काल
अंश राशि
पृथ्वी अपने अक्ष पर और सूर्य के चारों ओर लगातार घूमती है | इसकी गति ३० किमी/सेकंड या १६०० किमी/मिनट या ९६६०००००० किमी/वर्ष है |
पृथ्वी अपने अक्ष से २३.५० झुकी हुई है | धरती अपने अक्ष पर इस प्रकार झुकी हुई है जिससे कि इसका उत्तरी सिरा हमेशा उत्तरी ध्रुव तारे के सामने रहता है | जहाँ पर पृथ्वी के अक्ष के उत्तरी और दक्षिणी सिरे पृथ्वी की सतह पर मिलते हैं, उनको ही उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है |
भूमध्य रेखा – यदि पृथ्वी के मध्य से जाता हुआ यदि एक Plan खींचे जो पृथ्वी के अक्ष से लम्बवत (Perpendicular) हो तो वो पृथ्वी की सतह को जब काटेगा तो वह एक वृत्त होगा, जिसे पृथ्वी कि भूमध्य रेखा कहते हैं |
उत्तरी गोलार्ध एवं दक्षिणी गोलार्ध – उस plan के उत्तरी भाग को उत्तरी गोलार्ध व दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्ध कहते हैं |
रेखांश (Longitudes) एवं अक्षांश (Latitude) – पृथ्वी की सतह को सामान भागों में Vertical एवं Horizontal भागों में बांटने को रेखांश व् अक्षांश कहते हैं | अक्षांश (अक्ष का अंश) horizontal lines एवं रेखांश Vertical lines को कहते हैं | इसे आप पृथ्वी के co-ordinates भी कह सकते हैं |
३६०० अक्षांश एवं ३६०० रेखांश मिला कर १० का एक Post बनाते हैं जो पूरा वर्ग (square) नहीं होता क्योंकि पृथ्वी पूरी गोल नहीं है | पृथ्वी कि परिधि ४०३४३ किमी है अतः १० का वर्ग ११० किमीx११० किमी या ६९ milesx६९ miles का होता है और उस भाग में जो शहर आते हैं उन्हें उसके रेखांश और अक्षांश से ही निकालते हैं और ये रेखांश या अक्षांश एक दूसरे से पूरी तरह सामानांतर (parallal) नहीं होती क्योंकि पृथ्वी कि भौगोलिक रचना ऐसी नहीं है | रेखांश को देशांतर भी कहते हैं |
२३.५० अंश उत्तरी अक्षांश रेखा को कर्क रेखा तथा २३.५० अंश दक्षिणी अक्षांश रेखा को मकर रेखा कहते हैं |
किसी स्थान का किसी समय पर औसत समय ज्ञात करने के लिए (१) उस स्थान का देशांतर (रेखांश/Longitude) (२) उस क्षेत्र/देश, जिसमें वह स्थान है, वहां का मानक समय (IST, भारत के सन्दर्भ में) (३) उस देश/क्षेत्र की मानक मध्यान्ह रेखा का देशांतर मालूम होना चाहिए | इसके बाद निम्न प्रक्रिया से स्थानीय समय ज्ञात किया जा सकता है |
प्रथम चरण – स्थानीय देशांतर और देश/क्षेत्र कि मानक मध्यान्ह रेखा के देशांतर का अंतर ज्ञात कर लें |
दूसरा चरण – इस अंतर को ४ मिनट प्रति अंश के अनुसार गुना करें | (पृथ्वी ३६०० २४ घंटे में घूमती है अर्थात १५० = १ घंटा या १० = ४ मिनट) अंश को ४ से गुना करने से मिनट व् कला को ४ से गुना करने पर सेकंड्स में समय का अंतर आ जायेगा |
तीसरा चरण – अगर वह स्थान मानक रेखा के पूर्व में हो तो दूसरे चरण वाला समय, मानक समय में जोड़ देंगे और पश्चिम में हो तो घटा देंगे | ऐसा करने पर स्थानीय समय आ जायेगा |
उदाहरण – भुवनेश्वर (उड़ीसा) में सांय ६ बज कर २५ मिनट भारतीय मानक समय पर वहां स्थानीय समय क्या था ? भुवनेश्वर का देशांतर ८५० ५०’ पूर्व है |
विधि (i) – भुवनेश्वर का देशांतर = ८५० ५०’ पूर्व
मानक रेखा का देशांतर = ८२०३०’ पूर्व
दोनों का अंतर = ३ डिग्री २० मिनट = ३०२०’
इसे ४ से गुणा करने पर ३०२०’ x ४ = १२ मिनट ८० सेकंड्स = १३ मिनट २० सेकंड्स
क्योंकि यह मानक रेखा के पूर्व में है इसलिए इसका स्थानीय समय अधिक होगा |
अतः स्थानीय समय = ६:२५:० + ०:१३:२० = ६:३८:२० सांय
विधि (ii) - यही काम लहरी कि लग्न सारिणी ने और आसान कर दिया | लाहिरी कि लग्न सारिणी में पृष्ठ १०१ पर यहाँ के लिए स्थानीय संस्कार के Coulmn में +१३ मिनट २० सेकंड दिया है |
इसे हम सीधा स्थानीय समय में परिवर्तित कर सकते हैं –
घटना का स्थानीय समय = भारतीय मानक समय + संस्कार
= ६:२५:० + ०:१३:२० = ६:३८:२० सांय
जो विधि (i) से मिलता है |
उदहारण २ : चेन्नई में ९ बजकर ३५ मिनट भारतीय मानक समय का स्थानीय समय क्या होगा ? चेन्नई का देशांतर ८००१५’ पूर्व है |
(अ) देशान्तरों का अंतर ८२०३०’ – ८००१५’ = २०१५’
(आ) २०१५’ x ४ = ८ मिनट ६० सेकंड्स = ९ मिनट
(इ) चेन्नई का देशांतर मानक देशांतर (पूर्व) से कम है इस कारण चेन्नई मानक देशांतर वाले स्थान से पश्चिम में हुई | इसलिए ९ मिनट घटाएंगे | चेन्नई की घटना के समय स्थानीय समय ९ घंटा ३५ मिनट – ९ मिनट = ९ घंटा २६ मिनट प्रातः
अब इसे हमें याद रखना होगा, आगे जाकर यह जन्म समय निकालने में काम आएगा | तब हम विदेशों के स्थानीय समय निकालना भी सीखेंगे |
आकाशीय गोल या खगोल (celestial Sphere) – जिस प्रकार हम किसी गोल गुब्बारे को फुलाते हैं तो वह छोटे से बड़ा फिर और बड़ा हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी को अनन्त आकाश में फैलाने पर जो गोला बनेगा उसे आकाशीय गोला या खगोल कहते हैं | इस खगोल का केंद्र पृथ्वी का केंद्र होगा |
कान्तिवृत्त (Ecliptic) – सूर्य के तारों के बीच एक वर्ष के आभासीय भ्रमण मार्ग को इसकी कक्षा कहते हैं | जब इस कक्षा को खगोल में फैलाया जावे तो खगोल के ताल पर एक बड़ा वृत्त बनता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | मॉडर्न science में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करता है न कि सूर्य पृथ्वी की (इसको टाल्मी ने माना कि जिसे हम सूर्य का आभासीय भ्रमण कहते हैं वह पृथ्वी का भी आभासीय भ्रमण हो सकता है किन्तु यहाँ हम Modern Science को ही प्रमाण मानेगे ) इस कारण क्रांतिवृत्त की परिभाषा यह भी होती है कि पृथ्वी के वार्षिक भ्रमण मार्ग को अनन्त आकाश में फैलाने पर जिन स्थानों पर वह खगोल को काटे उस वृत्त को कान्तिवृत्त कहते हैं |
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लोकानामन्तकृत्कालः कालोन्यः कल्नात्मकः |
स द्विधा स्थूल सुक्ष्मत्वान्मूर्त श्चामूर्त उच्यते ||
अर्थात - एक प्रकार का काल संसार का नाश करता है और दूसरे प्रकार का कलानात्मक है अर्थात जाना जा सकता है | यह भी दो प्रकार का होता है (१) स्थूल और (२) सूक्ष्म | स्थूल नापा जा सकता है इसलिए मूर्त कहलाता है और जिसे नापा नहीं जा सकता इसलिए अमूर्त कहलाता है |
ज्योतिष में प्रयुक्त काल (समय) के विभिन्न प्रकार :
प्राण (असुकाल) – स्वस्थ्य मनुष्य सुखासन में बैठकर जितनी देर में श्वास लेता व छोड़ता है, उसे प्राण कहते हैं |
६ प्राण = १ पल (१ विनाड़ी)
६० पल = १ घडी (१ नाडी)
६० घडी = १ नक्षत्र अहोरात्र (१ दिन रात)
अतः १ दिन रात = ६०*६०*६ प्राण = २१६०० प्राण
इसे यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो
१ दिन रात = २४ घंटे = २४ x ६० x ६० = ८६४०० सेकण्ड्स
अतः १ प्राण = 86400/२१६०० = ४ सेकण्ड्स
अतः एक स्वस्थ्य मनुष्य को सुखासन में बैठकर श्वास लेने और छोड़ने में ४ सेकण्ड्स लगते हैं |
प्राचीन काल में पल का प्रयोग तोलने की इकाई के रूप में भी किया जाता था |
१ पल = ४ तौला (जिस समय में एक विशेष प्रकार के छिद्र द्वारा घटिका यंत्र में चार तौले जल चढ़ता है उसे पल कहते हैं | )
जितने समय में मनुष्य की पलक गिरती है उसे निमेष कहते हैं |
१८ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला = ६० विकला
३० कला = १ घटिका
२ घटिका = ६० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन
इस प्रकार १ नक्षत्र दिन = ३० x २ x ३० x ३० x 18 = ९७२००० निमेष
उपरोक्त गणना सूर्य सिद्धांत से ली गयी है किन्तु स्कन्द पुराण में इसकी संरचना कुछ भिन्न मिलती है | उसके अनुसार
१५ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला
३० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन रात
इसके अनुसार
१ दिन रात = ३० x ३० x ३० x १५ = ४०५०० निमेष
यहाँ हम सूर्य सिद्धांत को ज्यादा प्रमाणित मानते हैं क्योंकि वो विशुद्ध ज्योतिष ग्रन्थ है और उसकी गणना भी ज्योतिषी द्वारा ही की गयी है जबकि स्कन्द पुराण में मात्र अनुवाद मिलता है जो गलत भी हो सकता है क्योंकि कोई आवश्यक नहीं की अनुवादक ज्योतिषी भी हो |
अब
१ दिन = २१६०० प्राण = ८६४०० सेकण्ड्स = ९७२००० निमेष
१ प्राण = ९७२०००/२१६०० = ४५ निमेष
१ सेकंड = ९७२०००/८६४०० = ११.२५ निमेष
सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं । सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है । सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय ही सौरमास है । (सूर्य मंडल का केंद्र जिस समय एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उस समय दूसरी राशि की संक्रांति होती है | एक संक्रांति से दूसरी संक्राति के समय को सौर मास कहते हैं | १२ राशियों के हिसाब से १२ ही सौर मास होते हैं | ) यह मास प्रायः तीस-एकतीस दिन का होता है । कभी कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है । चन्द्रमा की ह्र्वास वृद्धि वाले दो पक्षों का जो एक मास होता है, वही चन्द्र मास है । यह दो प्रकार का होता है – शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला ‘जमांत’ मास मुख्य चंद्रमास है । कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है । यह तिथि की ह्र्वास वृद्धि के अनुसार २९, २८, २७ एवं ३० दिनों का भी हो जाता है ।
सूर्य जब पृथ्वी के पास होता है (जनवरी के प्रारंभ में ) तब उसकी कोणीय गति तीव्र होती है और जब पृथ्वी से दूर होता है (जुलाई के आरम्भ में) तब इसकी कोणीय गति मंद होती है | जब कोणीय गति तीव्र होती है तब वह एक राशि शीघ्र पार कर लेता है और सौर मास छोटा होता है, इसके विपरीत जब कोणीय गति मंद होती है तब सौर मास बड़ा होता है |
सौर मास का औसत मान = ३०.४४ औसत सौर दिन
जितने दिनों में चंद्रमा अश्वनी से लेकर रेवती के नक्षत्रों में विचरण करता है, वह काल नक्षत्रमास कहलाता है । यह लगभग २७ दिनों का होता है । सावन मास तीस दिनों का होता है । यह किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त हो जाता है । प्रायः व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है । इसके भी सौर और चन्द्र ये दो भेद हैं । सौर सावन मास सौर मास की किसी भी तिथि को प्रारंभ होकर तीसवें दिन पूर्ण होता है । चन्द्र सावन मास, चंद्रमा की किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है ।
नोट १ : यहाँ पर नक्षत्र एवं राशियों को संक्षेप में लिखा गया है, इनके बारे में विस्तृत चर्चा खगोल अध्ययन में की जाएगी जहाँ पर इनके बारे में सम्पूर्ण व्याख्या दी जाएगी
तिथि - चन्द्रमा आकाश में चक्कर लगाता हुआ जिस समय सूर्य के बहुत पास पहुच जाता है उस समय अमावस्या होती है | ( जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बिलकुल मध्य में स्थित होता है तब वह सूर्य के निकटतम होता है |) अमावस्या के बाद चंद्रमा सूर्य से आगे पूर्व की ओर बढ़ता जाता है और जब १२० अंश आगे हो जाता है तब पहली तिथि (प्रथमा) बीतती है | १२० से २४० अंश का जब अंतर रहता है तब दूज रहती है | २४० से २६० तक जब चंद्रमा सूर्य से आगे रहता है तब तीज रहती है | इसी प्रकार जब अंतर १६८०-१८O० तक होता है तब पूर्णिमा होती है, १८O०-१९२० तक जब चंद्रमा आगे रहता है तब १६ वी तिथि (प्रतिपदा) होती है | १९२०- २O४० तक दूज होती है इत्यादि | पूर्णिमा के बाद चंद्रमा सूर्यास्त से प्रतिदिन कोई २ घडी (४८ मिनट) पीछे निकालता है |
चन्द्र मासों के नाम इस प्रकार हैं – चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष या मृगशिरा, पौष, माघ और फाल्गुन |
देवताओं का एक दिन - मनुष्यों के एक वर्ष को देवताओं के एक दिन माना गया है । उत्तरायण तो उनका दिन है और दक्षिणायन रात्रि । पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर देवताओं के रहने का स्थान तथा दक्षिणी ध्रुव पर राक्षसों के रहने का स्थान बताया गया है | साल में २ बार दिन और रात सामान होती है | ६ महीने तक सूर्य विषुवत के उत्तर और ६ महीने तक दक्षिण रहता है | पहली छमाही में उत्तरी गोल में दिन बड़ा और रात छोटी तथा दक्षिण गोल में दिन छोटा और रात बड़ी होती है | दूसरी छमाही में ठीक इसका उल्टा होता है | परन्तु जब सूर्य विषुवत वृत्त के उत्तर रहता है तब वह उत्तरी ध्रुव (सुमेरु पर्वत पर) ६ महीने तक सदा दिखाई देता है और दक्षिणी ध्रुव पर इस समय में नहीं दिखाई पड़ता | इसलिए इस छमाही को देवताओ का दिन तथा राक्षसों की रात कहते हैं | जब सूर्य ६ महीने तक विषुवत वृत्त के दक्षिण रहता है तब उत्तरी ध्रुव पर देवताओं को नहीं दिख पड़ता और राक्षसों को ६ महीने तक दक्षिणी ध्रुव पर बराबर दिखाई पड़ता है | इसलिए हमारे १२ महीने देवताओं अथवा राक्षसों के एक अहोरात्र के समान होते हैं |
देवताओं का १ दिन (दिव्य दिन) = १ सौर वर्ष
दिव्य वर्ष - जैसे ३६० सावन दिनों से एक सावन वर्ष की कल्पना की गयी है उसी प्रकार ३६० दिव्य दिन का एक दिव्य वर्ष माना गया है | यानी ३६० सौर वर्षों का देवताओं का एक वर्ष हुआ | अब आगे बढ़ते हैं |
१२०० दिव्य वर्ष = १ चतुर्युग = १२०० x ३६० = ४३२००० सौर वर्ष
चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं | चतुर्युग के दसवें भाग का चार गुना सतयुग (४०%), तीन गुना (३०%) त्रेतायुग, दोगुना (२०%) द्वापर युग और एक गुना (१०%) कलियुग होता है |
अर्थात १ चतुर्युग (महायुग) = ४३२०००० सौर वर्ष
१ कलियुग = ४३२००० सौर वर्ष
१ द्वापर युग = ८६४६०० सौर वर्ष
१ त्रेता युग = १२९६००० सौर वर्ष
१ सतयुग = १७२८००० सौर वर्ष
जैसे एक अहोरात्र में प्रातः और सांय दो संध्या होती हैं उसी प्रकार प्रत्येक युग के आदि में जो संध्या होती है उसे आदि संध्या और अंत में जो संध्या आती है उसे संध्यांश कहते हैं | प्रत्येक युग की दोनों संध्याएँ उसके छठे भाग के बराबर होती हैं इसलिए एक संध्या (संधि काल ) बारहवें भाग के सामान हुई | इसका तात्पर्य यह हुआ कि
कलियुग की आदि व अंत संध्या = ३६०० सौर वर्ष वर्ष
द्वापर की आदि व् अंत संध्या = ७२००० सौर वर्ष
त्रेता युग की आदि व अंत संध्या = १०८००० सौर वर्ष
सतयुग की आदि व अंत संध्या = १४४००० सौर वर्ष
अब और आगे बढ़ते हैं |
७१ चतुर्युगों का एक मन्वंतर होता है, जिसके अंत में सतयुग के समान संध्या होती है | इसी संध्या में जलप्लव् होता है | संधि सहित १४ मन्वन्तरों का एक कल्प होता है, जिसके आदि में भी सतयुग के समान एक संध्या होती है, इसलिए एक कल्प में १४ मन्वंतर और १५ सतयुग के सामान संध्या हुई |
अर्थात १ चतुर्युग में २ संध्या
१ मन्वंतर = ७१ x ४३२०००० = ३०६७२०००० सौर वर्ष
मन्वंतर के अंत की संध्या = सतयुग की अवधि = १७२८००० सौर वर्ष
= १४ x ७१ चतुर्युग + १५ सतयुग
= ९९४ चतुर्युग + (१५ x ४)/१० चतुर्युग (चतुर्युग का ४०%)
= १००० चतुर्युग = १००० x १२००० = १२०००००० दिव्य वर्ष
= १००० x ४३२०००० = ४३२००००००० सौर वर्ष
ऐसा मनुस्मृति में भी मिलता है किन्तु आर्यभट की आर्यभटीय के अनुसार
१ कल्प = १४ मनु (मन्वंतर)
१ मनु = ७२ चतुर्युग
और आर्यभट्ट के अनुसार
१४ x ७२ = १००८ चतुर्युग = १ कल्प
जबकि सूर्य सिद्धांत से १००० चतुर्युग = १ कल्प
जो की ब्रह्मा के १ दिन के बराबर है | इतने ही समय की ब्रह्मा की एक रात भी होती है | इस समय ब्रह्मा की आधी आयु बीत चुकी है, शेष आधी आयु का यह पहला कल्प है | इस कल्प के संध्या सहित ६ मनु बीत गए हैं और सातवें मनु वैवस्वत के २७ महायुग बीत गए हैं तथा अट्ठाईसवें महायुग का भी सतयुग बीत चूका है |
इस समय २०१३ में कलियुग के ५०४७ वर्ष बीते हैं |
महायुग से सतयुग के अंत तक का समय = १९७०७८४००० सौर वर्ष
यदि कल्प के आरम्भ से अब तक का समय जानना हो तो ऊपर सतयुग के अंत तक के सौर वर्षों में त्रेता के १२८६००० सौरवर्ष, द्वापर के ८६४००० सौर वर्ष तथा कलियुग के ५०४७ वर्ष और जोड़ देने चाहिए |
बीते हुए ६ मन्वन्तरों के नाम हैं – (१) स्वायम्भुव (२) स्वारोचिष (३) औत्तमी (४) तामस (५) रैवत (६) चाक्षुष | वर्तमान मन्वंतर का नाम वैवस्वत है | वर्तमान कल्प को श्वेत कल्प कहते हैं, इसीलिए हमारे संकल्प में कहते हैं -
प्रवर्तमानस्याद्य ब्राह्मणों द्वितीय प्रहरार्धे श्री श्वेतवराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे ……………बौद्धावतारे वर्तमानेस्मिन वर्तमान संवत्सरे अमुकनाम वत्सरे अमुकायने अमुक ऋतु अमुकमासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे संयुक्त चन्द्रे …. ….. तिथौ ………
एक सौर वर्ष में १२ सौर मास तथा ३६५.२५८५ मध्यम सावन दिन होते हैं परन्तु १२ चंद्रमास ३५४.३६७०५ मध्यम सावन दिन का होता है, इसलिए १२ चंद्रमासों का एक वर्ष सौर वर्ष से १०.८९१७० मध्यम सावन दिन छोटा होता है | इसलिए कोई तैंतीस महीने में ये अंतर एक चंद्रमास के समान हो जाता है | जिस सौर वर्ष में यह अंतर १ चंद्रमास के समान हो जाता है उस सौर वर्ष में १३ चंद्रमास होते हैं | उस मास को अर्धमास या मलमास कहा जाता है | यदि ऐसा न किया जाये तो चंद्रमास के अनुसार मनाये जाने वाले त्यौहार पर्व इत्यादि भिन्न भिन्न ऋतुओं में मुसलमानी त्यौहारों की तरह भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़ने लगे |
किस घंटे (होरा) का स्वामी कौन ग्रह है यह जानने के लिए वह क्रम समझ लेना चाहिए जिस क्रम से घंटे के स्वामी बदलते हैं | शनि ग्रह पृथ्वी से सब ग्रहों से दूर है, उस से निकटवर्ती बृहस्पति है, बृहस्पति से निकट मंगल, मंगल से निकट सूर्य, सूर्य से निकट शुक्र, शुक्र से निकट बुध और बुध से निकट चंद्रमा है | इसी क्रम से होरा के स्वामी बदलते हैं | यदि पहले घंटे का स्वामी शनि है तो दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल, चौथे का सूर्य, पांचवे का शुक्र, छठे का बुध, सातवें का चन्द्रमा, आठवें का फिर शनि इत्यादि क्रमानुसार हैं | परन्तु जिस दिन दिन पहले घंटे का स्वामी शनि होता है उस दिन का नाम शनिवार होना चाहिए | इसलिए शनिवार के दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल इत्यादि हैं | इस प्रकार सात सात घंटे के बाद स्वामियों का वही क्रम फिर आरम्भ होता है | इसलिए शनिवार के २२वें घंटे का स्वामी शनि, २३वें का बृहस्पति, २४वें का मंगल और २४वें के बाद वाले घंटे का स्वामी सूर्य होना चाहिए | परन्तु यहाँ २५वां घंटा अगले दिन का पहला घंटा है जिसका स्वामी सूर्य है इसलिए शनिवार के बाद रविवार आता है | इसी प्रकार रविवार के २५वें घंटे यानी अगले दिन के पहले घंटे का स्वामी चन्द्रमा होगा इसलिए उसे चंद्रवार या सोमवार कहते हैं | इसी प्रकार और वारों का नामकरण हुआ है |
इससे यह स्पष्ट होता है कि शनिवार के बाद रविवार और रविवार के बाद सोमवार और सोमवार के बाद मंगलवार क्यों होता है | शनि से रवि चौथा ग्रह है और रवि से चौथा ग्रह है और रवि से चंद्रमा चौथा ग्रह है अतः प्रत्येक दिन का स्वामी उसके पिछले दिन के स्वामी से चौथा ग्रह है |
मैटोनिक चक्र – मिटन ने ४३३ ई.पू. में देखा कि २३५ चंद्रमास और १९ सौर वर्ष अर्थात १९x१२ = २२८ सौर मासों में समय लगभग समान होता है, इनमें लगभग १ घंटे का अंतर होता है |
१९ सौर वर्ष = १९ x ३६५.२५ = ६९३९.७५ दिवस
२३५ चन्द्र मास = २३५x२९.५३१ = ६९३९.७८५ दिवस
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक १९ वर्ष में २२८ सौर मास और लगभग २३५ चन्द्र मास होते हैं अर्थात ७ चन्द्र मास अधिक होते हैं | चन्द्र और सौर वर्षों का अगर समन्वय नहीं करे तब लगभग ३२.५ सौर वर्षों में, ३३.५ चन्द्र वर्ष हो जायेंगे | अगर केवल चन्द्र वर्ष से ही चलें तब अगर दीपावली नवम्बर में आती है तब १९ वर्षों में यह ७ मास पहले अर्थात अप्रेल में आ जाएगी और इन धार्मिक त्यौहारों का ऋतुओं से कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा | इसलिये भारतीय पंचांग में इसका ख्याल रखा जाता है |
क्षयमास – मलमास या अधिमास की भांति क्षयमास भी होता है | सूर्य की कोणीय गति नवम्बर से फरवरी तक तीव्र हो जाती है और इसकी इसकी संक्रांतियों के मध्य समय का अंतर कम हो जाता है | इन मासों में कभी कभी जब संक्रांति से कुछ मिनट पहले ही अमावस्या का अंत हुआ हो, तब मास का क्षय हो जाता है |
जिस चंद्रमास (एक अमावस्या के अंत से दूसरी अमावस्या के अंत तक) में दो संक्रांतियों आ जाएँ, उसमें एक मास का क्षय हो जाता है | यह कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष और माघ इन चार मास में ही होता है अर्थात नवम्बर से फरवरी तक ही हो सकता है |
अब संक्षिप्त में राशियों और नक्षत्रों के बारे में चर्चा करते हैं ताकि आगे जब ग्रहों और नक्षत्रों के बारे में कोई सन्दर्भ आये तो हमें उसमें कोई उलझन न हो |
राशिचक्र – सूर्य जिस मार्ग से चलता हुआ आकाश में प्रतीत होता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | अगर इस कान्तिवृत्त को बारह भागों में बांटा जाये तो हर एक भाग को राशि कहते हैं अतः ऐसा वृत्त जिस पर नौ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं (ज्योतिष में सूर्य को भी ग्रह ही माना गया है ) राशीचक्र कहलाता है | इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं की पृथ्वी के पूरे गोल परिपथ को बारह भागों में विभाजित कर उन भागों में पड़ने वाले आकाशीय पिंडों के प्रभाव के आधार पर पृथ्वी के मार्ग में बारह किमी के पत्थर काल्पनिक रूप से माने गए हैं |
अब हम जानते हैं की एक वृत्त ३६० अंश में बांटा जाता है | इसलिए एक राशी जो राशिचक्र का बारहवां भाग है, ३० अंशो की हुई | यानी एक राशि ३० अंशों की होती है | राशियों का नाम उनके अंशों सहित इस प्रकार है |
स द्विधा स्थूल सुक्ष्मत्वान्मूर्त श्चामूर्त उच्यते ||
अर्थात - एक प्रकार का काल संसार का नाश करता है और दूसरे प्रकार का कलानात्मक है अर्थात जाना जा सकता है | यह भी दो प्रकार का होता है (१) स्थूल और (२) सूक्ष्म | स्थूल नापा जा सकता है इसलिए मूर्त कहलाता है और जिसे नापा नहीं जा सकता इसलिए अमूर्त कहलाता है |
ज्योतिष में प्रयुक्त काल (समय) के विभिन्न प्रकार :
प्राण (असुकाल) – स्वस्थ्य मनुष्य सुखासन में बैठकर जितनी देर में श्वास लेता व छोड़ता है, उसे प्राण कहते हैं |
६ प्राण = १ पल (१ विनाड़ी)
६० पल = १ घडी (१ नाडी)
६० घडी = १ नक्षत्र अहोरात्र (१ दिन रात)
अतः १ दिन रात = ६०*६०*६ प्राण = २१६०० प्राण
इसे यदि आज के परिप्रेक्ष्य में देखें तो
१ दिन रात = २४ घंटे = २४ x ६० x ६० = ८६४०० सेकण्ड्स
अतः १ प्राण = 86400/२१६०० = ४ सेकण्ड्स
अतः एक स्वस्थ्य मनुष्य को सुखासन में बैठकर श्वास लेने और छोड़ने में ४ सेकण्ड्स लगते हैं |
प्राचीन काल में पल का प्रयोग तोलने की इकाई के रूप में भी किया जाता था |
१ पल = ४ तौला (जिस समय में एक विशेष प्रकार के छिद्र द्वारा घटिका यंत्र में चार तौले जल चढ़ता है उसे पल कहते हैं | )
जितने समय में मनुष्य की पलक गिरती है उसे निमेष कहते हैं |
१८ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला = ६० विकला
३० कला = १ घटिका
२ घटिका = ६० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन
इस प्रकार १ नक्षत्र दिन = ३० x २ x ३० x ३० x 18 = ९७२००० निमेष
उपरोक्त गणना सूर्य सिद्धांत से ली गयी है किन्तु स्कन्द पुराण में इसकी संरचना कुछ भिन्न मिलती है | उसके अनुसार
१५ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला
३० कला = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन रात
इसके अनुसार
१ दिन रात = ३० x ३० x ३० x १५ = ४०५०० निमेष
यहाँ हम सूर्य सिद्धांत को ज्यादा प्रमाणित मानते हैं क्योंकि वो विशुद्ध ज्योतिष ग्रन्थ है और उसकी गणना भी ज्योतिषी द्वारा ही की गयी है जबकि स्कन्द पुराण में मात्र अनुवाद मिलता है जो गलत भी हो सकता है क्योंकि कोई आवश्यक नहीं की अनुवादक ज्योतिषी भी हो |
अब
१ दिन = २१६०० प्राण = ८६४०० सेकण्ड्स = ९७२००० निमेष
१ प्राण = ९७२०००/२१६०० = ४५ निमेष
१ सेकंड = ९७२०००/८६४०० = ११.२५ निमेष
सौर मास, चन्द्र मास, नाक्षत्रमास और सावन मास – ये ही मास के चार भेद हैं । सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है । सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय ही सौरमास है । (सूर्य मंडल का केंद्र जिस समय एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है, उस समय दूसरी राशि की संक्रांति होती है | एक संक्रांति से दूसरी संक्राति के समय को सौर मास कहते हैं | १२ राशियों के हिसाब से १२ ही सौर मास होते हैं | ) यह मास प्रायः तीस-एकतीस दिन का होता है । कभी कभी उनतीस और बत्तीस दिन का भी होता है । चन्द्रमा की ह्र्वास वृद्धि वाले दो पक्षों का जो एक मास होता है, वही चन्द्र मास है । यह दो प्रकार का होता है – शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला ‘जमांत’ मास मुख्य चंद्रमास है । कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा तक पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है । यह तिथि की ह्र्वास वृद्धि के अनुसार २९, २८, २७ एवं ३० दिनों का भी हो जाता है ।
सूर्य जब पृथ्वी के पास होता है (जनवरी के प्रारंभ में ) तब उसकी कोणीय गति तीव्र होती है और जब पृथ्वी से दूर होता है (जुलाई के आरम्भ में) तब इसकी कोणीय गति मंद होती है | जब कोणीय गति तीव्र होती है तब वह एक राशि शीघ्र पार कर लेता है और सौर मास छोटा होता है, इसके विपरीत जब कोणीय गति मंद होती है तब सौर मास बड़ा होता है |
सौर मास का औसत मान = ३०.४४ औसत सौर दिन
जितने दिनों में चंद्रमा अश्वनी से लेकर रेवती के नक्षत्रों में विचरण करता है, वह काल नक्षत्रमास कहलाता है । यह लगभग २७ दिनों का होता है । सावन मास तीस दिनों का होता है । यह किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर तीसवें दिन समाप्त हो जाता है । प्रायः व्यापार और व्यवहार आदि में इसका उपयोग होता है । इसके भी सौर और चन्द्र ये दो भेद हैं । सौर सावन मास सौर मास की किसी भी तिथि को प्रारंभ होकर तीसवें दिन पूर्ण होता है । चन्द्र सावन मास, चंद्रमा की किसी भी तिथि से प्रारंभ होकर उसके तीसवें दिन समाप्त माना जाता है ।
नोट १ : यहाँ पर नक्षत्र एवं राशियों को संक्षेप में लिखा गया है, इनके बारे में विस्तृत चर्चा खगोल अध्ययन में की जाएगी जहाँ पर इनके बारे में सम्पूर्ण व्याख्या दी जाएगी
तिथि - चन्द्रमा आकाश में चक्कर लगाता हुआ जिस समय सूर्य के बहुत पास पहुच जाता है उस समय अमावस्या होती है | ( जब चंद्रमा सूर्य और पृथ्वी के बिलकुल मध्य में स्थित होता है तब वह सूर्य के निकटतम होता है |) अमावस्या के बाद चंद्रमा सूर्य से आगे पूर्व की ओर बढ़ता जाता है और जब १२० अंश आगे हो जाता है तब पहली तिथि (प्रथमा) बीतती है | १२० से २४० अंश का जब अंतर रहता है तब दूज रहती है | २४० से २६० तक जब चंद्रमा सूर्य से आगे रहता है तब तीज रहती है | इसी प्रकार जब अंतर १६८०-१८O० तक होता है तब पूर्णिमा होती है, १८O०-१९२० तक जब चंद्रमा आगे रहता है तब १६ वी तिथि (प्रतिपदा) होती है | १९२०- २O४० तक दूज होती है इत्यादि | पूर्णिमा के बाद चंद्रमा सूर्यास्त से प्रतिदिन कोई २ घडी (४८ मिनट) पीछे निकालता है |
चन्द्र मासों के नाम इस प्रकार हैं – चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष या मृगशिरा, पौष, माघ और फाल्गुन |
देवताओं का एक दिन - मनुष्यों के एक वर्ष को देवताओं के एक दिन माना गया है । उत्तरायण तो उनका दिन है और दक्षिणायन रात्रि । पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव पर देवताओं के रहने का स्थान तथा दक्षिणी ध्रुव पर राक्षसों के रहने का स्थान बताया गया है | साल में २ बार दिन और रात सामान होती है | ६ महीने तक सूर्य विषुवत के उत्तर और ६ महीने तक दक्षिण रहता है | पहली छमाही में उत्तरी गोल में दिन बड़ा और रात छोटी तथा दक्षिण गोल में दिन छोटा और रात बड़ी होती है | दूसरी छमाही में ठीक इसका उल्टा होता है | परन्तु जब सूर्य विषुवत वृत्त के उत्तर रहता है तब वह उत्तरी ध्रुव (सुमेरु पर्वत पर) ६ महीने तक सदा दिखाई देता है और दक्षिणी ध्रुव पर इस समय में नहीं दिखाई पड़ता | इसलिए इस छमाही को देवताओ का दिन तथा राक्षसों की रात कहते हैं | जब सूर्य ६ महीने तक विषुवत वृत्त के दक्षिण रहता है तब उत्तरी ध्रुव पर देवताओं को नहीं दिख पड़ता और राक्षसों को ६ महीने तक दक्षिणी ध्रुव पर बराबर दिखाई पड़ता है | इसलिए हमारे १२ महीने देवताओं अथवा राक्षसों के एक अहोरात्र के समान होते हैं |
देवताओं का १ दिन (दिव्य दिन) = १ सौर वर्ष
दिव्य वर्ष - जैसे ३६० सावन दिनों से एक सावन वर्ष की कल्पना की गयी है उसी प्रकार ३६० दिव्य दिन का एक दिव्य वर्ष माना गया है | यानी ३६० सौर वर्षों का देवताओं का एक वर्ष हुआ | अब आगे बढ़ते हैं |
१२०० दिव्य वर्ष = १ चतुर्युग = १२०० x ३६० = ४३२००० सौर वर्ष
चतुर्युग में सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग होते हैं | चतुर्युग के दसवें भाग का चार गुना सतयुग (४०%), तीन गुना (३०%) त्रेतायुग, दोगुना (२०%) द्वापर युग और एक गुना (१०%) कलियुग होता है |
अर्थात १ चतुर्युग (महायुग) = ४३२०००० सौर वर्ष
१ कलियुग = ४३२००० सौर वर्ष
१ द्वापर युग = ८६४६०० सौर वर्ष
१ त्रेता युग = १२९६००० सौर वर्ष
१ सतयुग = १७२८००० सौर वर्ष
जैसे एक अहोरात्र में प्रातः और सांय दो संध्या होती हैं उसी प्रकार प्रत्येक युग के आदि में जो संध्या होती है उसे आदि संध्या और अंत में जो संध्या आती है उसे संध्यांश कहते हैं | प्रत्येक युग की दोनों संध्याएँ उसके छठे भाग के बराबर होती हैं इसलिए एक संध्या (संधि काल ) बारहवें भाग के सामान हुई | इसका तात्पर्य यह हुआ कि
कलियुग की आदि व अंत संध्या = ३६०० सौर वर्ष वर्ष
द्वापर की आदि व् अंत संध्या = ७२००० सौर वर्ष
त्रेता युग की आदि व अंत संध्या = १०८००० सौर वर्ष
सतयुग की आदि व अंत संध्या = १४४००० सौर वर्ष
अब और आगे बढ़ते हैं |
७१ चतुर्युगों का एक मन्वंतर होता है, जिसके अंत में सतयुग के समान संध्या होती है | इसी संध्या में जलप्लव् होता है | संधि सहित १४ मन्वन्तरों का एक कल्प होता है, जिसके आदि में भी सतयुग के समान एक संध्या होती है, इसलिए एक कल्प में १४ मन्वंतर और १५ सतयुग के सामान संध्या हुई |
अर्थात १ चतुर्युग में २ संध्या
१ मन्वंतर = ७१ x ४३२०००० = ३०६७२०००० सौर वर्ष
मन्वंतर के अंत की संध्या = सतयुग की अवधि = १७२८००० सौर वर्ष
= १४ x ७१ चतुर्युग + १५ सतयुग
= ९९४ चतुर्युग + (१५ x ४)/१० चतुर्युग (चतुर्युग का ४०%)
= १००० चतुर्युग = १००० x १२००० = १२०००००० दिव्य वर्ष
= १००० x ४३२०००० = ४३२००००००० सौर वर्ष
ऐसा मनुस्मृति में भी मिलता है किन्तु आर्यभट की आर्यभटीय के अनुसार
१ कल्प = १४ मनु (मन्वंतर)
१ मनु = ७२ चतुर्युग
और आर्यभट्ट के अनुसार
१४ x ७२ = १००८ चतुर्युग = १ कल्प
जबकि सूर्य सिद्धांत से १००० चतुर्युग = १ कल्प
जो की ब्रह्मा के १ दिन के बराबर है | इतने ही समय की ब्रह्मा की एक रात भी होती है | इस समय ब्रह्मा की आधी आयु बीत चुकी है, शेष आधी आयु का यह पहला कल्प है | इस कल्प के संध्या सहित ६ मनु बीत गए हैं और सातवें मनु वैवस्वत के २७ महायुग बीत गए हैं तथा अट्ठाईसवें महायुग का भी सतयुग बीत चूका है |
इस समय २०१३ में कलियुग के ५०४७ वर्ष बीते हैं |
महायुग से सतयुग के अंत तक का समय = १९७०७८४००० सौर वर्ष
यदि कल्प के आरम्भ से अब तक का समय जानना हो तो ऊपर सतयुग के अंत तक के सौर वर्षों में त्रेता के १२८६००० सौरवर्ष, द्वापर के ८६४००० सौर वर्ष तथा कलियुग के ५०४७ वर्ष और जोड़ देने चाहिए |
बीते हुए ६ मन्वन्तरों के नाम हैं – (१) स्वायम्भुव (२) स्वारोचिष (३) औत्तमी (४) तामस (५) रैवत (६) चाक्षुष | वर्तमान मन्वंतर का नाम वैवस्वत है | वर्तमान कल्प को श्वेत कल्प कहते हैं, इसीलिए हमारे संकल्प में कहते हैं -
प्रवर्तमानस्याद्य ब्राह्मणों द्वितीय प्रहरार्धे श्री श्वेतवराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे ……………बौद्धावतारे वर्तमानेस्मिन वर्तमान संवत्सरे अमुकनाम वत्सरे अमुकायने अमुक ऋतु अमुकमासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुकवासरे अमुकनक्षत्रे संयुक्त चन्द्रे …. ….. तिथौ ………
एक सौर वर्ष में १२ सौर मास तथा ३६५.२५८५ मध्यम सावन दिन होते हैं परन्तु १२ चंद्रमास ३५४.३६७०५ मध्यम सावन दिन का होता है, इसलिए १२ चंद्रमासों का एक वर्ष सौर वर्ष से १०.८९१७० मध्यम सावन दिन छोटा होता है | इसलिए कोई तैंतीस महीने में ये अंतर एक चंद्रमास के समान हो जाता है | जिस सौर वर्ष में यह अंतर १ चंद्रमास के समान हो जाता है उस सौर वर्ष में १३ चंद्रमास होते हैं | उस मास को अर्धमास या मलमास कहा जाता है | यदि ऐसा न किया जाये तो चंद्रमास के अनुसार मनाये जाने वाले त्यौहार पर्व इत्यादि भिन्न भिन्न ऋतुओं में मुसलमानी त्यौहारों की तरह भिन्न भिन्न ऋतुओं में पड़ने लगे |
किस घंटे (होरा) का स्वामी कौन ग्रह है यह जानने के लिए वह क्रम समझ लेना चाहिए जिस क्रम से घंटे के स्वामी बदलते हैं | शनि ग्रह पृथ्वी से सब ग्रहों से दूर है, उस से निकटवर्ती बृहस्पति है, बृहस्पति से निकट मंगल, मंगल से निकट सूर्य, सूर्य से निकट शुक्र, शुक्र से निकट बुध और बुध से निकट चंद्रमा है | इसी क्रम से होरा के स्वामी बदलते हैं | यदि पहले घंटे का स्वामी शनि है तो दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल, चौथे का सूर्य, पांचवे का शुक्र, छठे का बुध, सातवें का चन्द्रमा, आठवें का फिर शनि इत्यादि क्रमानुसार हैं | परन्तु जिस दिन दिन पहले घंटे का स्वामी शनि होता है उस दिन का नाम शनिवार होना चाहिए | इसलिए शनिवार के दूसरे घंटे का स्वामी बृहस्पति, तीसरे घंटे का स्वामी मंगल इत्यादि हैं | इस प्रकार सात सात घंटे के बाद स्वामियों का वही क्रम फिर आरम्भ होता है | इसलिए शनिवार के २२वें घंटे का स्वामी शनि, २३वें का बृहस्पति, २४वें का मंगल और २४वें के बाद वाले घंटे का स्वामी सूर्य होना चाहिए | परन्तु यहाँ २५वां घंटा अगले दिन का पहला घंटा है जिसका स्वामी सूर्य है इसलिए शनिवार के बाद रविवार आता है | इसी प्रकार रविवार के २५वें घंटे यानी अगले दिन के पहले घंटे का स्वामी चन्द्रमा होगा इसलिए उसे चंद्रवार या सोमवार कहते हैं | इसी प्रकार और वारों का नामकरण हुआ है |
इससे यह स्पष्ट होता है कि शनिवार के बाद रविवार और रविवार के बाद सोमवार और सोमवार के बाद मंगलवार क्यों होता है | शनि से रवि चौथा ग्रह है और रवि से चौथा ग्रह है और रवि से चंद्रमा चौथा ग्रह है अतः प्रत्येक दिन का स्वामी उसके पिछले दिन के स्वामी से चौथा ग्रह है |
मैटोनिक चक्र – मिटन ने ४३३ ई.पू. में देखा कि २३५ चंद्रमास और १९ सौर वर्ष अर्थात १९x१२ = २२८ सौर मासों में समय लगभग समान होता है, इनमें लगभग १ घंटे का अंतर होता है |
१९ सौर वर्ष = १९ x ३६५.२५ = ६९३९.७५ दिवस
२३५ चन्द्र मास = २३५x२९.५३१ = ६९३९.७८५ दिवस
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक १९ वर्ष में २२८ सौर मास और लगभग २३५ चन्द्र मास होते हैं अर्थात ७ चन्द्र मास अधिक होते हैं | चन्द्र और सौर वर्षों का अगर समन्वय नहीं करे तब लगभग ३२.५ सौर वर्षों में, ३३.५ चन्द्र वर्ष हो जायेंगे | अगर केवल चन्द्र वर्ष से ही चलें तब अगर दीपावली नवम्बर में आती है तब १९ वर्षों में यह ७ मास पहले अर्थात अप्रेल में आ जाएगी और इन धार्मिक त्यौहारों का ऋतुओं से कोई सम्बन्ध नहीं रह जायेगा | इसलिये भारतीय पंचांग में इसका ख्याल रखा जाता है |
क्षयमास – मलमास या अधिमास की भांति क्षयमास भी होता है | सूर्य की कोणीय गति नवम्बर से फरवरी तक तीव्र हो जाती है और इसकी इसकी संक्रांतियों के मध्य समय का अंतर कम हो जाता है | इन मासों में कभी कभी जब संक्रांति से कुछ मिनट पहले ही अमावस्या का अंत हुआ हो, तब मास का क्षय हो जाता है |
जिस चंद्रमास (एक अमावस्या के अंत से दूसरी अमावस्या के अंत तक) में दो संक्रांतियों आ जाएँ, उसमें एक मास का क्षय हो जाता है | यह कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष और माघ इन चार मास में ही होता है अर्थात नवम्बर से फरवरी तक ही हो सकता है |
अब संक्षिप्त में राशियों और नक्षत्रों के बारे में चर्चा करते हैं ताकि आगे जब ग्रहों और नक्षत्रों के बारे में कोई सन्दर्भ आये तो हमें उसमें कोई उलझन न हो |
राशिचक्र – सूर्य जिस मार्ग से चलता हुआ आकाश में प्रतीत होता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | अगर इस कान्तिवृत्त को बारह भागों में बांटा जाये तो हर एक भाग को राशि कहते हैं अतः ऐसा वृत्त जिस पर नौ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं (ज्योतिष में सूर्य को भी ग्रह ही माना गया है ) राशीचक्र कहलाता है | इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं की पृथ्वी के पूरे गोल परिपथ को बारह भागों में विभाजित कर उन भागों में पड़ने वाले आकाशीय पिंडों के प्रभाव के आधार पर पृथ्वी के मार्ग में बारह किमी के पत्थर काल्पनिक रूप से माने गए हैं |
अब हम जानते हैं की एक वृत्त ३६० अंश में बांटा जाता है | इसलिए एक राशी जो राशिचक्र का बारहवां भाग है, ३० अंशो की हुई | यानी एक राशि ३० अंशों की होती है | राशियों का नाम उनके अंशों सहित इस प्रकार है |
अंश राशि
****************
०-३० मेष
३०-६० वृष
६०-९० मिथुन
९०-१२० कर्क
१२०-१५० सिंह
१५०-१८० कन्या
१८०-२१० तुला
२१०-२४० वृश्चिक
२४०-२७० धनु
२७०-३०० मकर
३००-३३० कुम्भ
३३०-३६० मीन
३०-६० वृष
६०-९० मिथुन
९०-१२० कर्क
१२०-१५० सिंह
१५०-१८० कन्या
१८०-२१० तुला
२१०-२४० वृश्चिक
२४०-२७० धनु
२७०-३०० मकर
३००-३३० कुम्भ
३३०-३६० मीन
नक्षत्र – आकाश में तारों के समुदाय को नक्षत्र कहते हैं | आकाश मंडल में जो असंख्य तारिकाओं से कही अश्व, शकट, सर्प, हाथ आदि के आकार बन जाते हैं, वे ही नक्षत्र कहलाते हैं | (जिस प्रकार पृथ्वी पर एक स्थान से दूसरे स्थान की दूरी मीलों में या कोसों में नापी जाती है उसी प्रकार आकाश मंडल की दूरी नक्षत्रों में नापी जाती है |) राशि चक्र ( वह वृत्त जिस पर ९ ग्रह घूमते हुए प्रतीत होते हैं | ) को २७ भागों में विभाजित करने पर २७ नक्षत्र बनते हैं |
पृथ्वी के कुल ३६० अंश के परिपथ को नक्षत्रों के लिए २७ भागों में बांटा गया है ( जैसे राशियों के लिए १२ भागों में बांटा गया है |) अतः प्रत्येक नक्षत्र ३६०/२७ = १३ मिनट २० सेकंड = ८०० कला का होगा | इसके उपरान्त भी नक्षत्रों को चार चरणों में बांटा गया है | प्रत्येक चरण १३ मिनट २० सेकंड/ ४ = ३ मिनट २० सेकंड = २०० कला का होगा | क्योंकि एक राशि ३० अंश की होती है अतः हम कह सकते हैं कि सवा दो नक्षत्र अर्थात ९ चरण अर्थात ३० अंश की एक राशि होती है |
पृथ्वी के कुल ३६० अंश के परिपथ को नक्षत्रों के लिए २७ भागों में बांटा गया है ( जैसे राशियों के लिए १२ भागों में बांटा गया है |) अतः प्रत्येक नक्षत्र ३६०/२७ = १३ मिनट २० सेकंड = ८०० कला का होगा | इसके उपरान्त भी नक्षत्रों को चार चरणों में बांटा गया है | प्रत्येक चरण १३ मिनट २० सेकंड/ ४ = ३ मिनट २० सेकंड = २०० कला का होगा | क्योंकि एक राशि ३० अंश की होती है अतः हम कह सकते हैं कि सवा दो नक्षत्र अर्थात ९ चरण अर्थात ३० अंश की एक राशि होती है |
नक्षत्रों के नाम -
१. अश्विनी २. भरिणी ३. कृत्तिका ४. रोहिणी
५. मृगशिरा ६. आर्द्रा ७. पुनर्वसु ८. पुष्य
९. आश्लेषा १०. मेघा ११. पूर्वा फाल्गुनी १२. उत्तरा फाल्गुनी
१३. हस्त १४. चित्रा १५. स्वाति १६. विशाखा
१७. अनुराधा १८. ज्येष्ठा १९. मूल २०. पूवाषाढा
२१. उत्तराषाढा २२. श्रवण २३. धनिष्ठा २४. शतभिषा
२५. पूर्वाभाद्रपद २६. रेवती
अभिजीत को २८वां नक्षत्र माना गया है | उत्तराषाढ़ की आखिरी १५ घाटियाँ और श्रवण की प्रारंभ की ४ घाटियाँ, इस प्रकार १९ घटियों के मान वाला अभिजीत नक्षत्र होता है | यह समस्त कार्यों में शुभ माना जाता है |
सूक्ष्मता से समझाने के नक्षत्र के भी ४ भाग किये गए हैं, जो चरण कहलाते हैं | प्रत्येक नक्षत्र का एक स्वामी होता है |
अश्विनी – अश्विनी कुमार भरणी – काल कृत्तिका – अग्नि
रोहिणी – ब्रह्मा मृगशिरा – चन्द्रमा आर्द्रा – रूद्र
पुनर्वसु – अदिति पुष्य – बृहस्पति आश्लेषा – सर्प
मघा – पितर पूर्व फाल्गुनी – भग उत्तराफाल्गुनी – अर्यता
हस्त – सूर्य चित्रा – विश्वकर्मा स्वाति – पवन
विशाखा – शुक्राग्नि अनुराधा – मित्र ज्येष्ठा – इंद्र
मूल – निऋति पूर्वाषाढ़ – जल उत्तराषाढ़ – विश्वेदेव
श्रवण – विष्णु धनिष्ठा – वसु शतभिषा – वरुण
पूर्वाभाद्रपद – आजैकपाद उत्तराभाद्रपद – अहिर्बुधन्य रेवती – पूषा
अभिजीत – ब्रह्मा
नक्षत्रों के फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए |
योजनानि शतान्यष्टो भूकर्णों द्विगुणानि तु |
तद्वर्गतो दशगुणात्पदे भूपरिधिर्भवते ||
अर्थात पृथ्वी का व्यास ८०० के दूने १६०० योजन है, इसके वर्ग का १० गुना करके गुणनफल का वर्गमूल निकालने से जो आता है, वह पृथ्वी की परिधि है |
इस श्लोक को विस्तार से आगे चर्चा करेंगे किन्तु इस श्लोक से स्पष्ट हो गया होगा कि इस अध्याय में हम खगोल की और पृथ्वी के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे | आइये, कुछ परिभाषाएं और कुछ महत्वपूर्ण तथ्य पढ़ते हैं, ताकि ज्योतिष में आगे प्रयुक्त विभिन्न शब्दावली समझने में आसानी रहे | यहाँ फिर स्पष्ट करूँगा कि हमारा संकल्प ज्योतिष को सम्पूर्ण रूप से समझने का है और हम इसमें किसी भी प्रकार के आलस्य का साधन नहीं करेंगे |
सौर मंडल – सौर मंडल में ९ ग्रहों में अरूण ग्रह (यूरेनस), वरुण ग्रह (नेपच्यून) और यम (प्लूटो) को प्राचीन ज्योतिष में नहीं गिना गया है (ऐसा माना गया है कि इनसे आती हुई किरणें मनुष्य जीवन को बहुत प्रभावित नहीं करते या इनका प्रभाव नगण्य है | ) चंद्रमा और दो छाया ग्रह जिन्हें राहु, केतु माना गया है | राहु और केतु वास्तव में कोई वास्तविक ग्रह नहीं है बल्कि गणितीय गणनाओं से आई सूर्य और चंद्रमा कि कक्षाओं के मिलान बिंदु हैं |
१. अश्विनी २. भरिणी ३. कृत्तिका ४. रोहिणी
५. मृगशिरा ६. आर्द्रा ७. पुनर्वसु ८. पुष्य
९. आश्लेषा १०. मेघा ११. पूर्वा फाल्गुनी १२. उत्तरा फाल्गुनी
१३. हस्त १४. चित्रा १५. स्वाति १६. विशाखा
१७. अनुराधा १८. ज्येष्ठा १९. मूल २०. पूवाषाढा
२१. उत्तराषाढा २२. श्रवण २३. धनिष्ठा २४. शतभिषा
२५. पूर्वाभाद्रपद २६. रेवती
अभिजीत को २८वां नक्षत्र माना गया है | उत्तराषाढ़ की आखिरी १५ घाटियाँ और श्रवण की प्रारंभ की ४ घाटियाँ, इस प्रकार १९ घटियों के मान वाला अभिजीत नक्षत्र होता है | यह समस्त कार्यों में शुभ माना जाता है |
सूक्ष्मता से समझाने के नक्षत्र के भी ४ भाग किये गए हैं, जो चरण कहलाते हैं | प्रत्येक नक्षत्र का एक स्वामी होता है |
अश्विनी – अश्विनी कुमार भरणी – काल कृत्तिका – अग्नि
रोहिणी – ब्रह्मा मृगशिरा – चन्द्रमा आर्द्रा – रूद्र
पुनर्वसु – अदिति पुष्य – बृहस्पति आश्लेषा – सर्प
मघा – पितर पूर्व फाल्गुनी – भग उत्तराफाल्गुनी – अर्यता
हस्त – सूर्य चित्रा – विश्वकर्मा स्वाति – पवन
विशाखा – शुक्राग्नि अनुराधा – मित्र ज्येष्ठा – इंद्र
मूल – निऋति पूर्वाषाढ़ – जल उत्तराषाढ़ – विश्वेदेव
श्रवण – विष्णु धनिष्ठा – वसु शतभिषा – वरुण
पूर्वाभाद्रपद – आजैकपाद उत्तराभाद्रपद – अहिर्बुधन्य रेवती – पूषा
अभिजीत – ब्रह्मा
नक्षत्रों के फलादेश भी स्वामियों के स्वभाव गुण के अनुसार जानना चाहिए |
योजनानि शतान्यष्टो भूकर्णों द्विगुणानि तु |
तद्वर्गतो दशगुणात्पदे भूपरिधिर्भवते ||
अर्थात पृथ्वी का व्यास ८०० के दूने १६०० योजन है, इसके वर्ग का १० गुना करके गुणनफल का वर्गमूल निकालने से जो आता है, वह पृथ्वी की परिधि है |
इस श्लोक को विस्तार से आगे चर्चा करेंगे किन्तु इस श्लोक से स्पष्ट हो गया होगा कि इस अध्याय में हम खगोल की और पृथ्वी के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे | आइये, कुछ परिभाषाएं और कुछ महत्वपूर्ण तथ्य पढ़ते हैं, ताकि ज्योतिष में आगे प्रयुक्त विभिन्न शब्दावली समझने में आसानी रहे | यहाँ फिर स्पष्ट करूँगा कि हमारा संकल्प ज्योतिष को सम्पूर्ण रूप से समझने का है और हम इसमें किसी भी प्रकार के आलस्य का साधन नहीं करेंगे |
सौर मंडल – सौर मंडल में ९ ग्रहों में अरूण ग्रह (यूरेनस), वरुण ग्रह (नेपच्यून) और यम (प्लूटो) को प्राचीन ज्योतिष में नहीं गिना गया है (ऐसा माना गया है कि इनसे आती हुई किरणें मनुष्य जीवन को बहुत प्रभावित नहीं करते या इनका प्रभाव नगण्य है | ) चंद्रमा और दो छाया ग्रह जिन्हें राहु, केतु माना गया है | राहु और केतु वास्तव में कोई वास्तविक ग्रह नहीं है बल्कि गणितीय गणनाओं से आई सूर्य और चंद्रमा कि कक्षाओं के मिलान बिंदु हैं |
शुक्र और बुध, पृथ्वी और सूर्य के मध्य आते हैं अतः इन्हें “आतंरिक ग्रह” (Inner Planets or Inferior Plantes) कहा जाता है |
मंगल, गुरु और शनि पृथ्वी की कक्षाओं से बाहर की तरफ आकाश में स्थित हैं अतः इन्हें “बाहरी ग्रह”(Outer Palnets or Superior Planets) कहते हैं |
मंगल, गुरु और शनि पृथ्वी की कक्षाओं से बाहर की तरफ आकाश में स्थित हैं अतः इन्हें “बाहरी ग्रह”(Outer Palnets or Superior Planets) कहते हैं |
पृथ्वी अपने अक्ष पर और सूर्य के चारों ओर लगातार घूमती है | इसकी गति ३० किमी/सेकंड या १६०० किमी/मिनट या ९६६०००००० किमी/वर्ष है |
पृथ्वी अपने अक्ष से २३.५० झुकी हुई है | धरती अपने अक्ष पर इस प्रकार झुकी हुई है जिससे कि इसका उत्तरी सिरा हमेशा उत्तरी ध्रुव तारे के सामने रहता है | जहाँ पर पृथ्वी के अक्ष के उत्तरी और दक्षिणी सिरे पृथ्वी की सतह पर मिलते हैं, उनको ही उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव कहा जाता है |
भूमध्य रेखा – यदि पृथ्वी के मध्य से जाता हुआ यदि एक Plan खींचे जो पृथ्वी के अक्ष से लम्बवत (Perpendicular) हो तो वो पृथ्वी की सतह को जब काटेगा तो वह एक वृत्त होगा, जिसे पृथ्वी कि भूमध्य रेखा कहते हैं |
उत्तरी गोलार्ध एवं दक्षिणी गोलार्ध – उस plan के उत्तरी भाग को उत्तरी गोलार्ध व दक्षिणी भाग को दक्षिणी गोलार्ध कहते हैं |
रेखांश (Longitudes) एवं अक्षांश (Latitude) – पृथ्वी की सतह को सामान भागों में Vertical एवं Horizontal भागों में बांटने को रेखांश व् अक्षांश कहते हैं | अक्षांश (अक्ष का अंश) horizontal lines एवं रेखांश Vertical lines को कहते हैं | इसे आप पृथ्वी के co-ordinates भी कह सकते हैं |
३६०० अक्षांश एवं ३६०० रेखांश मिला कर १० का एक Post बनाते हैं जो पूरा वर्ग (square) नहीं होता क्योंकि पृथ्वी पूरी गोल नहीं है | पृथ्वी कि परिधि ४०३४३ किमी है अतः १० का वर्ग ११० किमीx११० किमी या ६९ milesx६९ miles का होता है और उस भाग में जो शहर आते हैं उन्हें उसके रेखांश और अक्षांश से ही निकालते हैं और ये रेखांश या अक्षांश एक दूसरे से पूरी तरह सामानांतर (parallal) नहीं होती क्योंकि पृथ्वी कि भौगोलिक रचना ऐसी नहीं है | रेखांश को देशांतर भी कहते हैं |
२३.५० अंश उत्तरी अक्षांश रेखा को कर्क रेखा तथा २३.५० अंश दक्षिणी अक्षांश रेखा को मकर रेखा कहते हैं |
मानक मध्यान्ह रेखा या मुख्य मध्यान्ह रेखा (Standard Meridian) – प्रत्येक देश का फैलाव उत्तर व् दक्षिण की ओर ही नहीं होता बल्कि पूर्व और पश्चिम में भी होता हो | जो देश पूर्व में होंगे वहां मध्यान्ह पहले होगा बजाय उनके जो पश्चिम में होंगे | इस कारण पूर्व वाले स्थानों का स्थानीय समय पश्चिम वाले स्थानो से अधिक होगा | इससे समस्या यह आती है कि पूर्व वाला समय कुछ बताएगा और पश्चिम वाला कुछ और बताएगा | सांसारिक व्यवहार गड़बड़ा जायेगा | इस का हल यह निकाला गया कि एक देश और अधिक विस्तार वाले देशों को क्षेत्रों में बांटकर एक क्षेत्र की एक मुख मध्यान्ह रेखा/मानक मध्यान्ह रेखा हो और उस स्थान का स्थानीय समय उस सारे देश या क्षेत्र में मान्य हो अर्थात उस समयानुसार ही उस देश या क्षेत्र के सारे सांसारिक कार्य संपन्न किये जायेंगे |
प्रधान मध्यान्ह रेखा या प्रथम मध्यान्ह रेखा (Prime Meridian) – सारी रेखांश को मापने के लिए एक मध्य रेखांश चुना गया है जो ग्रीनविच से होते हुए जाता है | उसे 0०E या 0० रेखांश माना जाता है और बाकी सारे उसके सन्दर्भ में गिनते हैं पूर्व की ओर या पश्चिम कि ओर | भारत में ८२.५० अंश पूर्वी रेखांश = ८२०३०’ के आधार पर मानक समय प्रामाणित है |
अब हमें समझना चाहिए कि सूर्य सर्वप्रथम १८०० अंश पूर्वी रेखांश पर निकालता है और धीरे धीरे ०० अंश रेखांश ग्रीनविच को पार करता हुआ १८०० अंश पश्चिमी रेखांश पर पहुँच कर छिपता हुआ दृष्टिगोचर होता है | इस यात्रा में इसे २४ घंटे लगते हैं अर्थात सूर्य १८०० अंश पूर्वी + १८०० अंश पश्चिमी = ३६०० रेखांशों को २४ घंटे में पार करता है | इस प्रकार १० रेखांश पार करने में २४ घंटे x ६० मिनट = १४४० मिनट लगते हैं यानी १० पार करने में १४४०/३६०० = ४ मिनट लगते हैं | यही कारण है कि १८०० पूर्वी रेखांश के नजदीक जापान में जब सोमवार होता है तो १८०० पश्चिमी रेखांश के नजदीक होनोलुलु में रविवार का दिन होता है | ऐसी स्थिति में विश्व के किसी भी स्थान/रेखांश पर खड़े होकर सूर्य कि स्थिति जान सकते हैं | सूर्योदय और दोपहर अर्धरात्रि अमुक समय किस स्थान पर होगी, स्पष्ट रूप से बता सकते हैं |
अब ऊपर की दोनों बातों को ध्यान में रख कर हम समय गणना को समझने का प्रयास करेंगे | ऊपर कि बातों से ये स्पष्ट है कि दो भिन्न भिन्न स्थानों के स्थानीय समयों में अंतर अवश्य आएगा जैसे दिल्ली और कोलकाता के स्थानीय समय में ४४’३८’’ का अंतर है अर्थात जब कोलकाता में २ बजकर ४४’३८’’ होंगे तब दिल्ली में २ बजे होंगे |
प्रधान मध्यान्ह रेखा या प्रथम मध्यान्ह रेखा (Prime Meridian) – सारी रेखांश को मापने के लिए एक मध्य रेखांश चुना गया है जो ग्रीनविच से होते हुए जाता है | उसे 0०E या 0० रेखांश माना जाता है और बाकी सारे उसके सन्दर्भ में गिनते हैं पूर्व की ओर या पश्चिम कि ओर | भारत में ८२.५० अंश पूर्वी रेखांश = ८२०३०’ के आधार पर मानक समय प्रामाणित है |
अब हमें समझना चाहिए कि सूर्य सर्वप्रथम १८०० अंश पूर्वी रेखांश पर निकालता है और धीरे धीरे ०० अंश रेखांश ग्रीनविच को पार करता हुआ १८०० अंश पश्चिमी रेखांश पर पहुँच कर छिपता हुआ दृष्टिगोचर होता है | इस यात्रा में इसे २४ घंटे लगते हैं अर्थात सूर्य १८०० अंश पूर्वी + १८०० अंश पश्चिमी = ३६०० रेखांशों को २४ घंटे में पार करता है | इस प्रकार १० रेखांश पार करने में २४ घंटे x ६० मिनट = १४४० मिनट लगते हैं यानी १० पार करने में १४४०/३६०० = ४ मिनट लगते हैं | यही कारण है कि १८०० पूर्वी रेखांश के नजदीक जापान में जब सोमवार होता है तो १८०० पश्चिमी रेखांश के नजदीक होनोलुलु में रविवार का दिन होता है | ऐसी स्थिति में विश्व के किसी भी स्थान/रेखांश पर खड़े होकर सूर्य कि स्थिति जान सकते हैं | सूर्योदय और दोपहर अर्धरात्रि अमुक समय किस स्थान पर होगी, स्पष्ट रूप से बता सकते हैं |
अब ऊपर की दोनों बातों को ध्यान में रख कर हम समय गणना को समझने का प्रयास करेंगे | ऊपर कि बातों से ये स्पष्ट है कि दो भिन्न भिन्न स्थानों के स्थानीय समयों में अंतर अवश्य आएगा जैसे दिल्ली और कोलकाता के स्थानीय समय में ४४’३८’’ का अंतर है अर्थात जब कोलकाता में २ बजकर ४४’३८’’ होंगे तब दिल्ली में २ बजे होंगे |
किसी स्थान का किसी समय पर औसत समय ज्ञात करने के लिए (१) उस स्थान का देशांतर (रेखांश/Longitude) (२) उस क्षेत्र/देश, जिसमें वह स्थान है, वहां का मानक समय (IST, भारत के सन्दर्भ में) (३) उस देश/क्षेत्र की मानक मध्यान्ह रेखा का देशांतर मालूम होना चाहिए | इसके बाद निम्न प्रक्रिया से स्थानीय समय ज्ञात किया जा सकता है |
प्रथम चरण – स्थानीय देशांतर और देश/क्षेत्र कि मानक मध्यान्ह रेखा के देशांतर का अंतर ज्ञात कर लें |
दूसरा चरण – इस अंतर को ४ मिनट प्रति अंश के अनुसार गुना करें | (पृथ्वी ३६०० २४ घंटे में घूमती है अर्थात १५० = १ घंटा या १० = ४ मिनट) अंश को ४ से गुना करने से मिनट व् कला को ४ से गुना करने पर सेकंड्स में समय का अंतर आ जायेगा |
तीसरा चरण – अगर वह स्थान मानक रेखा के पूर्व में हो तो दूसरे चरण वाला समय, मानक समय में जोड़ देंगे और पश्चिम में हो तो घटा देंगे | ऐसा करने पर स्थानीय समय आ जायेगा |
उदाहरण – भुवनेश्वर (उड़ीसा) में सांय ६ बज कर २५ मिनट भारतीय मानक समय पर वहां स्थानीय समय क्या था ? भुवनेश्वर का देशांतर ८५० ५०’ पूर्व है |
विधि (i) – भुवनेश्वर का देशांतर = ८५० ५०’ पूर्व
मानक रेखा का देशांतर = ८२०३०’ पूर्व
दोनों का अंतर = ३ डिग्री २० मिनट = ३०२०’
इसे ४ से गुणा करने पर ३०२०’ x ४ = १२ मिनट ८० सेकंड्स = १३ मिनट २० सेकंड्स
क्योंकि यह मानक रेखा के पूर्व में है इसलिए इसका स्थानीय समय अधिक होगा |
अतः स्थानीय समय = ६:२५:० + ०:१३:२० = ६:३८:२० सांय
विधि (ii) - यही काम लहरी कि लग्न सारिणी ने और आसान कर दिया | लाहिरी कि लग्न सारिणी में पृष्ठ १०१ पर यहाँ के लिए स्थानीय संस्कार के Coulmn में +१३ मिनट २० सेकंड दिया है |
इसे हम सीधा स्थानीय समय में परिवर्तित कर सकते हैं –
घटना का स्थानीय समय = भारतीय मानक समय + संस्कार
= ६:२५:० + ०:१३:२० = ६:३८:२० सांय
जो विधि (i) से मिलता है |
उदहारण २ : चेन्नई में ९ बजकर ३५ मिनट भारतीय मानक समय का स्थानीय समय क्या होगा ? चेन्नई का देशांतर ८००१५’ पूर्व है |
(अ) देशान्तरों का अंतर ८२०३०’ – ८००१५’ = २०१५’
(आ) २०१५’ x ४ = ८ मिनट ६० सेकंड्स = ९ मिनट
(इ) चेन्नई का देशांतर मानक देशांतर (पूर्व) से कम है इस कारण चेन्नई मानक देशांतर वाले स्थान से पश्चिम में हुई | इसलिए ९ मिनट घटाएंगे | चेन्नई की घटना के समय स्थानीय समय ९ घंटा ३५ मिनट – ९ मिनट = ९ घंटा २६ मिनट प्रातः
अब इसे हमें याद रखना होगा, आगे जाकर यह जन्म समय निकालने में काम आएगा | तब हम विदेशों के स्थानीय समय निकालना भी सीखेंगे |
आकाशीय गोल या खगोल (celestial Sphere) – जिस प्रकार हम किसी गोल गुब्बारे को फुलाते हैं तो वह छोटे से बड़ा फिर और बड़ा हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी को अनन्त आकाश में फैलाने पर जो गोला बनेगा उसे आकाशीय गोला या खगोल कहते हैं | इस खगोल का केंद्र पृथ्वी का केंद्र होगा |
कान्तिवृत्त (Ecliptic) – सूर्य के तारों के बीच एक वर्ष के आभासीय भ्रमण मार्ग को इसकी कक्षा कहते हैं | जब इस कक्षा को खगोल में फैलाया जावे तो खगोल के ताल पर एक बड़ा वृत्त बनता है उसे कान्तिवृत्त कहते हैं | मॉडर्न science में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करता है न कि सूर्य पृथ्वी की (इसको टाल्मी ने माना कि जिसे हम सूर्य का आभासीय भ्रमण कहते हैं वह पृथ्वी का भी आभासीय भ्रमण हो सकता है किन्तु यहाँ हम Modern Science को ही प्रमाण मानेगे ) इस कारण क्रांतिवृत्त की परिभाषा यह भी होती है कि पृथ्वी के वार्षिक भ्रमण मार्ग को अनन्त आकाश में फैलाने पर जिन स्थानों पर वह खगोल को काटे उस वृत्त को कान्तिवृत्त कहते हैं |
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