य लोक एवं पितृ लोक में बहुत सारी आत्माएं पुनः अपनी इच्छा वश ,मोह वश अपने कुल में जन्म लेती हैं|

पितृ दोष क्या होता है?

हमारे ये ही पूर्वज सूक्ष्म व्यापक शरीर से अपने परिवार को जब देखते हैं ,और महसूस करते हैं कि हमारे परिवार के लोग ना तो हमारे प्रति श्रद्धा रखते हैं और न ही इन्हें कोई प्यार या स्नेह है और ना ही किसी भी अवसर पर ये हमको याद करते हैं,ना ही अपने ऋण चुकाने का प्रयास ही करते हैं तो ये आत्माएं दुखी होकर अपने वंशजों को श्राप दे देती हैं,जिसे "पितृ- दोष" कहा जाता है |

पितृ दोष एक अदृश्य बाधा है .ये बाधा पितरों द्वारा रुष्ट होने के कारण होती है |पितरों के रुष्ट होने के बहुत से कारण हो सकते हैं ,आपके आचरण से,किसी परिजन द्वारा की गयी गलती से ,श्राद्ध आदि कर्म ना करने से ,अंत्येष्टि कर्म आदि में हुई किसी त्रुटि के कारण भी हो सकता है |

इसके अलावा मानसिक अवसाद,व्यापार में नुक्सान ,परिश्रम के अनुसार फल न मिलना ,वैवाहिक जीवन में समस्याएं कैरिअर में समस्याएं या संक्षिप्त में कहें तो जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति और उसके परिवार को बाधाओं का सामना करना पड़ता है , पितृ दोष होने पर अनुकूल ग्रहों की स्थिति ,गोचर ,दशाएं होने पर भी शुभ फल नहीं मिल पाते, कितना भी पूजा पाठ ,देवी ,देवताओं की अर्चना की जाए ,उसका शुभ फल नहीं मिल पाता|

पितृ दोष दो प्रकार से प्रभावित करता है :-

१.अधोगति वाले पितरों के कारण
२. .उर्ध्वगति वाले पितरों के कारण

1:- अधोगति वाले पितरों के दोषों का मुख्य कारण परिजनों द्वारा किया गया गलत आचरण,परिजनों की अतृप्त इच्छाएं ,जायदाद के प्रति मोह और उसका गलत लोगों द्वारा उपभोग
होने पर,विवाहादिमें परिजनों द्वारा गलत निर्णय .परिवार के किसी प्रियजन को अकारण कष्ट देने पर पितर क्रुद्ध हो जाते हैं ,परिवार जनों को श्राप दे देते हैं और अपनी शक्ति से
नकारात्मक फल प्रदान करते हैं|

2:- उर्ध्व गति वाले पितर सामान्यतः पितृदोष उत्पन्न नहीं करते ,परन्तु उनका किसी भी रूप में अपमान होने पर अथवा परिवार के पारंपरिक रीति-रिवाजों का निर्वहन नहीं
करने पर वह पितृदोष उत्पन्न करते हैं |इनके द्वारा उत्पन्न पितृदोष से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बिलकुल बाधित हो जाती है ,फिर चाहे कितने भी
प्रयास क्यों ना किये जाएँ ,कितने भी पूजा पाठ क्यों ना किये जाएँ,उनका कोई भी कार्य ये पितृदोष सफल नहीं होने देता |

पितृ दोष निवारण के लिए सबसे पहले ये जानना ज़रूरी होता है कि किस गृह के कारण और किस प्रकार का पितृ दोष उत्पन्न हो रहा है ?

जन्म पत्रिका और पितृ दोष
~~~~~~~~~~~~~~

जन्म पत्रिका में लग्न ,पंचम ,अष्टम और द्वादश भाव से पितृदोष का विचार किया जाता है |पितृ दोष में ग्रहों में मुख्य रूप से सूर्य ,चन्द्रमा ,गुरु ,शनि ,और राहू -केतु की स्थितियों से पितृ दोष का विचार किया जाता है |इनमें से भी गुरु ,
शनि और राहु की भूमिका प्रत्येक पितृ दोष में महत्वपूर्ण होती है |

इनमें सूर्य से पिता या पितामह , चन्द्रमा से माता या मातामह ,मंगल से भ्राता या भगिनी और शुक्र से पत्नी का विचार किया जाता है |अधिकाँश लोगों की जन्म पत्रिका में मुख्य रूप से क्योंकि गुरु ,शनि और राहु से पीड़ित होने पर ही पितृ दोष उत्पन्न होता है ,इसलिए विभिन्न उपायों को करने के साथ साथ व्यक्ति यदि पंचमुखी ,सातमुखी और आठ मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर ले , तो पितृ दोष का निवारण शीघ्र हो जाता है |पितृ दोष निवारण के लिए इन रुद्राक्षों को धारण करने के अतिरिक्त इन ग्रहों के अन्य उपाय जैसे मंत्र जप और स्तोत्रों का पाठ करना भी श्रेष्ठ होता है |

विभिन्न ऋण और पितृ दोष
~~~~~~~~~~~~~~
हमारे ऊपर मुख्य रूप से ५ ऋण होते हैं जिनका कर्म न करने(ऋण न चुकाने पर ) हमें निश्चित रूप से श्राप मिलता है ,ये ऋण हैं : मातृ ऋण ,पितृ ऋण ,मनुष्य ऋण ,देव ऋण और ऋषि ऋण |

मातृ ऋण :
~~~~~~

माता एवं माता पक्ष के सभी लोग जिनमेंमा,मामी ,नाना ,नानी ,मौसा ,मौसी और इनके तीन पीढ़ी के पूर्वज होते हैं ,क्योंकि माँ का स्थान परमात्मा से भी ऊंचा माना गया है अतः यदि माता के प्रति कोई गलत शब्द बोलता है ,अथवा माता के पक्ष को कोई कष्ट देता रहता है,तो इसके फलस्वरूप उसको नाना प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं |इतना ही नहीं ,इसके बाद भी कलह और कष्टों का दौर भी परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता ही रहता है |

पितृ ऋण :
~~~~~~~

पिता पक्ष के लोगों जैसे बाबा ,ताऊ ,चाचा, दादा-दादी और इसके पूर्व की तीन पीढ़ी का श्राप हमारे जीवन को प्रभावित करता है |पिता हमें आकाश की तरह छत्रछाया देता है,हमारा जिंदगी भर पालन -पोषण करता है ,और अंतिम समय तक हमारे सारे दुखों को खुद झेलता रहता है |पर आज के के इस भौतिक युग में पिता का सम्मान क्या नयी पीढ़ी कर रही है ?पितृ -भक्ति करना मनुष्य का धर्म है ,इस धर्म का पालन न करने पर उनका श्राप नयी पीढ़ी को झेलना ही पड़ता है ,इसमें घर में आर्थिक अभाव,दरिद्रता ,संतानहीनता ,संतान को विबिन्न प्रकार के कष्ट आना या संतान अपंग रह जाने से जीवन भर कष्ट की प्राप्ति आदि |

देव ऋण :
~~~~~

माता -पिता प्रथम देवता हैं,जिसके कारण भगवान गणेश महान बने |इसके बाद हमारे इष्ट भगवान शंकर जी ,दुर्गा माँ ,भगवान विष्णु आदि आते हैं ,जिनको हमारा कुल मानता आ रहा है ,हमारे पूर्वज भी भी अपने अपने कुल देवताओं को मानते थे , लेकिन नयी पीढ़ी ने बिलकुल छोड़ दिया है |इसी कारण भगवान /कुलदेवी /कुलदेवता उन्हें नाना प्रकार के कष्ट /श्राप देकर उन्हें अपनी उपस्थिति का आभास कराते हैं|

ऋषि ऋण :
~~~~~~

जिस ऋषि के गोत्र में पैदा हुए ,वंश वृद्धि की ,उन ऋषियों का नाम अपने नाम के साथ जोड़ने में नयी पीढ़ी कतराती है ,उनके ऋषि तर्पण आदि नहीं करती है | इस कारण उनके घरों में कोई मांगलिक कार्य नहीं होते हैं,इसलिए उनका श्राप पीडी दर पीढ़ी प्राप्त होता रहता है |

मनुष्य ऋण :
~~~~~~~

माता -पिता के अतिरिक्त जिन अन्य मनुष्यों ने हमें प्यार दिया ,दुलार दिया ,हमारा ख्याल रखा ,समय समय पर मदद की |गाय आदि पशुओं का दूध पिया |जिन अनेक मनुष्यों ,पशुओं ,पक्षियों ने हमारी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मदद की ,उनका ऋण भी हमारे ऊपर हो गया |लेकिन लोग आजकल गरीब ,बेबस ,लाचार लोगों की धन संपत्ति हरण करके अपने को ज्यादा गौरवान्वित महसूस करते हैं|इसी कारण देखने में आया है कि ऐसे लोगों का पूरा परिवार जीवन भर नहीं बस पाता है,वंश हीनता ,संतानों का गलत संगति में पड़ जाना,परिवार के सदस्यों का आपस में सामंजस्य न बन पाना ,परिवार कि सदस्यों का किसी असाध्य रोग से ग्रस्त रहना इत्यादि दोष उस परिवार में उत्पन्न हो जाते हैं |ऐसे परिवार को पितृ दोष युक्त या शापित परिवार कहा जाता है| रामायण में श्रवण कुमार के माता -पिता के श्राप के कारण दशरथ के परिवार को हमेशा कष्ट झेलना पड़ा,ये जग -ज़ाहिर है |इसलिए परिवार कि सर्वोन्नती के पितृ दोषों का निवारण करना बहुत आवश्यक है|

पितृ-दोष कि शांति के उपाय : -
~~~~~~~~~~~~~~~~

सामान्य उपायों में षोडश पिंड दान ,सर्प पूजा ,ब्राह्मण को गौ -दान ,कन्या -दान,कुआं ,बावड़ी ,तालाब आदि बनवाना ,मंदिर प्रांगण में पीपल ,बड़(बरगद) आदि देव वृक्ष लगवाना एवं विष्णु मन्त्रों का जाप आदि करना ,प्रेत श्राप को दूर करने के लिए श्रीमद्द्भागवत का पाठ करना चाहिए |

वेदों और पुराणों में पितरों की संतुष्टि के लिए मंत्र ,स्तोत्र एवं सूक्तों का वर्णन है ,जिसके नित्य पठन से किसी भी प्रकार की पितृ बाधा क्यों ना हो ,शांत हो जाती है | अगर नित्य पठन संभव ना हो , तो कम से कम प्रत्येक माह की अमावस्या और आश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या अर्थात
पितृपक्ष में अवश्य करना चाहिए |

वैसे तो कुंडली में किस प्रकार का पितृ दोष है उस पितृ दोष के प्रकार के हिसाब से पितृदोष शांति करवाना अच्छा होता है,लेकिन कुछ ऐसे सरल सामान्य उपाय भी हैं,जिनको करने से पितृदोष शांत हो जाता है,ये उपाय निम्नलिखित हैं:-

सामान्य उपाय :
~~~~~~~~

१ .ब्रह्म पुराण (२२०/१४३ )में पितृ गायत्री मंत्र दिया गया है ,इस मंत्र कि प्रतिदिन १ माला या अधिक जाप करने से पितृ दोष में अवश्य लाभ होता है|

मंत्र :
====

देवताभ्यः पित्रभ्यश्च महा योगिभ्य एव च |
नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः || "

२. मार्कंडेय पुराण (९४/३ -१३ )में वर्णित इस चमत्कारी पितृ स्तोत्र का नियमित पाठ करने से भी पितृ प्रसन्न होकर स्तुतिकर्ता मनोकामना कि पूर्ती करते हैं :-

पुराणोक्त पितृ -स्तोत्र :
~~~~~~~~~~~~

अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम्।

नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम्।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा।

तान् नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्सूदधावपि।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा।
द्यावापृथिव्योश्च तथा नमस्यामि कृतांजलिः।।
देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान्।

अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येऽहं कृतांजलिः।।
प्रजापतं कश्यपाय सोमाय वरूणाय च।

योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृतांजलिः।।
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु।

स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा।

नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम्।।
अग्निरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम्।

अग्निषोममयं विश्वं यत एतदशेषतः।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः।

जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिणः।।
तेभ्योऽखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः।
नमो नमो नमस्ते मे प्रसीदन्तु स्वधाभुजः।।

अर्थ:
===

रूचि बोले - जो सबके द्वारा पूजित, अमूर्त, अत्यन्त तेजस्वी, ध्यानी तथा दिव्यदृष्टि सम्पन्न हैं, उन पितरों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।

जो इन्द्र आदि देवताओं, दक्ष, मारीच, सप्तर्षियों तथा दूसरों के भी नेता हैं, कामना की पूर्ति करने वाले उन पितरो को मैं प्रणाम करता हूँ।

जो मनु आदि राजर्षियों, मुनिश्वरों तथा सूर्य और चन्द्रमा के भी नायक हैं, उन समस्त पितरों को मैं जल और समुद्र में भी नमस्कार करता हूँ।

नक्षत्रों, ग्रहों, वायु, अग्नि, आकाश और द्युलोक तथा पृथ्वी के भी जो नेता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

जो देवर्षियों के जन्मदाता, समस्त लोकों द्वारा वन्दित तथा सदा अक्षय फल के दाता हैं, उन पितरों को मैं हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

प्रजापति, कश्यप, सोम, वरूण तथा योगेश्वरों के रूप में स्थित पितरों को सदा हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

सातों लोकों में स्थित सात पितृगणों को नमस्कार है। मैं योगदृष्टिसम्पन्न स्वयम्भू ब्रह्माजी को प्रणाम करता हूँ।

चन्द्रमा के आधार पर प्रतिष्ठित तथा योगमूर्तिधारी पितृगणों को मैं प्रणाम करता हूँ। साथ ही सम्पूर्ण जगत् के पिता सोम को नमस्कार करता हूँ।

अग्निस्वरूप अन्य पितरों को मैं प्रणाम करता हूँ, क्योंकि यह सम्पूर्ण जगत् अग्नि और सोममय है।
जो पितर तेज में स्थित हैं, जो ये चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं तथा जो जगत्स्वरूप एवं ब्रह्मस्वरूप हैं, उन सम्पूर्ण योगी पितरो को मैं एकाग्रचित्त होकर प्रणाम करता हूँ। उन्हें बारम्बार नमस्कार है। वे स्वधाभोजी पितर मुझपर प्रसन्न हों।

विशेष - मार्कण्डेयपुराण में महात्मा रूचि द्वारा की गयी पितरों की यह स्तुति ‘पितृस्तोत्र’ कहलाता है। पितरों की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये इस स्तोत्र का पाठ किया जाता है। इस स्तोत्र की बड़ी महिमा है। श्राद्ध आदि के अवसरों पर ब्राह्मणों के भोजन के समय भी इसका पाठ करने-कराने का विधान है।

३.भगवान भोलेनाथ की तस्वीर या प्रतिमा के समक्ष बैठ कर या घर में ही भगवान भोलेनाथ का ध्यान कर निम्न मंत्र की एक माला नित्य जाप करने से समस्त प्रकार के पितृ- दोष संकट बाधा आदि शांत होकर शुभत्व की प्राप्ति होती है |मंत्र जाप प्रातः या सायंकाल कभी भी कर सकते हैं :

मंत्र :
~~~

"ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय च धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात ||

४.अमावस्या को पितरों के निमित्त पवित्रता पूर्वक बनाया गया भोजन तथा चावल बूरा ,घी एवं एक रोटी गाय को खिलाने से पितृ दोष शांत होता है |

५ . अपने माता -पिता ,बुजुर्गों का सम्मान,सभी स्त्री कुल का आदर /सम्मान करने और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहने से पितर हमेशा प्रसन्न रहते हैं |

६ . पितृ दोष जनित संतान कष्ट को दूर करने के लिए "हरिवंश पुराण " का श्रवण करें या स्वयं नियमित रूप से पाठ करें |

७ . प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती या सुन्दर काण्ड का पाठ करने से भी इस दोष में कमी आती है |

८.सूर्य पिता है अतः ताम्बे के लोटे में जल भर कर ,उसमें लाल फूल ,लाल चन्दन का चूरा ,रोली आदि डाल कर सूर्य देव को अर्घ्य देकर ११ बार "ॐ घृणि सूर्याय नमः " मंत्र का जाप करने से पितरों की प्रसन्नता एवं उनकी ऊर्ध्व गति होती है |

९. अमावस्या वाले दिन अवश्य अपने पूर्वजों के नाम दुग्ध ,चीनी ,सफ़ेद कपडा ,दक्षिणा आदि किसी मंदिर में अथवा किसी योग्य ब्राह्मण को दान करना चाहिए |

१० .पितृ पक्ष में पीपल की परिक्रमा अवश्य करें | अगर १०८ परिक्रमा लगाई जाएँ ,तो पितृ दोष अवश्य दूर होगा |
विशिष्ट उपाय :

कुछ अन्य उपाय
===========

१.किसी मंदिर के परिसर में पीपल अथवा बड़ का वृक्ष लगाएं और रोज़ उसमें जल डालें ,उसकी देख -भाल करें ,जैसे-जैसे वृक्ष फलता -फूलता जाएगा,पितृ -दोष दूर होता जाएगा,क्योकि इन वृक्षों पर ही सारे देवी -देवता ,इतर -योनियाँ ,पितर आदि निवास करते हैं |

२. यदि आपने किसी का हक छीना है,या किसी मजबूर व्यक्ति की धन संपत्ति का हरण किया है,तो उसका हक या संपत्ति उसको अवश्य लौटा दें |

३.पितृ दोष से पीड़ित व्यक्ति को किसी भी एक अमावस्या से लेकर दूसरी अमावस्या तक अर्थात एक माह तक किसी पीपल के वृक्ष के नीचे सूर्योदय काल में एक शुद्ध घी का दीपक लगाना चाहिए,ये क्रम टूटना नहीं चाहिए |
एक माह बीतने पर जो अमावस्या आये उस दिन एक प्रयोग और करें :--
इसके लिए किसी देसी गाय या दूध देने वाली गाय का थोडा सा गौ -मूत्र प्राप्त करें|उसे थोड़े एनी जल में मिलकर इस जल को पीपल वृक्ष की जड़ों में डाल दें |इसके बाद पीपल वृक्ष के नीचे ५ अगरबत्ती ,एक नारियल और शुद्ध घी का दीपक लगाकर अपने पूर्वजों से श्रद्धा पूर्वक अपने कल्याण की कामना करें,और घर आकर उसी दिन दोपहर में कुछ गरीबों को भोजन करा दें |ऐसा करने पर पितृ दोष शांत हो जायेगा|

४ .घर में कुआं हो या पीने का पानी रखने की जगह हो ,उस जगह की शुद्धता का विशेष ध्यान रखें,क्योंके ये पितृ स्थान माना जाता है | इसके अलावा पशुओं के लिए पीने का पानी भरवाने तथा प्याऊ लगवाने अथवा आवारा कुत्तों को जलेबी खिलाने से भी पितृ दोष शांत होता है|

५ . अगर पितृ दोष के कारण अत्यधिक परेशानी हो,संतान हानि हो या संतान को कष्ट हो तो किसी शुभ समय अपने पितरों को प्रणाम कर उनसे प्रण होने की प्रार्थना करें और अपने द्वारा जाने-अनजाने में किये गए अपराध / उपेक्षा के लिए क्षमा याचना करें ,फिर घर में श्रीमदभागवद का यथा विधि पाठ कराएं,इस संकल्प ले साथ की इसका पूर्ण फल पितरों को प्राप्त हो |ऐसा करने से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं ,क्योंके उनकी मुक्ति का मार्ग आपने प्रशस्त किया होता है|

६. पितृ दोष की शांति हेतु ये उपाय बहुत ही अनुभूत और अचूक फल देने वाला देखा गया है,वोह ये कि- किसी गरीब की कन्या के विवाह में गुप्त रूप से अथवा प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक सहयोग करना |(लेकिन ये सहयोग पूरे दिल से होना चाहिए ,केवल दिखावे या अपनी बढ़ाई कराने के लिए नहीं )|इस से पितर अत्यंत प्रसन्न होते हैं ,क्योंकि इसके परिणाम स्वरुप मिलने वाले पुण्य फल से पितरों को बल और तेज़ मिलता है ,जिस से वह ऊर्ध्व लोकों की ओरगति करते हुए पुण्य लोकों को प्राप्त होते हैं.|

७. अगर किसी विशेष कामना को लेकर किसी परिजन की आत्मा पितृ दोष उत्पन्न करती है तो तो ऐसी स्थिति में मोह को त्याग कर उसकी सदगति के लिए "गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र " का पाठ करना चाहिए.|

८.पितृ दोष दूर करने का अत्यंत सरल उपाय : इसके लिए सम्बंधित व्यक्ति को अपने घर के वायव्य कोण (उत्तर-दक्षिण)में नित्य सरसों का तेल में बराबर मात्रा में अगर का तेल मिलाकर दीपक पूरे पितृ पक्ष में नित्य लगाना चाहिए+दिया पीतल का हो तो ज्यादा अच्छा है ,दीपक कम से कम १० मिनट नित्य जलना आवश्यक है..........................

Friday, September 9, 2016


भगवान गणपति के  मन्त्र 

**************************
भगवान गणपति के मंत्र -

1 - ॐ गं गणपतये नमः ।
ऐसा शास्त्रोक्त वचन हैं कि गणेश जी का यह मंत्र चमत्कारिक और तत्काल फल देने वाला मंत्र हैं। इस मंत्र का पूर्ण भक्तिपूर्वक
जाप करने से समस्त बाधाएं दूर होती हैं। षडाक्षर का जप आर्थिक प्रगति व समृध्दि दायक है।

2 - ॐ वक्रतुंडाय हुम्‌ ।

किसी के द्वारा कि गई तांत्रिक क्रिया को नष्ट करने के लिए, विविध कामनाओं कि शीघ्र पूर्ति के लिए उच्छिष्ट गणपति कि साधना कि जाती हैं। उच्छिष्ट गणपति के मंत्र का जाप अक्षय भंडार प्रदान करने वाला है ।

3 - ॐ हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा ।

आलस्य, निराशा, कलह, विघ्न दूर करने के लिए विघ्नराज रूप की आराधना का यह मंत्र जपे ।

4 - ॐ गं क्षिप्रप्रसादनाय नम:।

मंत्र जाप से कर्म बंधन, रोग निवारण, कुबुद्धि, कुसंगत्ति, दूर्भाग्य, से मुक्ति होती हैं। समस्त विघ्न दूर होकर धन, आध्यात्मिक चेतना के विकास एवं आत्म बल की प्राप्ति के लिए हेरम्बं गणपति का मंत्र जपे ।

5 - ॐ गूं नम:।

रोजगार की प्राप्ति व आर्थिक समृध्दि प्राप्त होकर सुख सौभाग्य प्राप्त होता हैं।

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गण्पत्ये
वर वरदे नमः
ॐ तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात।
लक्ष्मी प्राप्ति एवं व्यवसाय बाधाएं दूर करने हेतु उत्तम माना गया हैं ।

ॐ गीः गूं गणपतये नमः स्वाहा।

इस मंत्र के जाप से समस्त प्रकार के विघ्नो एवं संकटो का का नाश होता हैं।

ॐ श्री गं सौभाग्य गणपत्ये वर वरद सर्वजनं में वशमानय स्वाहा।

विवाह में आने वाले दोषो को दूर करने वालों को त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र का जप करने से शीघ्र विवाह व अनुकूल जीवनसाथी की प्राप्ति होती है ।

ॐ वक्रतुण्डेक द्रष्टाय क्लींहीं श्रीं गं गणपतये वर वरद सर्वजनं मं दशमानय स्वाहा ।

इस मंत्रों के अतिरिक्त गणपति अथर्वशीर्ष संकटनाशक, गणेश स्त्रोत, गणेश कवच, संतान गणपति स्त्रोत, ऋणहर्ता गणपति स्त्रोत मयूरेश स्त्रोत, गणेश चालीसा का पाठ करने से गणेश जी की शीघ्र कृपा प्राप्त होती है ।

ॐ वर वरदाय विजय गणपतये नमः।

इस मंत्र के जाप से मुकदमे में सफलता प्राप्त होती हैं।

ॐ गं गणपतये सर्वविघ्न हराय सर्वाय सर्वगुरवे लम्बोदराय ह्रीं गं नमः।

वाद-विवाद, कोर्ट कचहरी में विजय प्राप्ति, शत्रु भय से छुटकारा पाने हेतु उत्तम।

ॐ नमःसिद्धिविनायकाय सर्वकार्यकर्त्रे सर्वविघ्न प्रशमनाय सर्व राज्य वश्यकारनाय सर्वजन सर्व स्त्री पुरुषाकर्षणाय श्री ॐ स्वाहा।

इस मंत्र के जाप को यात्रा में सफलता प्राप्ति हेतु प्रयोग किया जाता हैं।

ॐ हुं गं ग्लौं हरिद्रा गणपत्ये वरद वरद सर्वजन हृदये स्तम्भय स्वाहा।

यह हरिद्रा गणेश साधना का चमत्कारी मंत्र हैं।

ॐ ग्लौं गं गणपतये नमः।

गृह कलेश निवारण एवं घर में सुखशान्ति कि प्राप्ति हेतु।

ॐ गं लक्ष्म्यौ आगच्छ आगच्छ फट्।

इस मंत्र के जाप से दरिद्रता का नाश होकर, धन प्राप्ति के प्रबल योग बनने लगते हैं।

ॐ गणेश महालक्ष्म्यै नमः।

व्यापार से सम्बन्धित बाधाएं एवं परेशानियां निवारण एवं व्यापर में निरंतर उन्नति हेतु।

ॐ गं रोग मुक्तये फट्।

भयानक असाध्य रोगों से परेशानी होने पर उचित ईलाज कराने पर भी लाभ प्राप्त नहीं हो रहा हो, तो पूर्ण विश्वास सें मंत्र का जाप करने से या जानकार व्यक्ति से जाप करवाने से धीरे-धीरे रोगी को रोग से छुटकारा मिलता हैं।

ॐ अन्तरिक्षाय स्वाहा।

इस मंत्र के जाप से मनोकामना पूर्ति के अवसर प्राप्त होने लगते हैं।

गं गणपत्ये पुत्र वरदाय नमः।

इस मंत्र के जाप से उत्तम संतान कि प्राप्ति होती हैं।

ॐ वर वरदाय विजय गणपतये नमः।

इस मंत्र के जाप से मुकदमे में सफलता प्राप्त होती हैं।

ॐ श्री गणेश ऋण छिन्धि वरेण्य हुं नमः फट ।

यह ऋण हर्ता मंत्र हैं। इस मंत्र का नियमित जाप करना चाहिए। इससे गणेश जी प्रसन्न होते है और साधक का ऋण चुकता होता है। कहा जाता है कि जिसके घर में एक बार भी इस मंत्र का उच्चारण हो जाता है उसके घर में कभी भी ऋण या दरिद्रता नहीं आ सकती।

जप विधि-
प्रात: स्नानादि शुद्ध होकर कुश या ऊन के आसन पर पूर्व कि और मुख होकर बैठें। सामने गणॆश‌जी का चित्र, यंत्र या मूर्ति स्थाप्ति करें फिर षोडशोपचार या पंचोपचार से भगवान गजानन का पूजन कर प्रथम दिन संकल्प करें।

इसके बाद-
भगवान गणेश‌ का एकाग्रचित्त से ध्यान करें। नैवेद्य में यदि संभव होतो बूंदि या बेसन के लड्डू का भोग लगाये नहीं तो गुड का भोग लगाये ।

साधक को गणेश‌जी के चित्र या मूर्ति के सम्मुख शुद्ध घी का दीपक जलाए। रोज 108 माला का जाप करने
से शीघ्र फल कि प्राप्ति होती हैं।

यदि एक दिन में 108 माला संभव न हो तो 54, 27,18 या 9 मालाओं का भी जाप किया जा सकता हैं।

मंत्र जाप करने में यदि आप असमर्थ हो, तो किसी ब्राह्मण को उचित दक्षिणा देकर उनसे जाप करवाया जा सकता हैं।

Thursday, September 8, 2016

""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""

 वर्णमाला एवं शब्दार्थ


वर्णमाला एवं शब्दार्थ संबंध
भारत देश अन्य देशों से इस मामले में भिन्न है कि यहां जितना ध्यान शब्दों पर दिया गया, उससे कई गुना अधिक ध्यान वर्णों के स्वरूप और उनकी विशेषताओं पर दिया गया। बहुत थोड़े अंतर से भारतीय भाषाओं की वर्णमाला लगभग एक है। मैं यहां उर्दू को नहीं गिन रहा। वर्णमाला का विशेष महत्व बीज मंत्रों की संरचना या धारिणी मंत्रों में होती है। उस परिप्रेक्ष्य में वैदिक, बौद्ध, जैन सभी एक हैं। वर्ण अर्थहीन नहीं होते। वे स्वयं नाम एवं अर्थ देानो हैं।
कुछ शब्द सुनने में एक वर्ण लगते हैं लेकिन वे पूरे शब्द होते हैं, जैसे- ‘क’, जिसका अर्थ होता है- जल, ‘ख’- जिसका अर्थ होता है- आकाश, वगैरह लेकिन सभी वर्णों के इसी तरह अर्थ भी हों यह जरूरी नहीं है। एक या एक से अधिक वर्णों के योग से शब्द बनते हैं, ये किसी अर्थ, मतलब वस्तु, क्रिया या भाव के नाम होते हैं। इन नामों को सुनने या सुनाने में एक अर्थ बोध होता हैै। उस प्रक्रिया को जोड़ कर भाषा बन जाती है।
इस संदर्भ में लोगों ने जानने की कोशिश की कि आखिर शब्द और अर्थ के बीच का संबंध हमारे दिलोदिमाग में बैठता कैसे है? कैसे कैसे शब्द से ले कर वाक्य तक की जटिलता को हमारा मस्तिष्क समझता और याद रखता है। इस मुद्दे पर शिक्षा शास्त्री, भाषाविद और शिक्षा शास्त्री दो खेमें में बहुत पहले से बंटे हुए हैं। जब से खड़ी बोली हिंदी का निर्माण हुआ, तबसे यह विवाद इधर भी आ गया। हमारे जमाने में ही प्राथमिक हिन्दी पुस्तक में यह विवाद आ गया था। मनोहर पोथी, गीताप्रेस की किताबें वर्ण माला, फिर शब्द तब वाक्य सिखाने के पक्ष में रहीं। इनके विपरीत ‘लिखो-पढ़ो’ शृंखला की सरकारी पुस्तकें सीधे वाक्य सिखाने वाली थीं। इस मामले में यह जानना रोचक होगा कि इस बहस का पुराना शास्त्रीय नाम क्या है और इनके तर्क क्या हैं? वैसे उस जमाने के हिंन्दी शिक्षक इसे नूतन खोज या आविष्कार की ही तरह पेश करते थे और पुराने शिक्षकों को हिकारत से देखते थे और पुराने शिक्षक अपने ज्ञान को परंपरागत तथा अनुभव सिद्ध बताते थे और नये वालों को कुतर्की सरकारी गुलाम बताते थे।
परंपरागत शास्त्रों में इस बहस को अन्विताभिधानवाद और अभिहितान्वय वाद के नाम से जाना जाता है। यह मजेदार चर्चा अगली पोस्ट में जिसमें बकरी, गाय, एक बच्चा और कुछ अन्य लोग मुख्य किरदार का रोल निभाएंगे।

Tuesday, August 23, 2016



बीज -मन्त्रों  की  उपयोगिता 
***********************
ॐ कार मंत्र जैसे दूसरे २० मंत्र और हैं | उनको बोलते हैं बीज मंत्र | उसका अर्थ खोजो तो समझ में नही आएगा लेकिन अंदर की शक्तियों को विकसित कर देते हैं | सब बिज मंत्रो का अपना-अपना प्रभाव होता है | जैसे ॐ कार बीज मंत्र है ऐसे २० दूसरे भी हैं |

ॐ बं ये शिवजी की पूजा में बीज मंत्र लगता है | ये बं बं…. अर्थ को जो तुम बं बं…..जो शिवजी की पूजा में करते हैं | लेकिन बं…. उच्चारण करने से वायु प्रकोप दूर हो जाता है | गठिया ठीक हो जाता है | शिव रात्रि के दिन सवा लाख जप करो बं….. शब्द, गैस ट्रबल कैसी भी हो भाग जाती है | बीज मंत्र है

खं…. हार्ट-टैक कभी नही होता है | हाई बी.पी., लो बी.पी. कभी नही होता | ५० माला जप करें, तो लीवर ठीक हो जाता है | १०० माला जप करें तो शनि देवता के ग्रह का प्रभाव चला जाता है | खं शब्द |

ऐसे ही ब्रह्म परमात्मा का कं शब्द है | ब्रह्म वाचक | तो ब्रह्म परमात्मा के ३ विशेष मंत्र हैं | ॐ, खं और कं |

ऐसे ही रामजी के आगे भी एक बीज मंत्र लग जाता है | रीं रामाय नम: ||
कृष्ण जी के मंत्र के आगे बीज मंत्र लग जाता है | क्लीं कृष्णाय नम: ||

तो जैसे एक-एक के आगे, एक-एक के साथ मिंडी लगा दो तो १० गुना हो गया | ऐसे ही आरोग्य में भी ॐ हुं विष्णवे नम: | तो हुं बिज मंत्र है | ॐ बिज मंत्र है | विष्णवे…, तो विष्णु भगवान का सुमिरन | ये आरोग्य के मंत्र हैं | तो बिज मंत्र जिसमें जितने |

एक मैं मंत्र देता हूँ, जो एकदम सीरियस है, केस ठीक नही है, डॉक्टरों को समझ में नही आ रहा, तबियत ठीक नही है, फलाना है, धिन्गना है, एकदम विशेष जो रोगग्रस्त अथवा समस्या से, तकलीफ से ग्रस्त है | उनको मैं मंत्र देता हूँ | उसको मैंने ऐसे ही विनोद में नाम रख दिया यमराज का मोबाईल नम्बर है, तो उसमें ४ बिज मंत्र हैं |

तो बीज मंत्रो की साधना अथवा बीज मंत्रो का प्रभाव उसी सच्चिदानंद परमात्मा से आता है |
ये जो देवता लोग आशीर्वाद देते हैं अथवा जिनका आशीर्वाद पड़ता है, उनके जीवन में बीज मंत्रो का भी प्रभाव पड़ता है |

मंत्र शास्त्र में बीज मंत्रों का विशेष स्थान है। मंत्रों में भी इन्हें शिरोमणि माना जाता है क्योंकि जिस प्रकार बीज से पौधों और वृक्षों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार बीज मंत्रों के जप से भक्तों को दैवीय ऊर्जा मिलती है। ऐसा नहीं है कि हर देवी-देवता के लिए एक ही बीज मंत्र का उल्लेख शास्त्रों में किया गया है। बल्कि अलग-अलग देवी-देवता के लिए अलग बीज मंत्र हैं।

“ऐं” सरस्वती बीज । यह मां सरस्वती का बीज मंत्र है, इसे वाग् बीज भी कहते हैं। जब बौद्धिक कार्यों मंल सफलता की कामना हो, तो यह मंत्र उपयोगी होता है। जब विद्या, ज्ञान व वाक् सिद्धि की कामना हो, तो श्वेत आसान पर पूर्वाभिमुख बैठकर स्फटिक की माला से नित्य इस बीज मंत्र का एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

“ह्रीं” भुवनेश्वरी बीज । यह मां भुवनेश्वरी का बीज मंत्र है। इसे माया बीज कहते हैं। जब शक्ति, सुरक्षा, पराक्रम, लक्ष्मी व देवी कृपा की प्राप्ति हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

“क्लीं” काम बीज । यह कामदेव, कृष्ण व काली इन तीनों का बीज मंत्र है। जब सर्व कार्य सिद्धि व सौंदर्य प्राप्ति की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

“श्रीं” लक्ष्मी बीज । यह मां लक्ष्मी का बीज मंत्र है। जब धन, संपत्ति, सुख, समृद्धि व ऐश्वर्य की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पश्चिम मुख होकर कमलगट्टे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

“ह्रौं” शिव बीज । यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

“गं” गणेश बीज । यह गणपति का बीज मंत्र है। विघ्नों को दूर करने तथा धन-संपदा की प्राप्ति के लिए पीले रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

“श्रौं” नृसिंह बीज । यह भगवान नृसिंह का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, सर्व रक्षा बल, पराक्रम व आत्मविश्वास की वृद्धि के लिए लाल रंग के आसन पर दक्षिणाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या मूंगे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

“क्रीं” काली बीज । यह काली का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, पराक्रम, सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ आदि कामनाओं की पूर्ति के लिए लाल रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

“दं” विष्णु बीज । यह भगवान विष्णु का बीज मंत्र है। धन, संपत्ति, सुरक्षा, दांपत्य सुख, मोक्ष व विजय की कामना हेतु पीले रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर तुलसी की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।


दुर्गा  सप्तशती  का  हवन 

"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""कुछ लोग दुर्गा सप्तशती के पाठ के बाद हवन खुद की मर्जी से कर लेते है और हवन सामग्री भी खुद की मर्जी से लेते है ये उनकी गलतियों को सुधारने के लिए है।
दुर्गा सप्तशती के वैदिक आहुति की सामग्री---(एक बार ये भी करके देखे और खुद महसुस करे चमत्कारो को)
प्रथम अध्याय-एक पान देशी घी में भिगोकर 1 कमलगट्टा, 1 सुपारी, 2 लौंग, 2 छोटी इलायची, गुग्गुल, शहद यह सब चीजें सुरवा में रखकर खडे होकर आहुति देना।
द्वितीय अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, गुग्गुल विशेष
तृतीय अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 38 शहद
चतुर्थ अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं.1से11 मिश्री व खीर विशेष,
चतुर्थ अध्याय- के मंत्र संख्या 24 से 27 तक इन 4 मंत्रों की आहुति नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से देह नाश होता है। इस कारण इन चार मंत्रों के स्थान पर ओंम नमः चण्डिकायै स्वाहा’ बोलकर आहुति देना तथा मंत्रों का केवल पाठ करना चाहिए इनका पाठ करने से सब प्रकार का भय नष्ट हो जाता है।
पंचम अध्ययाय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 9 मंत्र कपूर, पुष्प, व ऋतुफल ही है।
षष्टम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक सं. 23 भोजपत्र।
सप्तम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक सं. 10 दो जायफल श्लोक संख्या 19 में सफेद चन्दन श्लोक संख्या 27 में इन्द्र जौं।
अष्टम अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार श्लोक संख्या 54 एवं 62 लाल चंदन।
नवम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या श्लोक संख्या 37 में 1 बेलफल 40 में गन्ना।
दशम अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 5 में समुन्द्र झाग 31 में कत्था।
एकादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 2 से 23 तक पुष्प व खीर श्लोक संख्या 29 में गिलोय 31 में भोज पत्र 39 में पीली सरसों 42 में माखन मिश्री 44 मेें अनार व अनार का फूल श्लोक संख्या 49 में पालक श्लोक संख्या 54 एवं 55 मेें फूल चावल और सामग्री।
द्वादश अध्याय- प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 10 मेें नीबू काटकर रोली लगाकर और पेठा श्लोक संख्या 13 में काली मिर्च श्लोक संख्या 16 में बाल-खाल श्लोक संख्या 18 में कुशा श्लोक संख्या 19 में जायफल और कमल गट्टा श्लोक संख्या 20 में ऋीतु फल, फूल, चावल और चन्दन श्लोक संख्या 21 पर हलवा और पुरी श्लोक संख्या 40 पर कमल गट्टा, मखाने और बादाम श्लोक संख्या 41 पर इत्र, फूल और चावल
त्रयोदश अध्याय-प्रथम अध्याय की सामग्री अनुसार, श्लोक संख्या 27 से 29 तक फल व फूल।
दुर्गा सप्तशती के अध्याय से कामनापूर्ति-
1- प्रथम अध्याय- हर प्रकार की चिंता मिटाने के लिए।
2- द्वितीय अध्याय- मुकदमा झगडा आदि में विजय पाने के लिए।
3- तृतीय अध्याय- शत्रु से छुटकारा पाने के लिये।
4- चतुर्थ अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिये।
5- पंचम अध्याय- भक्ति शक्ति तथा दर्शन के लिए।
6- षष्ठम अध्याय- डर, शक, बाधा ह टाने के लिये।
7- सप्तम अध्याय- हर कामना पूर्ण करने के लिये।
8- अष्टम अध्याय- मिलाप व वशीकरण के लिये।
9- नवम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
10- दशम अध्याय- गुमशुदा की तलाश, हर प्रकार की कामना एवं पुत्र आदि के लिये।
11- एकादश अध्याय- व्यापार व सुख-संपत्ति की प्राप्ति के लिये।
12- द्वादश अध्याय- मान-सम्मान तथा लाभ प्राप्ति के लिये।
13- त्रयोदश अध्याय- भक्ति प्राप्ति के लिये।
दुर्गा सप्तशती का पाठ करने और सिद्ध करने की मुख्याविधियाँ:--
सामान्य विधि :
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं।
वाकार विधि :
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।
संपुट पाठ विधि :
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-1, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।
सार्ध नवचण्डी विधि :
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है।
शतचण्डी विधि :
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (108) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी 50 क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है।
इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (1008) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।










भैरव  --  साधना 
""""""""""""""""""""""….भैरव के 52 रूपों में किसी भी रूप या पूर्ण 52 भैरव की साधना हर एक तंत्र साधक को करने ही चाहिए।
हर एक साधना की एक विशिष्ट दीक्षा पद्दति होती है हर एक साधना की अलग सिद्धि सूत्र जो केवल और मात्र गुरुमुख से ही प्राप्त की जा सकती है। पर क्या अगर किसी को सद्गुरु प्राप्त ना हुवा हो तो वह भैरव उपासना नहीं कर सकता??? कर सकता है पर स्तोत्र के रूप में।
आगे जो स्तोत्र दिया जा रहा है यह स्तोत्र साधक की हर इच्छा पूर्ण करने में सक्षम है। चाहे कोही भी हो। हर इच्छा अवश्य पूर्ण होती ही है।
और हर एक व्यक्ति को इस स्तोत्र का अनुष्ठान करने ही चाहिए।
सबसे पहले साधक श्री भैरव नाथ को या भगवान् महादेव को अपने गुरु रूप में स्वीकार करें।
इस स्तोत्र पाठ की विधान अत्यंत सरल है। साधक मंगलवार अपने सामने मात्र “बटुक भैरव यन्त्र ” स्थापित कर यन्त्र की पंचोपचार पूजन कर इस स्तोत्र की नित्य पाठ करें(एक बार में कम-से-कम 51 आवश्यक है।)। यह स्तोत्र 11000 पाठ से सिद्ध होती है। इसके बाद स्तोत्र की मात्र 1 पाठ से उच्चाटन और स्तम्भन जैसे कार्य किये जा सकते हैं।
नैवेद्य पूजन के बाद किसी कुत्ते को खिल दें।
विनियोग
अस्य श्री बटुक भैरवनामाष्टशतकाऽपदुद्धारणस्तोत्रमंत्रस्य वृहदारण्यक ऋषिः श्री बटुक भैरवो देवता, अनुष्टुप छन्दः ह्रीं बीजं बटुकयैति शक्तिः प्रणव कीलकम अभीष्टसिद्धयर्थे विनियोगः
करन्यास
ह्रां वां अंगुष्ठाभ्यां नमः
ह्रीं वीं तर्जनीभ्याम नमः
ह्रूं वूं मध्यमाभ्याम नमः
ह्रैं वैं अनामिकाभ्याम नमः
ह्रों वों कनिष्ठिकाभ्याम नमः
ह्रः वः करतलकरपृष्ठाभ्याम नमः
[ करन्यासवत हृद्यादी न्यास ]
नैवेद्य
ऎह्ये हि देवी पुत्र बटुकनाथ कपिलजटाभारभास्वर त्रिनेत्र ज्वालामुख सर्व विघ्नान नाशय नाशय सर्वोपचार सहित बलिं गृहण गृहण स्वाहा
ॐ भैरवो भूतनाथश्च भूतात्मा भूतभावन।
क्षेत्रज्ञः क्षेत्रपालश्च क्षेत्रदः क्षत्रियो विराट्॥१॥
श्मशान वासी मांसाशी खर्पराशी स्मरांतकः।
रक्तपः पानपः सिद्धः सिद्धिदः सिद्धिसेवित॥२॥
कंकालः कालशमनः कलाकाष्टातनु कविः।
त्रिनेत्रो बहुनेत्रश्च तथा पिंगल-लोचनः॥३॥
शूलपाणिः खङ्गपाणिः कंकाली धूम्रलोचनः।
अभीरूर भैरवीनाथो भूतपो योगिनीपतिः॥४॥
धनदो अधनहारी च धनवान् प्रतिभानवान्।
नागहारो नागपाशो व्योमकेशः कपालभृत्॥५॥
कालः कपालमाली च कमनीयः कलानिधिः।
त्रिलोचनो ज्वलन्नेत्रः त्रिशिखा च त्रिलोकपः ॥६॥
त्रिनेत्र तनयो डिम्भशान्तः शान्तजनप्रियः।
बटुको बहुवेषश्च खट्वांग वरधारकः॥७॥
भूताध्यक्षः पशुपतिः भिक्षुकः परिचारकः।
धूर्तो दिगम्बरः शूरो हरिणः पांडुलोचनः॥८॥
प्रशांतः शांतिदः शुद्धः शंकर-प्रियबांधवः।
अष्टमूर्तिः निधीशश्च ज्ञान-चक्षुः तपोमयः॥९॥
अष्टाधारः षडाधारः सर्पयुक्तः शिखिसखः।
भूधरो भुधराधीशो भूपतिर भूधरात्मजः॥१०॥
कंकालधारी मुण्डी च नागयज्ञोपवीतिकः ।
जृम्भणो मोहनः स्तम्भो मारणः क्षोभणस्तथा ॥११॥
शुद्धनीलांजन प्रख्यो दैत्यहा मुण्डभूषितः।
बलिभुग् बलिभंगः वैद्यवीर नाथी पराक्रमः ॥१२॥
सर्वापित्तारणो दुर्गे दुष्टभूत-निषेवितः।
कामी कलानिधि कान्तः कामिनी वशकृद्वशी॥१३॥
सर्व सिद्धि परदों वैद्यः प्रभुर्विष्णुरितीव हि
अष्टोतर शतं नाम्नां भैरवस्य महात्मनः ॥१४॥
मयाते कथितं देवी रहस्य सर्व कामिकं
यः इदं पठत स्तोत्रं नामाष्टशतमुत्तमम् ॥१५॥
—–इति
हर साधना से पूर्व भैरव साधना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है ….. पर कैसे करें भैरवनाथ की स्तुति??
यहाँ नीचे भैरव की सबसे प्रभावकारी स्तोत्रों में से एक स्तोत्र दे रहा हूँ जिससे भैरव तांडव स्तोत्र का भी संज्ञा दिया गया है।
बस पूर्ण भाव विभोर होकर स्तुति करें और देखें भैरव नाथ की चमत्कार।
यं यं यं यक्ष रूपं दश दिशि विदितं भूमि कम्पायमानं
सं सं सं संहार मूर्ति शुभ मुकुट जटा शेखरं चन्द्र विम्बं
दं दं दं दीर्घ कायं विकृत नख मुख चौर्ध्व रोमं करालं
पं पं पं पाप नाशं प्रणमतं सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ १ ॥
रं रं रं रक्तवर्णं कटक कटितनुं तीक्ष्णदंष्ट्रा विशालं
घं घं घं घोर घोसं घ घ घ घ घर्घरा घोर नादं
कं कं कं कालरूपं धग धग धगितं ज्वलितं कामदेहं
दं दं दं दिव्य देहं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ २ ॥
लं लं लं लम्ब दन्तं ल ल ल ल लुलितं दीर्घ जिह्वाकरालं
धूं धूं धूं धूम्रवर्ण स्फुट विकृत मुखंमासुरं भीम रूपं
रूं रूं रूं रुण्डमालं रुधिरमय मुखं ताम्र नेत्रं विशालं
नं नं नं नग्नरूपं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ ३ ॥
वं वं वं वायुवेगं प्रलय परिमितं ब्रह्मरूपं स्वरूपं
खं खं खं खड्गहस्तं त्रिभुवन निलयं भास्करं भीमरूपं
चं चं चं चालयन्तं चल चल चलितं चालितं भूत चक्रं
मं मं मं मायकायं प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ ४ ॥
खं खं खं खड्गभेदं विषममृतमयं काल कालान्धकारं
क्षि क्षि क्षि क्षिप्र वेग दह दह दहन नेत्रं सांदिप्यमानं
हूं हूं हूं हूंकार शब्दं प्रकटित गहन गर्जितं भूमिकंपं
बं बं बं बाललिलम प्रणमत सततं भैरवं क्षेत्रपालं ॥ ५ ॥

Tuesday, August 16, 2016

*जन्मपूर्व योनि विचार*
1- जिस व्यक्ति की कुंडली में चार या इससे अधिक ग्रह उच्च राशि के अथवा स्वराशि के हों तो उस व्यक्ति ने उत्तम योनि भोगकर यहां जन्म लिया है, ऐसा ज्योतिषियों का मानना है।
2- लग्न में उच्च राशि का चंद्रमा हो तो ऐसा व्यक्ति पूर्वजन्म में योग्य वणिक था, ऐसा मानना चाहिए।
3- लग्नस्थ गुरु इस बात का सूचक है कि जन्म लेने वाला पूर्वजन्म में वेदपाठी ब्राह्मण था। यदि
जन्मकुंडली में कहीं भी उच्च का गुरु होकर लग्न को देख रहा हो तो बालक पूर्वजन्म में
धर्मात्मा, सद्गुणी एवं विवेकशील साधु
अथवा तपस्वी था, ऐसा मानना चाहिए।
4- यदि जन्म कुंडली में सूर्य छठे, आठवें या बारहवें भाव में हो अथवा तुला राशि का हो तो व्यक्ति पूर्वजन्म में भ्रष्ट जीवन व्यतीत करना वाला था, ऐसा मानना चाहिए।
5- लग्न या सप्तम भाव में यदि शुक्र हो तो जातक पूर्वजन्म में राजा अथवा सेठ था व जीवन के सभी
सुख भोगने वाला था, ऐसा समझना चाहिए।
6- लग्न, एकादश, सप्तम या चौथे भाव में शनि इस बात का सूचक है कि व्यक्ति पूर्वजन्म में शुद्र परिवार से संबंधित था एवं पापपूर्ण कार्यों में लिप्त था।
7- यदि लग्न या सप्तम भाव में राहु हो तो व्यक्ति की पूर्व मृत्यु स्वभाविक रूप से नहीं हुई, ऐसा ज्योतिषियों का मत है।
8- चार या इससे अधिक ग्रह जन्म कुंडली में
नीच राशि के हों तो ऐसे व्यक्ति ने पूर्वजन्म में
निश्चय ही आत्महत्या की होगी, ऐसा मानना चाहिए।
9- कुंडली में स्थित लग्नस्थ बुध स्पष्ट करता है
कि व्यक्ति पूर्वजन्म में वणिक पुत्र था एवं विविध क्लेशों से ग्रस्त रहता था।
10- सप्तम भाव, छठे भाव या दशम भाव में मंगल
की उपस्थिति यह स्पष्ट करती है कि यह व्यक्ति पूर्वजन्म में क्रोधी स्वभाव का था तथा कई लोग इससे पीडित रहते थे।
11- गुरु शुभ ग्रहों से दृष्ट हो या पंचम या नवम भाव में हो तो जातक पूर्वजन्म में संन्यासी था, ऐसा मानना चाहिए।
12- कुंडली के ग्यारहवे भाव में सूर्य, पांचवे में गुरु
तथा बारहवें में शुक्र इस बात का सूचक है कि यह व्यक्ति पूर्वजन्म में धर्मात्मा प्रवृत्ति का तथा लोगों की मदद करने वाला था, ऐसा ज्योतिषियों का मानना है।
मृत्यु उपरांत गति विचार
मृत्यु के बाद आत्मा की क्या गति होगी या
वह पुन: किस रूप में जन्म लेगी, इसके बारे में
भी जन्म कुंडली देखकर जाना जा सकता है।
आगे इसी से संबंधित कुछ प्रमाणिक योग बताए
जा रहे हैं-
1- कुंडली में कहीं पर भी यदि कर्क राशि में गुरु स्थित हो तो जातक मृत्यु के बाद उत्तम कुल में जन्म लेता है।
2- लग्न में उच्च राशि का चंद्रमा हो तथा कोई पापग्रह उसे न देखते हों तो ऐसे व्यक्ति को मृत्यु के बाद सद्गति प्राप्त होती है।
3- अष्टमस्थ राहु जातक को पुण्यात्मा बना देता है तथा मरने के बाद वह राजकुल में जन्म लेता है, ऐसा विद्वानों का कथन है।
4- अष्टम भाव पर मंगल की दृष्टि हो तथा लग्नस्थ
मंगल पर नीच शनि की दृष्टि हो तो जातक रौरव नरक भोगता है
5- अष्टमस्थ शुक्र पर गुरु की दृष्टि हो तो जातक
मृत्यु के बाद वैश्य कुल में जन्म लेता है।
6- अष्टम भाव पर मंगल और शनि, इन दोनों ग्रहों
की पूर्ण दृष्टि हो तो जातक की अकाल मृत्यु होती है।
7- अष्टम भाव पर शुभ अथवा अशुभ किसी भी प्रकार के ग्रह की दृष्टि न हो और न अष्टम भाव में कोई ग्रह स्थित हो तो जातक ब्रह्मलोक प्राप्त करता है।
8- लग्न में गुरु-चंद्र, चतुर्थ भाव में तुला का शनि एवं सप्तम भाव में मकर राशि का मंगल हो तो जातक जीवन में कीर्ति अर्जित करता हुआ मृत्यु उपरांत ब्रह्मलीन होता है अर्थात उसे मोक्ष
की प्राप्ति होती है।
9- लग्न में उच्च का गुरु चंद्र को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो एवं अष्टम स्थान ग्रहों से रिक्त हो तो जातक जीवन में सैकड़ों धार्मिक कार्य करता है तथा प्रबल पुण्यात्मा एवं मृत्यु के बाद सद्गति प्राप्त करता है।
10- अष्टम भाव को शनि देख रहा हो तथा अष्टम भाव में मकर या कुंभ राशि हो तो जातक योगिराज पद प्राप्त करता है तथा मृत्यु के बाद विष्णु लोक प्राप्त करता है।
11- यदि जन्म कुंडली में चार ग्रह उच्च के हों तो
जातक निश्चय ही श्रेष्ठ मृत्यु का वरण करता है।
12- ग्यारहवे भाव में सूर्य-बुध हों, नवम भाव में शनि तथा अष्टम भाव में राहु हो तो जातक मृत्यु के पश्चात मोक्ष प्राप्त करता है।
विशेष योग,,,,,,,,,,,,,
1- बारहवां भाव शनि, राहु या केतु से युक्त हो फिर अष्टमेश (कुंडली के आठवें भाव का स्वामी) से
युक्त हो अथवा षष्ठेश (छठे भाव का स्वामी) से
दृष्ट हो तो मरने के बाद अनेक नरक भोगने पड़ेंगे, ऐसा समझना चाहिए।
2- गुरु लग्न में हो, शुक्र सप्तम भाव में हो, कन्या राशि का चंद्रमा हो एवं धनु लग्न में मेष का नवांश हो तो जातक मृत्यु के बाद परमपद प्राप्त करता है।
3- अष्टम भाव को गुरु, शुक्र और चंद्र, ये तीनों
ग्रह देखते हों तो जातक मृत्यु के बाद श्रीकृष्ण के
चरणों में स्थान प्राप्त करता है, ऐसा ज्योतिषियों का मत है

Monday, April 25, 2016



Rashis are not considered or taken into account for predictive astrology.The ascendant is treated as the first house and it is regarded as the house of the first Rashi, i.e., Aries and counting progressively in a sequence up to the 12th house being that of Pisces.
Some day to day solutions for common problems:
  • For hyperactive and in-disciplined children: In order to stop children being unpredictable, the child should offer one oiled chappati  every Saturday to a dog.
  • For Removing evil spells: If a person believes that an evil spell has been cast on him, he should offer burfis ( milk sweets) on Sunday and Monday to a cow. On Tuesday and Wednesday, Friday and Saturday he should give motichoor ladoos ( a ball like orange sweet) to a dog.
  • For Studies in Children: Students who want to improve in their studies should offer jaggery and roasted grams to monkeys, Hanuman temples and feed the birds.
  • To help a Stammering child: A child who stammers should offer green grass to a cow
  • To attain success in Job Interviews: While going for a job interview take a chappati and throw it in the direction of the crows.
  • For Professional Success: Soak black grams on Friday night and then mix with mustard oil. Give half to a horse or buffalo and half to a leper. Do this for forty days to ensure professional success.
  • If your business is sluggish: Make some besan laddoos, wave them round your head seven times and feed them to a cow on Thursday.
  • If you want a promotion: Offer the birds seven types of cereals. For your income to rise give wet black grams to monkeys.
  • To get married:  You should give two balls of wheat flour mixed with a little turmeric, jaggery and wet gram pulses to a cow every Thursday.
  • To cure a drunk Husband: If your husband is a drunkard, take flour of the same weight as his shoes and roll a chappati  just using your hands ( without a pin or board) and bake it directly on the fire without a tawa/hot plate and then give it to the street dogs. Do this thrice and he will become averse to liquor. (This is supposed to be foolproof)
  • To cure a wayward Husband: If your husband , under the influence of another woman, ignores or criticizes you , take 300 grams of ladoos made of gram flour(besan) two ladoos made of wheat flour, three bananas and wet gram pulse and feed these to a cow that is feeding its calf. Your husband will change.
  • For Family Peace and Serenity: Once a month cook more sweet chappatis  than the number of people and guests you have in the house and give them to any animal. This will save the family from quarrels and expense.
Lal Kitab Upay Remedies to be followed on a daily basis by one and all
  1. Respect your father.  This will strengthen your Sun who ascertains success, high post, help from Government etc.
  2. Respect Elderly People, Saint, Priest for strengthening Jupiter in your chart. Jupiter is a planet that bestows Gyana, Dhana, Bhagya, Gurutva etc.
  3. Avoid kicking dogs or beating them.  Better feed them. This will improve the effect of dragon’s tail (Ketu) . It is symbolic of son and of luxurious life.
  4. Use silver tumbler and utensils.  This brings good effect of moon and remove the bad effects of dragon’s head (Rahu).
  5. Make arrangement for keeping dining table close to the kitchen. Avoid eating while seated on your bed.  This reduces ill effect of Rahu.
  6. Dispose of articles which have not been used for decades, do not clutter your house /office with unnecessary articles.  This Upay also reduces bad effect of Rahu.The above two steps will reduce the bad effect of dragon head (Rahu) who is natural malefic and whose job is to cause unnecessary and avoidable worries and fears.
  7. Feed cows.  This improves conjugal life and health of wife.
  8. Feed crows/fish.  This brings affluence and enhances mother’s health.
  9. Feed monkeys to improve financial condition and getting favors from the government.
  10. Wear gold ring, golden strap on your wrist or apply saffron on your forehead for better luck and all round improvement in your affairs.

Friday, April 22, 2016



पितृ दोष से मुक्ति का मंत्र -
===============
मंत्रों में इतनी शक्ति होती है कि वह सभी प्रकार की बाधाओं का नाश कर सकती है। यदि मंत्र जप पूरे विधि-विधान से किया जाए तो ऐसी कोई बाधा या दोष नहीं जिसका निवारण नहीं हो सकता। नीचे ऐसा ही एक मंत्र दिया गया है जिसका जप करने से पितृ दोष का प्रभाव अप्रत्याशित रूप से कम हो जाता है व पितृ प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं। प्रत्येक मास की अमावस्या तिथि को इसका जप कर सकते हैं।
मंत्र
------
ॐ सर्व पितृ प्रं प्रसन्नों भव ॐ

जप विधि
----------
- प्रत्येक मास की अमावस्या तिथि को सुबह जल्दी उठकर स्नान आदि नित्य कर्म से निवृत्त होकर भगवान सूर्य नारायण की ओर मुख करके उनका पूजन करें व अध्र्य दें।
- इसके बाद कुश के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से इस मंत्र का जप करें।
- कम से कम 5 माला जप अवश्य करें।
- एक ही समय, स्थान, माला व आसन होने से शीघ्र लाभ होता है

Wednesday, April 13, 2016



विभीषण कृत हनुमान स्तोत्र - Vibheeshan Krut Hanuman Stotra


**********************
।।**विभीषण कृत हनुमत्स्तोत्रम्**।।
**********************




श्रीसुदर्शनसंहिता में भक्त प्रवर विभीषण महात्मा गरुड़ को श्रीमारुति की महिमा सुनाते हुए कहते हैं कि सर्व प्रकार के भय, बाधा, संताप तथा दुष्ट गृहजन्य समस्त संकटों का उन्मूलन करने वाला श्री हनुमान जी का यह स्तोत्र है। कल्याणकांक्षी मनुष्य यदि नित्य प्रति इसका पाठ करता है तो वह सर्वबाधाजन्य संकटों से मुक्त हो मारुति की कृपा से सुख, शान्ति एवं समृद्धि को प्राप्त करता है। स्तोत्र इस प्रकार है :



नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे।
नम: श्रीरामभक्ताय श्यामास्याय च ते नम:।। 1।।

नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे।
लंकाविदाहनार्थय हेलासागरतारिणे।। 2।।

सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च।
रावणान्तकुलच्छेदकारिणे ते नमो नम:।। 3।।

मेघनादमखध्वंसकारिणे ते नमो नम:।
अशोकवनविध्वंसकारिणे भयहारिणे।। 4।।

वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने।
वनपालशिरश्छेदलंकाप्रासादभज्जिने।। 5।।

ज्वल्तकनकवर्णाय दीर्घलाङ्गूलधारिणे।
सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते नम:।। 6।।

अक्षस्य वधकत्र्रे च बह्मपाशनिवारिणे।
लक्ष्मणांगमहाशक्तिघातक्षतविनाशिने।। 7।।

रक्षोघ्नाय निपुघ्नाय भूतघ्नाय च ते नम:।
ऋक्षवानरवीरौघप्राणदाय नमो नम:।। 8।।

परसैन्यबलध्नाय शस्त्रास्त्रघ्नाय ते मन:।
विषध्नाय द्विषघ्नाय ज्वरघ्नाय च ते नम:।। 9।।

महाभयरिपुघ्नाय भक्तत्राणैककारिणे।
परप्रेरितमन्त्राणां यन्त्राणां स्तम्भकारिणी।। 10।।

पय:पाषाणतरणकारणाय नमो नम:।
बालार्कमण्डलग्रासकारिणे भवतारिणे।। 11।।

नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च।
रिपुमायाविनाशाय रामाज्ञालोकरक्षिणे।। 12।।

प्रतिग्रामस्थितायाथ रक्षोभूतवधार्थिने।
करालशैलशस्त्राय दु्रमशस्त्राय ते नम:।। 13।।

बालैकब्रह्मचर्याय रुद्रमूर्तिधराय च।
विहंगमाय सर्वाय वज्रदेहाय ते नम:।। 14।।

कौपीनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च।
दक्षिणाशाभास्कराय शतचन्द्रोदयात्मने।। 15।।

कृत्याक्षतव्याथाघ्नाय सर्वक्लेशहराय च।
स्वाम्याज्ञापार्थसंग्रामसंख्ये संजयधारिणे।।16।।

भक्तान्तदिव्यवादेषु संग्रामे जयदायिने।
किल्किलाबुबुकोच्चारघोरशब्दकराय च।।17।।

सर्पाग्निव्याधिसंत्तम्भकारिणी वनचारिणे।
सदा वनफलाहारसंतृप्ताय विशेषत:।।18।।

महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नम:।
वादे विवादे संग्रामे भये घोरे महावने।।19।।

सिंहव्याघ्रादिचौरेभ्य: स्तोत्रपाठाद् भयं न हिं
दिव्ये भूतभये व्याधौ विषे स्थावरजंगमे।।20।।

राजशस्त्रभये चोग्रे तथा ग्रहभयेषु च।
जले सर्वे महावृष्टौ दुर्भिक्षे प्राणसम्प्लवे।।21।।

पठेत् स्तोत्रं प्रमुच्यते भयेभ्य: सर्वतो नर:।
तस्य क्वापि भयं नास्ति हनुमत्स्तवपाठत:।।22।।

सर्वदा वै त्रिकालं च पठनीयमिमं स्तवम्।
सर्वान् कामानवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा।। 23।।

विभषणकृतं स्तोत्रं ताक्ष्र्येण समुदीरितम्।
ये पठिष्यन्ति भक्त्या वै सिद्धयस्तत्करे स्थिता:।। 24।।


इति श्रीसुदर्शनसंहितायां विभीषणगरुडसंवादे विभषणकृतं हनुमत्स्तोत्रं सम्पूर्णम्।



दशरथकृत शनि स्तोत्र हिंदी भावार्थ सहित - Dashrath Krut Shani Dev Stotra with Hindi Meaning

।।शनि स्तोत्र।।



विनियोगः
ॐ अस्य श्रीशनि-स्तोत्र-मन्त्रस्य कश्यप ऋषिः, त्रिष्टुप् छन्दः, सौरिर्देवता, शं बीजम्, निः शक्तिः, कृष्णवर्णेति कीलकम्, धर्मार्थ-काम-मोक्षात्मक-चतुर्विध-पुरुषार्थ-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

कर-न्यासः

शनैश्चराय अंगुष्ठाभ्यां नमः। 
मन्दगतये तर्जनीभ्यां नमः। 
अधोक्षजाय मध्यमाभ्यां नमः। 
कृष्णांगाय अनामिकाभ्यां नमः। 
शुष्कोदराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। 
छायात्मजाय करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादि-न्यासः

शनैश्चराय हृदयाय नमः। 
मन्दगतये शिरसे स्वाहा। 
अधोक्षजाय शिखायै वषट्। 
कृष्णांगाय कवचाय हुम्। 
शुष्कोदराय नेत्र-त्रयाय वौषट्। 
छायात्मजाय अस्त्राय फट्।
दिग्बन्धनः

“ॐ भूर्भुवः स्वः”

पढ़ते हुए चारों दिशाओं में चुटकी बजाएं।

ध्यानः

नीलद्युतिं शूलधरं किरीटिनं गृध्रस्थितं त्रासकरं धनुर्धरम्।
चतुर्भुजं सूर्यसुतं प्रशान्तं वन्दे सदाभीष्टकरं वरेण्यम्।।


भावार्थ : नीलमणि के समान कान्तिमान, हाथों में धनुष और शूल धारण करने वाले, मुकुटधारी, गिद्ध पर विराजमान, शत्रुओं को भयभीत करने वाले, चार भुजाधारी, शान्त, वर को देने वाले, सदा भक्तों के हितकारी, सूर्य-पुत्र को मैं प्रणाम करता हूँ।

रघुवंशेषु विख्यातो राजा दशरथः पुरा।
चक्रवर्ती स विज्ञेयः सप्तदीपाधिपोऽभवत्।।


भावार्थ :प्राचीन काल में रघुवंश में दशरथ नामक प्रसिद्ध चक्रवती राजा हुए, जो सातों द्वीपों के स्वामी थे।
कृत्तिकान्ते शनिंज्ञात्वा दैवज्ञैर्ज्ञापितो हि सः।
रोहिणीं भेदयित्वातु शनिर्यास्यति साम्प्रतं।।


भावार्थ :उनके राज्यकाल में एक दिन ज्योतिषियों ने शनि को कृत्तिका के अन्तिम चरण में देखकर राजा से कहा कि अब यह शनि रोहिणी का भेदन कर जायेगा।

शकटं भेद्यमित्युक्तं सुराऽसुरभयंकरम्।
द्वासधाब्दं तु भविष्यति सुदारुणम्।।


भावार्थ :इसको ‘रोहिणी-शकट-भेदन’ कहते हैं। यह योग देवता और असुर दोनों ही के लिये भयप्रद होता है तथा इसके पश्चात् बारह वर्ष का घोर दुःखदायी अकाल पड़ता है।

एतच्छ्रुत्वा तु तद्वाक्यं मन्त्रिभिः सह पार्थिवः।
व्याकुलं च जगद्दृष्टवा पौर-जानपदादिकम्।।


भावार्थ :ज्योतिषियों की यह बात मन्त्रियों के साथ राजा ने सुनी, इसके साथ ही नगर और जनपद-वासियों को बहुत व्याकुल देखा। 

ब्रुवन्ति सर्वलोकाश्च भयमेतत्समागतम्।
देशाश्च नगर ग्रामा भयभीतः समागताः।।


भावार्थ :उस समय नगर और ग्रामों के निवासी भयभीत होकर राजा से इस विपत्ति से रक्षा की प्रार्थना करने लगे।

पप्रच्छ प्रयतोराजा वसिष्ठ प्रमुखान् द्विजान्।
समाधानं किमत्राऽस्ति ब्रूहि मे द्विजसत्तमः।।


भावार्थ :अपने प्रजाजनों की व्याकुलता को देखकर राजा दशरथ वशिष्ठ ऋषि तथा प्रमुख ब्राह्मणों से कहने लगे- ‘हे ब्राह्मणों ! इस समस्या का कोई समाधान मुझे बताइए।

प्राजापत्ये तु नक्षत्रे तस्मिन् भिन्नेकुतः प्रजाः।
अयं योगोह्यसाध्यश्च ब्रह्म-शक्रादिभिः सुरैः।।


भावार्थ :इस पर वशिष्ठ जी कहने लगे- ‘प्रजापति के इस नक्षत्र (रोहिणी) में यदि शनि भेदन होता है तो प्रजाजन सुखी कैसे रह सकते हें। इस योग के दुष्प्रभाव से तो ब्रह्मा एवं इन्द्रादिक देवता भी रक्षा करने में असमर्थ हैं।

तदा सञ्चिन्त्य मनसा साहसं परमं ययौ।
समाधाय धनुर्दिव्यं दिव्यायुधसमन्वितम्।।

भावार्थ :विद्वानों के यह वचन सुनकर राजा को ऐसा प्रतीत हुआ कि यदि वे इस संकट की घड़ी को न टाल सके तो उन्हें कायर कहा जाएगा। अतः राजा विचार करके साहस बटोरकर दिव्य धनुष तथा दिव्य आयुधों से सुसज्जित हुए। 

रथमारुह्य वेगेन गतो नक्षत्रमण्डलम्।
त्रिलक्षयोजनं स्थानं चन्द्रस्योपरिसंस्थिताम्।।

भावार्थ :रथ को तीव्र गति से चलाते हुए चन्द्रमा से भी तीन लाख योजन ऊपर नक्षत्र मण्डल में ले गए।

रोहिणीपृष्ठमासाद्य स्थितो राजा महाबलः।
रथेतुकाञ्चने दिव्ये मणिरत्नविभूषिते।।


भावार्थ :मणियों तथा रत्नों से सुशोभित स्वर्ण-निर्मित रथ में बैठे हुए महाबली राजा ने रोहिणी के पीछे आकर रथ को रोक दिया।

हंसवर्नहयैर्युक्ते महाकेतु समुच्छिते।
दीप्यमानो महारत्नैः किरीटमुकुटोज्वलैः।।

भावार्थ :सफेद घोड़ों से युक्त और ऊँची-ऊँची ध्वजाओं से सुशोभित किरीट मुकुट में जड़े हुए बहुमुल्य रत्नों से प्रकाशमान राजा दशरथ वहां पहुंचे। ।

ब्यराजत तदाकाशे द्वितीये इव भास्करः।
आकर्णचापमाकृष्य सहस्त्रं नियोजितम्।।

भावार्थ :उस समय सूर्यकुल के गौरव राजा दशरथ आकाश में दूसरे सूर्य की भांति चमक रहे थे

कृत्तिकान्तं शनिर्ज्ञात्वा प्रदिशतांच रोहिणीम्।
दृष्टवा दशरथं चाग्रेतस्थौतु भृकुटीमुखः।।

भावार्थ :शनि को कृत्तिका नक्षत्र के पश्चात् रोहिनी नक्षत्र में प्रवेश का इच्छुक देखकर राजा दशरथ बाण युक्त धनुष कानों तक खींचकर भृकुटियां तानकर शनि के सामने डटकर खड़े हो गए।

संहारास्त्रं शनिर्दृष्टवा सुराऽसुरनिषूदनम्।
प्रहस्य च भयात् सौरिरिदं वचनमब्रवीत्।।

भावार्थ :अपने सामने देव-असुरों के संहारक अस्त्रों से युक्त दशरथ को खड़ा देखकर शनि थोड़ा डर गया और हंसते हुए राजा से कहने लगा।।

शनि उवाच:
पौरुषं तव राजेन्द्र ! मया दृष्टं न कस्यचित्।
देवासुरामनुष्याशऽच सिद्ध-विद्याधरोरगाः।।
मयाविलोकिताः सर्वेभयं गच्छन्ति तत्क्षणात्।
तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! तपसापौरुषेण च।।
वरं ब्रूहि प्रदास्यामि स्वेच्छया रघुनन्दनः ! 

भावार्थ :शनि कहने लगा- ‘ हे राजेन्द्र ! तुम्हारे जैसा पुरुषार्थ मैंने किसी में नहीं देखा, क्योंकि देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और सर्प जाति के जीव मेरे देखने मात्र से ही भय-ग्रस्त हो जाते हैं। हे राजेन्द्र ! मैं तुम्हारी तपस्या और पुरुषार्थ से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। अतः हे रघुनन्दन ! जो तुम्हारी इच्छा हो वर मां लो, मैं तुम्हें दूंगा।।

दशरथ उवाच:
प्रसन्नोयदि मे सौरे ! एकश्चास्तु वरः परः।।
रोहिणीं भेदयित्वा तु न गन्तव्यं कदाचन्।
सरितः सागरा यावद्यावच्चन्द्रार्कमेदिनी।।
याचितं तु महासौरे ! नऽन्यमिच्छाम्यहं।
एवमस्तुशनिप्रोक्तं वरलब्ध्वा तु शाश्वतम्।।
प्राप्यैवं तु वरं राजा कृतकृत्योऽभवत्तदा।
पुनरेवाऽब्रवीत्तुष्टो वरं वरम् सुव्रत ! ।।

भावार्थ :दशरथ ने कहा- हे सूर्य-पुत्र शनि-देव ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मैं केवल एक ही वर मांगता हूँ कि जब तक नदियां, सागर, चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी इस संसार में है, तब तक आप रोहिणी शकट भेदन कदापि न करें। मैं केवल यही वर मांगता हूँ और मेरी कोई इच्छा नहीं है।’

तब शनि ने ‘एवमस्तु’ कहकर वर दे दिया। इस प्रकार शनि से वर प्राप्त करके राजा अपने को धन्य समझने लगा। तब शनि ने कहा- ‘मैं पुमसे परम प्रसन्न हूँ, तुम और भी वर मांग लो।।

प्रार्थयामास हृष्टात्मा वरमन्यं शनिं तदा।
नभेत्तव्यं न भेत्तव्यं त्वया भास्करनन्दन।।
द्वादशाब्दं तु दुर्भिक्षं न कर्तव्यं कदाचन।
कीर्तिरषामदीया च त्रैलोक्ये तु भविष्यति।।
एवं वरं तु सम्प्राप्य हृष्टरोमा स पार्थिवः।
रथोपरिधनुः स्थाप्यभूत्वा चैव कृताञ्जलिः।।
ध्यात्वा सरस्वती देवीं गणनाथं विनायकम्।
राजा दशरथः स्तोत्रं सौरेरिदमथाऽकरोत्।।

भावार्थ :तब राजा ने प्रसन्न होकर शनि से दूसरा वर मांगा। तब शनि कहने लगे- ‘हे सूर्य वंशियो के पुत्र तुम निर्भय रहो, निर्भय रहो। बारह वर्ष तक तुम्हारे राज्य में अकाल नहीं पड़ेगा। तुम्हारी यश-कीर्ति तीनों लोकों में फैलेगी। ऐसा वर पाकर राजा प्रसन्न होकर धनुष-बाण रथ में रखकर सरस्वती देवी तथा गणपति का ध्यान करके शनि की स्तुति इस प्रकार करने लगा।।

दशरथकृत शनि स्तोत्र:
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठ निभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ।।

भावार्थ :जिनके शरीर का वर्ण कृष्ण नील तथा भगवान् शंकर के समान है, उन शनि देव को नमस्कार है। जो जगत् के लिए कालाग्नि एवं कृतान्त रुप हैं, उन शनैश्चर को बार-बार नमस्कार है।।

नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।

भावार्थ :जिनका शरीर कंकाल जैसा मांस-हीन तथा जिनकी दाढ़ी-मूंछ और जटा बढ़ी हुई है, उन शनिदेव को नमस्कार है। जिनके बड़े-बड़े नेत्र, पीठ में सटा हुआ पेट और भयानक आकार है, उन शनैश्चर देव को नमस्कार है।।

नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोऽस्तु ते।।

भावार्थ :जिनके शरीर का ढांचा फैला हुआ है, जिनके रोएं बहुत मोटे हैं, जो लम्बे-चौड़े किन्तु सूके शरीर वाले हैं तथा जिनकी दाढ़ें कालरुप हैं, उन शनिदेव को बार-बार प्रणाम है।।

नमस्ते कोटराक्षाय दुर्नरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।

भावार्थ :हे शने ! आपके नेत्र कोटर के समान गहरे हैं, आपकी ओर देखना कठिन है, आप घोर रौद्र, भीषण और विकराल हैं, आपको नमस्कार है।।

नमस्ते सर्वभक्षाय बलीमुख नमोऽस्तु ते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करेऽभयदाय च ।।

भावार्थ :वलीमूख ! आप सब कुछ भक्षण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है। सूर्यनन्दन ! भास्कर-पुत्र ! अभय देने वाले देवता ! आपको प्रणाम है।।

अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तु ते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिंशाय नमोऽस्तुते ।।

भावार्थ :नीचे की ओर दृष्टि रखने वाले शनिदेव ! आपको नमस्कार है। संवर्तक ! आपको प्रणाम है। मन्दगति से चलने वाले शनैश्चर ! आपका प्रतीक तलवार के समान है, आपको पुनः-पुनः प्रणाम है।।

तपसा दग्ध-देहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ।।

भावार्थ :आपने तपस्या से अपनी देह को दग्ध कर लिया है, आप सदा योगाभ्यास में तत्पर, भूख से आतुर और अतृप्त रहते हैं। आपको सदा सर्वदा नमस्कार है।।

ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज-सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ।।

भावार्थ :ज्ञाननेत्र ! आपको प्रणाम है। काश्यपनन्दन सूर्यपुत्र शनिदेव आपको नमस्कार है। आप सन्तुष्ट होने पर राज्य दे देते हैं और रुष्ट होने पर उसे तत्क्षण हर लेते हैं।।

देवासुरमनुष्याश्च सिद्ध-विद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।

भावार्थ :देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग- ये सब आपकी दृष्टि पड़ने पर समूल नष्ट हो जाते हैं।।

प्रसाद कुरु मे सौरे ! वारदो भव भास्करे।
एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबल: ।।

भावार्थ :देव मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं वर पाने के योग्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ।।

एवं स्तुतस्तदा सौरिर्ग्रहराजो महाबलः।
अब्रवीच्च शनिर्वाक्यं हृष्टरोमा च पार्थिवः।।

भावार्थ :राजा दशरथ के इस प्रकार प्रार्थना करने पर ग्रहों के राजा महाबलवान् सूर्य-पुत्र शनैश्चर बोले- ‘उत्तम व्रत के पालक हे राजा दशरथ '!

तुष्टोऽहं तव राजेन्द्र ! स्तोत्रेणाऽनेन सुव्रत।
एवं वरं प्रदास्यामि यत्ते मनसि वर्तते।।

भावार्थ :तुम्हारी इस स्तुति से मैं अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ। रघुनन्दन ! तुम इच्छानुसार वर मांगो, मैं अवश्य दूंगा।।
दशरथ उवाच-
प्रसन्नो यदि मे सौरे ! वरं देहि ममेप्सितम्।
अद्य प्रभृति-पिंगाक्ष ! पीडा देया न कस्यचित्।
प्रसादं कुरु मे सौरे ! वरोऽयं मे महेप्सितः।।

भावार्थ :राजा दशरथ बोले- ‘प्रभु ! आज से आप देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पक्षी तथा नाग-किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें। बस यही मेरा प्रिय वर है।।

शनि उवाच:
अदेयस्तु वरौऽस्माकं तुष्टोऽहं च ददामि ते।।
त्वयाप्रोक्तं च मे स्तोत्रं ये पठिष्यन्ति मानवाः।
देवऽसुर-मनुष्याश्च सिद्ध विद्याधरोरगा।।

भावार्थ :शनि ने कहा- ‘हे राजन् ! यद्यपि ऐसा वर मैं किसी को देता नहीं हूँ, किन्तु सन्तुष्ट होने के कारण तुमको दे रहा हूँ। तुम्हारे द्वारा कहे गये इस स्तोत्र को जो मनुष्य, देव अथवा असुर, सिद्ध तथा विद्वान आदि पढ़ेंगे, उन्हें शनि बाधा नहीं होगी।

न तेषां बाधते पीडा मत्कृता वै कदाचन।
मृत्युस्थाने चतुर्थे वा जन्म-व्यय-द्वितीयगे।
गोचरे जन्मकाले वा दशास्वन्तर्दशासु च।
यः पठेद् द्वि-त्रिसन्ध्यं वा शुचिर्भूत्वा समाहितः।।


भावार्थ :जिनके गोचर में महादशा या अन्तर्दशा में अथवा लग्न स्थान, द्वितीय, चतुर्थ, अष्टम या द्वादश स्थान में शनि हो वे व्यक्ति यदि पवित्र होकर प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल के समय इस स्तोत्र को ध्यान देकर पढ़ेंगे, उनको निश्चित रुप से मैं पीड़ित नहीं करुंगा।।

न तस्य जायते पीडा कृता वै ममनिश्चितम्।
प्रतिमा लोहजां कृत्वा मम राजन् चतुर्भुजाम्।

भावार्थ :हे राजन ! जिनको मेरी कृपा प्राप्त करनी है, उन्हें चाहिए कि वे मेरी एक लोहे की मीर्ति बनाएं, जिसकी चार भुजाएं हो
वरदां च धनुः-शूल-बाणांकितकरां शुभाम्।
आयुतमेकजप्यं च तद्दशांशेन होमतः।।

भावार्थ :और उनमें धनुष, भाला और बाण धारण किए हुए हो।* इसके पश्चात् दस हजार की संख्या में इस स्तोत्र का जप करें, जप का दशांश हवन करे

कृष्णैस्तिलैः शमीपत्रैर्धृत्वाक्तैर्नीलपंकजैः।
पायससंशर्करायुक्तं घृतमिश्रं च होमयेत्।।

भावार्थ :जिसकी सामग्री काले तिल, शमी-पत्र, घी, नील कमल, खीर, चीनी मिलाकर बनाई जाए।

ब्राह्मणान्भोजयेत्तत्र स्वशक्तया घृत-पायसैः।
तैले वा तेलराशौ वा प्रत्यक्ष व यथाविधिः।।

भावार्थ :इसके पश्चात् घी तथा दूध से निर्मित पदार्थों से ब्राह्मणों को भोजन कराएं।

पूजनं चैव मन्त्रेण कुंकुमाद्यं च लेपयेत्।
नील्या वा कृष्णतुलसी शमीपत्रादिभिः शुभैः।।

भावार्थ :उपरोक्त शनि की प्रतिमा को तिल के तेल या तिलों के ढेर में रखकर विधि-विधान-पूर्वक मन्त्र द्वारा पूजन करें, कुंकुम इत्यादि चढ़ाएं, नीली तथा काली तुलसी, शमी-पत्र मुझे प्रसन्न करने के लिए अर्पित करें।

दद्यान्मे प्रीतये यस्तु कृष्णवस्त्रादिकं शुभम्।
धेनुं वा वृषभं चापि सवत्सां च पयस्विनीम्।।

भावार्थ :काले रंग के वस्त्र, बैल, दूध देने वाली गाय- बछड़े सहित दान में दें।

एवं विशेषपूजां च मद्वारे कुरुते नृप !
मन्त्रोद्धारविशेषेण स्तोत्रेणऽनेन पूजयेत्।।
पूजयित्वा जपेत्स्तोत्रं भूत्वा चैव कृताञ्जलिः।
तस्य पीडां न चैवऽहं करिष्यामि कदाचन्।।
रक्षामि सततं तस्य पीडां चान्यग्रहस्य च।
अनेनैव प्रकारेण पीडामुक्तं जगद्भवेत्।।


भावार्थ :हे राजन ! जो मन्त्रोद्धारपूर्वक इस स्तोत्र से मेरी पूजा करता है, पूजा करके हाथ जोड़कर इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसको मैं किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होने दूंगा। इतना ही नहीं, अन्य ग्रहों की पीड़ा से भी मैं उसकी रक्षा करुंगा। इस तरह अनेकों प्रकार से मैं जगत को पीड़ा से मुक्त करता हूँ।





।। अथ श्री हनुमत साठिका ।।

।। चौपाईयाँ ।। 
  1. जय जय जय हनुमान अड़न्गी । महावीर विक्रम बजरंगी ।। 
  2. जय कपीश जय पवन कुमारा । जय जय वंदन शील अगारा ।। 
  3. जय आदित्य अमर अविकारी । अरि मरदन जय जय गिरधारी ।। 
  4. अंजनी उदर जन्म तुम लीन्हो । जय जय कार देवतन कीन्हो ।। 
  5. बाजै दुंदिभी गगन गंभीरा । सुर मन हरष असुर मन पीरा ।। 
  6. कपि के डर गढ़ लंक समानी । छूटि बंदि देव तन जानी ।। 
  7. ऋषी समूह निकट चलि आये । पवन तनय के पद सिर नाए ।।
  8. बार बार स्तुति कर नाना । निर्मल नाम धरा हनुमाना ।। 
  9. सकल ऋषिन मिलि अस मत ठाना । दीन बताये लाल फल खाना ।। 
  10. सुनत वचन कपि मन हर्षाना । रवि रथ उदय लाल फल जाना ।।
  11. रथ समेत कपि कीन्ह अहारा । सूर्य बिना भयो अति अँधियारा ।। 
  12. विनय तुम्हार करैं अकुलाना । तब कपीश की स्तुति ठाना ।। 
  13. सकल लोक वृतांत सुनावा । चतुरानन तब रवि उगिलावा ।। 
  14. कहा बहोरि सुनहु बलशीला । रामचन्द्र करिहैं बहु लीला ।। 
  15. तब तुम उनकर करब सहाई । अबहि बसहु कानन में जाई । ।
  16. असि कहि विधि निज लोक सिधारे । मिले सखा संग पवन कुमारे ।।
  17. खेलें खेल महा तरु तोड़ें । ढेर करें बहु पर्वत फौड़ें ।।
  18. जेहि गिरि चरण देहि कपि धाई । गिरि समेत पातालाहिं जाई ।। 
  19. कपि सुग्रीव बाली की त्रासा । निरखत रहे राम मगु आशा ।। 
  20. मिले राम तँह पवन कुमारा । अति आनंद सप्रेम दुलारा ।। 
  21. मणि मुंदरी रघुपति सो पाई । सिया खोज ले चलि सिर नाई ।। 
  22. सत जोजन जल निधि विस्तारा । अगर अपार देवतन हारा ।।
  23. जिमि सर गोखुर सरिस कपीशा । लाँघि गए कपि कहि जगदीशा ।। 
  24. सीता चरण शीश तुम नाए । अजर अमर के आशिष पाए ।। 
  25. रहे दनुज उपवन रखवारी । एक से एक महाभट भारी ।। 
  26. तिन्हे मारि पुनि कहेउ कपीसा । दहेऊ लंक कोप्यो भुज बीसा ।। 
  27. सिया बोध दै पुनि फिर आये । रामचंद्र के पाद सिर नाए ।।
  28. मेरु उपार आप छिन माहीं । बांध्यो सेतु निमिष एक मांही ।।
  29. लक्ष्मण शक्ति लागी जबहीं । राम बुलाय कहा पुनि तबहीं ।। 
  30. भवन समेत सुषेण को लाये । तुरत संजीवन को पुनि धाये ।। 
  31. मग मँह कालनेमि को मारा । अमिट सुभट निशचर संहारा ।। 
  32. आनि संजीवन गिरि समेता । धरि दीन्हो जंह कृपानिकेता ।। 
  33. फनपति केर शोक हरि लीन्हा । हरषि सुरन सुर जय जय कीन्हा ।। 
  34. अहिरावन हरि अनुज समेता । लै गयो तहाँ पाताल निकेता ।।
  35. जहां रहे देवी अस्थाना । दीन चहै बलि काढि कृपाना ।।
  36. पवन तनय प्रभु कीन गुहारी । कटक समेत निशाचर मारी ।। 
  37. रीछ कीशपति सबै बहोरी । राम लखन कीने एक ठौरी ।। 
  38. सब देवतन की बंदि छूडाये। सो कीरति नारद मुनि गाये ।। 
  39. अक्षय कुमार को मार संहारा । लूम लपेटी लंक को जारा ।। 
  40. कुम्भकरण रावण को भाई । ताहि निपाति कीन्ह कपिराई ।। 
  41. मेघनाद पर शक्ति मारा । पवन तनय सब सो बरियारा ।। 
  42. तंहा रहे नारान्तक जाना । पल में हते ताहि हनुमाना ।।
  43. जंह लगि मान दनुज कर पावा । पवन तनय सब मारि नसावा ।। 
  44. जय मारुत सूत जय अनुकूला । नाम कृशानु शोक सम तूला ।। 
  45. जंह जीवन पर संकट होई । रवि तम सम सो संकट खोई ।।
  46. बंदी परै सुमरि हनुमाना । संकट कटे धरे जो ध्याना ।।
  47. यम को बांधि वाम पाद लीन्हा । मारुतसुत व्याकुल सब कीन्हा ।। 
  48. सो भुज बल को दीन्ह कृपाला । तुम्हरे होत मोर यह हाला ।। 
  49. आरत हरण नाम हनुमाना । सादर सुरपति कीन्ह बखाना ।। 
  50. संकट रहे न एक रती को । ध्यान धरे हनुमान जती को ।। 
  51. धावहु देख दीनता मोरी । कहौ पवनसुत युग कर जोरी ।। 
  52. कपिपति बेगि अनुग्रह करहूँ । आतुर आय दुसह दुःख हरहूँ ।। 
  53. राम सपथ मैं तुमहि सुनावा । जवन गुहार लाग सिय जावा ।। 
  54. शक्ति तुम्हार सकल जग जाना । भव बंधन भंजन हनुमाना ।।
  55. यह बंधन कर केतिक बाता । नाम तुम्हार जगत सुख दाता ।। 
  56. करौ कृपा जय जय जग स्वामी । बारि अनेक नमामि नमामी ।। 
  57. भौमवार करि होम विधाना । धूप दीप नैवेद्य सुजाना ।। 
  58. मंगल दायक को लौ लावे । सुर नर मुनि वांछित फल पावै ।। 
  59. जयति जयति जय जय जग स्वामी । समरथ पुरुष सुअंतर जामी ।। 
  60. अंजनि तनय नाम हनुमाना । सो तुलसी के प्राण समाना ।। 
।। दोहा ।। 

जय कपीश सुग्रीव तुम, जय अंगद हनुमान ।
रामलखन सीता सहित, सदा करौ कल्यान ॥
बन्दौ हनुमत नाम यह, मंगलवार प्रमाण ।
ध्यान धरै नर निश्चय, पावै पद कल्याण ॥
जो नित पढै यह साठिका, तुलसी कहै विचारि ।
रहै न संकट ताहि को , साक्षी हैं त्रिपुरारि ॥

।। सवैया ।।

आरत बन पुकारत हौं कपिनाथ सुनो विनती मम भारी ।
अंगद औ नल-नील महाबलि देव सदा बल की बलिहारी ।।
जाम्बवन्त् सुग्रीव पवन-सुत दिबिद मयंद महा भटभारी ।
दुःख दोष हरो तुलसी जन-को श्री द्वादश बीरन की बलिहारी ।।