Monday, April 28, 2014

दश - महा विद्या :-
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तंत्र क्षेत्र की १० महाशक्तियां जो ब्रह्माण्ड की सभी गतिविधियों का नियंत्रण करती है, वही आदि शक्ति के दस महारूप दसमहाविद्या के नाम से प्रख्यात है. देवी के सभी रूप अपने आप में विलक्षण तो है ही, साथ ही साथ अपने साधको को हमेशा कल्याण प्रदान करने के लिए तत्पर भी है. हज़ारो साधको के मन की यह अभिलाषा होती है की वह महाविद्या से सबंधित साधना प्रक्रिया पद्धति और प्रयोगों को समजे तथा प्रायोगिक रूप से इन प्रक्रियाओ को अपना कर शक्ति की कृपा के पात्र बने. इन्ही दस महाविद्याओ से सबंधित कई प्रकार के तंत्र प्रयोग सिद्धो के मध्य प्रचलित है, ज्यादातर गृहस्थ साधको के मध्य महाविद्या से सबंधित कुछ ही विशेष प्रयोग प्रकट रूप से प्राप्य है लेकिन गुरुमुखी प्रणाली से विविध गुप्त प्रयोग सन्यासी एवं कुछ गृहस्थ साधको के मध्य भी प्राप्त होते है.
दस महाविद्याओ में देवी भैरवी का नाम साधको के मध्य कई कारणों से प्रख्यात है क्यों की शक्ति का यह एक अतिव तीव्रतम स्वरुप है जिसकी साधना करने पर साधक को तीव्र रूप से फल की प्राप्ति होती है. साथ ही साथ साधक को न सिर्फ आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति होती है, वरन साधक के भौतिक जीवन के अभाव भी दूर होते है. पुरातन तंत्र ग्रंथो में भगवती के भैरवी स्वरुप की भरपूर प्रशंशा की गई है. भगवती का स्वरुप अत्यधिक रहस्यमय है तथा इतनी ही गुढ़ है उनकी साधना पद्धति भी. विश्वसार में इसे श्रृष्टिसंहारकारिणी की संज्ञा दी गई है, क्यों की यह जिव के सर्जन से ले कर संहार तक के पूर्ण क्रम में सूक्ष्म शक्ति के रूप में उपस्थित है. भैरवी से सबंधित त्रिबीज मन्त्र की ख्याति तो निश्चय ही बहोत ही ज्यादा है तथा कई कई साधको ने मन्त्र के माध्यम से नाना प्रकार से लाभों की प्राप्ति की है. लेकिन देवी से सबंधित एक और तीन बीज से युक्त मन्त्र भी है जिसको बीजत्रयात्मिका त्रिपुर भैरवी मन्त्र कहा जाता है. वैसे सामान्य द्रष्टि से इस मन्त्र में विशेषता द्रष्टिगोचर हो या नहीं लेकिन यह मन्त्र अत्यधिक तीव्र मन्त्र है जिसका अनुभव उन सभी साधको ने किया है जिन्होंने इस मन्त्र को अपनाया है.
यह मन्त्र रक्षात्मक है जिससे साधक का सभी शत्रुओ से रक्षण होता है साथ ही साथ यह अस्त्रात्मक मन्त्र भी है, साधक के सभी शत्रुओ का उच्चाटन होता है तथा समस्त शत्रु साधक से दुरी बनाने लगते है. इस मन्त्र प्रयोग से साधक को धन यश पद प्रतिष्ठा लाभ होता है. साधक की गृहस्थी से सबंधित समस्याओ का निराकरण होता है. भगवती की कृपा से साधक के ऊपर हो रहे सभी प्रकार के षड्यंत्र का नाश होता है तथा साधक सभी द्रष्टि से सुरक्षित बना रहता है. इस प्रकार यह लघु प्रयोग एक ही रात्रि में सम्प्पन करने पर साधक को एक साथ कई लाभों की प्राप्ति हो जाती है.
निश्चय ही हर एक गृहस्थ साधक के लिए इस प्रकार के प्रयोग वरदान स्वरुप है तथा तंत्र के क्षेत्र से एक से एक गोपनीय रत्न की प्राप्ति करना सौभाग्य सूचक ही है, फिर भी अगर हम इन प्रयोगों को ना अपनाए तथा अपने जीवन में परिवर्तन न करे तो फिर इसमें दोष किसका है. इस लिए तंत्र के माध्यम से देव शक्ति को प्राप्त कर, उनकी कृपा तथा आशीर्वाद तले हम अपने जीवन को सौंदर्य प्रदान कर सके यह हर एक साधक के लिए संभव तो है ही साथ ही साथ इस प्रकार के अमूल्य प्रयोगों के साथ सहज भी है .
साधक किसी भी शुभ दिन यह प्रयोग कर सकता है. समय रात्री में १० बजे के बाद का ही रहे.
साधक को स्नान आदि से निवृत हो लाल रंग के वस्त्र धारण कर लाल आसान पर उत्तर दिशा की तरफ मुख कर बैठना चाहिए. अपने सामने साधक भैरवी यंत्र या चित्र को स्थापित करे. इसके अलावा एक लघु नारियल और एक पञ्चमुखी रुद्राक्ष साथ में रख दे.
साधक गुरुपूजन, गणपति तथा भैरव पूजन करे. देवी के यंत्र तथा चित्र आदि का भी पूजन करे. गुरुमन्त्र का जाप करे. तथा इसके बाद मूल मन्त्र का न्यास करे.
करन्यास
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं तर्जनीभ्यां नमः
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं सर्वानन्दमयि मध्यमाभ्यां नमः
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं अनामिकाभ्यां नमः
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं कनिष्टकाभ्यां नमः
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं करतल करपृष्ठाभ्यां नमः
हृदयादिन्यास
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं हृदयाय नमः
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं शिरसे स्वाहा
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं शिखायै वषट्
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं कवचाय हूं
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्
ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं अस्त्राय फट्
न्यास के बाद साधक देवी का ध्यान कर मन्त्र जाप शुरू करे. यह जाप साधक मूंगामाला या शक्ति माला से करे. साधक को ५१ माला मन्त्र जाप उसी रात्रि में पूर्ण कर लेना चाहिए. साधक हर २१ माला के बाद ५-१० मिनिट का विश्राम ले सकता है.
मूल मन्त्र - ह्स्त्रैं ह्स्क्लीं ह्स्त्रौं (hstraim hskleem hstraum)
प्रयोग पूर्ण होने पर साधक देवी को योनी मुद्रा से जप समर्पण कर श्रद्धासह वंदन करे. दूसरे दिन साधक नारियल तथा रुद्राक्ष को प्रवाहित कर दे. तथा माला को रख ले. यह माला भविष्य में भी यह प्रयोग के लिए उपयोग में ली जा सकती है.

रमेश  दुबे " पंडित "  -----९४१७० ४७३७४ ..............

Friday, April 4, 2014


शामला - यन्त्रं  ( शिव - शक्ति  का वरदान )
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पौराणिक मतानुसार एक कहावत आती है कि एक बार किसी ढोंगी राक्षस ने अपनी कुत्सित एवं अपराधी इच्छा क़ी पूर्ती हेतु भगवान शिव क़ी उग्र तपस्या किया. आशुतोष भगवान शिव प्रसन्न होकर उससे वर माँगने को कहे. उसने भगवान शिव से उनकी पत्नी पार्वती को ही वरदान में मांग लिया. भगवान वचन वद्ध हो चुके थे. उन्होंने पार्वती को आदेश तों दे दिया कि वह उस राक्षस के साथ चली जाय. किन्तु जब माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा कि राक्षस ने तों तपस्या किया तों उसे आप ने वरदान दे डाला. किन्तु मैंने जो आज तक तपस्या क़ी, उसका क्या फल मिला? भगवान शिव ने पूछा कि हे शिवा ! आप क्या चाहती है? माता पार्वती ने कहा कि मुझे आप क़ी शक्ति चाहिए. भगवान शिव ने तत्काल अपनी शक्ति को आदेश दिया कि वह पार्वती क़ी हो जाय. भगवान शिव क़ी शक्ति निकल कर माता पार्वती के सम्मुख खड़ी हो गयी. शक्ति ने पूछा कि हे माता ! मेरे लिये क्या आदेश है? माता पार्वती ने कहा कि तुम मेरे इस मुट्ठी क़ी मिट्टी में समा जाओ. माता पार्वती ने एक मुट्ठी मिट्टी ज़मीन से उठाया. और उसमें उन्होंने अपनी शक्ति को प्रवेश कराया. पीछे से भगवान शिव क़ी भी शक्ति उसमें घुस गयी. वह मिट्टी तत्काल एक ठोस चमकीले पत्थर के रूप में परिवर्तित हो गयी. जिससे निकलने वाली किरणों ने तत्काल उस राक्षस को जाला डाला. उस रूद्र-शिवा क़ी शक्ति से युक्त वह पत्थर ही शामला नामक यंत्र से प्रसिद्ध हुआ. इसे रहस्यमय प्रकार से वैदिक सूत्रों में में भी बताया गया है.

"ॐ या ते रूद्र-शिवा तनूराघोरापापकाशिनी तयानास्तन्वा शंतमया गिरीशन्ताभीचाकशीहि. इदम एक रुद्राय नमः. " ------ऋग्वेद- शिव सूक्त.

आप स्वयं देख सकते है कि उपरोक्त सूत्र में भी रूद्र-शिवा का उल्लेख हुआ है. यह एक अति तीव्र, तीक्ष्ण एवं उग्र प्रभाव वाला यंत्र है. सूंडा पत्थर के भष्म को देवालिक, जायफल, त्रिपत्रिका, जटामांसी एवं हल्दी में कूट पीस कर शहद में मिला लें. अपनी पूरी लम्बाई के सूती काले धागे को जला कर उसका भी भष्म बना लें. अपनी जन्म नक्षत्र के अन्न को एक मुट्ठी लेकर उसे भी जलाकर भष्म बना लें. ये सारे मिश्रण एक जगह एकत्रित कर लें. उसके नौ भाग बना लें. जब आप क़ी जन्म नक्षत्र पड़े उस दिन उसकी चौघडिया में अपनी क्षमता के अनुसार चांदी या सोने क़ी अंगूठी बनवा कर केले के पत्ते में प्रथम दिन मिश्रण के एक भाग में ढक कर रख दें. अगले दिन मिश्रण के दूसरे भाग में उसी प्रकार ढक कर रख दें. तथा पहले दिन के मिश्रण को अंगूठी से अलग कर एक जगह रख लें. इसी प्रकार नवो दिन करें. उसके बाद आने वाले अगले मंगल वार या शनिवार को उसे नहा धो कर दाहिनी हाथ के बीच वाली बड़ी अंगुली में धारण कर लें. तथा उन सारे मिश्रणों को किसी साफ़ जगह पर या कही गाँव घर से दूर ज़मीन में गाड़ दें. यह एक अति विलक्षण प्रभाव वाली मुद्रिका यंत्र है.

किन्तु बहुत अफसोस क़ी बात है कि हम जैसे लोग इसे धारण नहीं कर सकते है. कारण यह है कि यह बहुत ही मंहगा यंत्र हो जाता है. सूंडा पत्थर जिसे अंग्रेजी में डेरोलान कहते है, आज क़ी तारीख में लगभग एक लाख रुपये का पडेगा. अतः यह आम आदमी के पहुँच के बाहर क़ी चीज हो गयी है. क्योकि इसे साधते, बनाते, सिद्ध करते लगभग सवा लाख रुपये इसकी कीमत हो जाती है. अब हम जैसा नौकरी पेशे वाला कहाँ से इसे बना पायेगा. किन्तु जैसा विविध ग्रंथो में इसका वर्णन उपलब्ध है, मैंने लिख दिया. सभी मेरे जैसे नहीं है. ढेर सारे लोग समर्थ है जिन्हें इस यंत्र क़ी आवश्यकता है. और वे इसे धारण कर सकते है. इसमें ऊपर दिये गये पदार्थो क़ी मात्रा रुद्रयामल (वेंकटेश्वर प्रभाग) में दिया गया है. यद्यपि यह ग्रन्थ तेलुगु भाषा में है. किन्तु इसका शायद हिंदी एवं अंग्रेजी संसकरण भी उपलब्ध है. फिर भी मै दृढ़ता पूर्वक नहीं कह सकता. यदि शिव मालिका, मार्कंडेय पुराण (बाम्बे प्रकाशन) , तंत्र विधान (रहस्य राघवम), रहस्य वैतालिक एवं पिप्पल आख्यायिका का अध्ययन किया जाय तों इसके बना ने क़ी विशद विधि विधान को प्राप्त किया जा सकता है.
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राशि फल  -- कितना  सत्य 
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राशिफल- कितना सत्य
वैदिक ज्योतिष में 12 राशियाँ बतायी गयी है. ये 12 राशियाँ विविध गोल एवं ग्रहों के क्षेत्रफल के अध्ययन में सुविधा के लिए उन ग्रहों या गोलों को बारह भागों में बांटती हैं. जिस प्रकार विषुवत रेखा पृथ्वी को बीच से दो भागो में बांटती है. कर्क रेखा धरती के एक तीसरे हिस्सा को दिखाती है. उसी प्रकार प्रत्येक ग्रह को उसके अध्ययन के लिए बराबर बराबर बारह भागों में बांटा गया है. इन बारह भागों को क्रमशः मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्घ एवं मीन कहा जाता है. राशि का अर्थ होता है ढेरी, संग्रह अथवा समूह. इस प्रत्येक राशि, भूखंड, भूभाग या ग्रहखंड का क्षेत्रफल 30 अंश का होता है. क्योंकि एक वृत्त या गोला 360 अंशों का होता है. इस प्रकार 12 भागों का पूरा क्षेत्रफल 360 अंश का होगा. फिर एक राशि को अध्ययन की सुविधा से सवा दो भागों में बांटा गया है. इस प्रत्येक भाग को नक्षत्र कहते हैं. इस प्रकार प्रत्येक नक्षत्र 13 अंश 20 कला का होता है. एक अंश में 60 कलाएं होती हैं. इस प्रकार प्रत्येक नक्षत्र 800 कला का होता है. प्रत्येक नक्षत्र को चार चरणों में बांटा गया है. इस प्रकार प्रत्येक चरण 200 कला का होता है. राशिफल चन्द्रमा के आधार पर कहा जाता है. चन्द्रमा की औसत गति 800 कला प्रतिदिन होती है. तात्पर्य यह कि चन्द्रमा एक दिन में 13 अंश 20 कला औसत मान से प्रत्येक दिन चलता है.
पूरे विश्व की आबादी आज लगभग पंद्रह अरब के आस पास है. अर्थात एक राशि के अन्दर लगभग एक सौ पच्चीस करोड़ (125,0000,00) आदमी आते है. अब यदि किसी एक राशि के बारे में यह भविष्य वाणी होती है कि आज मेष राशि वालों की दुर्घटना होगी. तो क्या यह संभव है कि एक सौ पच्चीस करोड़ (125,0000,00) आदमियों की दुर्घटना एक ही दिन में हो जाय? यह भविष्य वाणी सत्य से कोसो दूर है. ऊपर के गणितीय आंकड़ों से हम खुद ही देख सकते है कि राशिफल एक अरब पच्चीस करोड़ आदमी में एक हजार के लिए ही सच साबित हो सकता है. शेष एक अरब चौबीस करोड़ निन्यानबे लाख निन्यानबे हजार लोगो के लिए यह गलत होगी. इसलिए राशिफल व्यक्तिगत भविष्यवाणी के लिए सर्वथा असत्य, अनुचित, एवं अप्रमाणित है. व्यक्तिगत भविष्यफल के लिए यह देखना चाहिए कि व्यक्ति का जन्म किस राशि के किस नक्षत्र के किस चरण के किस नवांश में हुआ है. चूंकि एक राशि में तीस अंश होते है. एक अंश साठ कला का होता है. तो तीस अंश में अट्ठारह सौ कला होगा. अगर हम एक अरब पच्चीस करोड़ को अट्ठारह सौ से भाग देते है तो लगभग 68000 लोग आते है. अब हम इसका नवांश निकालते है तो साढे सात हजार लोग आते है. जो सत्य के एकदम नजदीक है. कारण यह कि यदि किसी नक्षत्र के एक नवांश का फल किसी दिन दुर्घटना बताता है तो समूचे संसार में 150,0000 0000 (एक सौ पचास करोड़) आदमियों में से सात हजार आदमी छोटी बड़ी दुर्घटना का शिकार हो सकते है. यह प्रामाणिक है. जो संसार में लगभग प्रतिदिन होता है.
शास्त्रों के अनुसार राशिफल बड़े भूखंडो, देश या राज्यों के सम्बन्ध में भूकंप बाढ़, उल्कापात, युद्ध, महामारी एवं सूर्य तथा चन्द्र ग्रहण बड़ी आबादी अथवा किसी वर्ग समुदाय के सम्बन्ध में प्रामाणिक एवं सच होता है. और एक आदर्श त्रिकालदर्शी विद्वान ज्योतिषी को सदा राशिफल राष्ट्र अथवा विश्व के परिप्रेक्ष्य में कहना चाहिए न कि किसी व्यक्ति विशेष के बारे में. इसीलिए महर्षि पाराशर तथा वाराह मिहिर आदि प्राचीन ज्योतिषाचार्यों ने कहा है कि-
"गणितेषु प्रवीणों यः शब्दशास्त्रे कृतश्रमः. न्यायविदबुद्धिदेशज्ञ दिक्कालज्ञो जितेन्द्रियः. ऊहापोहपटुर्होरास्कंधश्रवणसम्मतः. मैत्रेय सत्यताम याति तस्य वाक्यं न संशयः.

(बृहत् पाराशर होराशास्त्र अध्याय 43 श्लोक 49 एवं 50.)

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श्री  सूक्त  विधानं 
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“प्रपञ्चसार तन्त्र”, “श्री श्रीविद्यार्णव तन्त्र” एवं “शारदातिलक तन्त्र” के आधार पर .....

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विनियोगः- ॐ हिरण्य – वर्णामित्यादि-पञ्चदशर्चस्य श्रीसूक्तस्याद्यायाः ऋचः श्री ऋषिः तां म आवहेति चतुर्दशानामृचां आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुताश्चत्वारः ऋचयः, आद्य-मन्त्र-त्रयाणां अनुष्टुप् छन्दः, कांसोऽस्मीत्यस्याः चतुर्थ्या वृहती छन्दः, पञ्चम-षष्ठयोः त्रिष्टुप् छन्दः, ततोऽष्टावनुष्टुभः, अन्त्या प्रस्तार-पंक्तिः छन्दः । श्रीरग्निश्च देवते । हिरण्य-वर्णां बीजं । “तां म आवह जातवेद” शक्तिः । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकम् । मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।


ऋष्यादि-न्यासः- श्री-आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुतेभ्यः ऋषिभ्यो नमः-शिरसि । अनुष्टुप्-बृहती-त्रिष्टुप्-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः-मुखे । श्रीरग्निश्च देवताभ्यां नमः – हृदि । हिरण्य-वर्णां बीजाय नमः गुह्ये । “तां म आवह जातवेद” शक्तये नमः – पादयो । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकाय नमः नाभौ । मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।


अंग-न्यासः- ‘श्री-सूक्त’ के मन्त्रों में से एक-एक मन्त्र का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की अँगुलियों से क्रमशः सिर, नेत्र, कान, नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नाभि, लिंग, पायु (गुदा), उरु (जाँघ), जानु (घुटना), जँघा और पैरों में न्यास करें । यथा -


१॰ ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – शिरसि
२॰ ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।। – नेत्रयोः
३॰ ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।। – कर्णयोः
४॰ ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नासिकायाम्
५॰ ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।। – मुखे
६॰ ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।। – कण्ठे
७॰ ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।। – बाह्वोः
८॰ ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। – हृदये
९॰ ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नाभौ
१०॰ ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।। – लिंगे
११॰ ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।। – पायौ
१२॰ ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।। – उर्वोः
१३॰ ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – जान्वोः
१४॰ ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।। – जंघयोः
१५॰ ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।। – पादयोः
षडङ्ग-न्यास - कर-न्यास – अंग-न्यास -
ॐ हिरण्य-मय्यै नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ चन्द्रायै नमः तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ रजत-स्रजायै नमः मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ हिरण्य-स्रजायै नमः अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ हिरण्यायै नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्

दिग्-बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वरोम्” से दिग्-बन्धन करें ।


ध्यानः- 

या सा पद्मासनस्था विपुल-कटि-तटी पद्म-पत्रायताक्षी,
गम्भीरावर्त्त-नाभि-स्तन-भार-नमिता शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया ।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गन्ध-मणि-गण-खचितैः स्नापिता हेम-कुम्भैः,
नित्यं सा पद्म-हस्ता मम वसतु गृहे सर्व-मांगल्य-युक्ता ।।
अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः-पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैः
सकल-भुवन-माता ,सन्ततं श्रीः श्रियै नः।।


मानस-पूजनः- इस प्रकार ध्यान करके भगवती लक्ष्मी का मानस पूजन करें -


ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) । ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा)
कमला यन्त्र
सर्वतोभद्रमण्डलअब सर्व-देवोपयोगी पद्धति से अर्घ्य एवं पाद्य-आचमनीय आदि पात्रों की स्थापना करके पीठ-पूजन करें ।
‘सर्वतोभद्र-मण्डल′ आदि पर निम्न ‘पूजन-यन्त्र’ की स्थापना करके मण्डूकादि-पर-तत्त्वान्त देवताओं की पूजा करें । तत्पश्चात् पूर्वादि-क्रम से भगवती लक्ष्मी की पीठ-शक्तियों की अर्चना करें । यथा -


श्री विभूत्यै नमः, श्री उन्नत्यै नमः, श्री कान्त्यै नमः, श्री सृष्ट्यै नमः, श्री कीर्त्यै नमः, श्री सन्नत्यै नमः, श्री व्युष्ट्यै नमः, श्री उत्कृष्ट्यै नमः ।
मध्य में – ‘श्री ऋद्धयै नमः ।’
पुष्पाञ्जलि समर्पित कर मध्य में प्रसून-तूलिका की कल्पना करके - “श्री सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः” इस मन्त्र से समग्र ‘पीठ‘ का पूजन करे ।
‘सहस्रार’ में गुरुदेव का पूजन कर एवं उनसे आज्ञा लेकर पूर्व-वत् पुनः ‘षडंग-न्यास’ करे । भगवती लक्ष्मी का ध्यान कर पर-संवित्-स्वरुपिणी तेजो-मयी देवी लक्ष्मी को नासा-पुट से पुष्पाञ्जलि में लाकर आह्वान करे । यथा -
ॐ देवेशि ! भक्ति-सुलभे, परिवार-समन्विते !
तावत् त्वां पूजयिष्यामि, तावत् त्वं स्थिरा भव !
हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्य-मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।
श्री महा-लक्ष्मि ! इहागच्छ, इहागच्छ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्निधेहि, इह सन्निधेहि, इह सन्निरुध्वस्व, इह सन्निरुध्वस्व, इह सम्मुखी भव, इह अवगुण्ठिता भव !
आवाहनादि नव मुद्राएँ दिखाकर ‘अमृतीकरण’ एवं ‘परमीकरण’ करके – “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः प्राणाः । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः जीव इह स्थितः । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः वाङ्-मनो-चक्षु-श्रोत्र-घ्राण-प्राण-पदानि इहैवागत्य सुखं चिर तिष्ठन्तु स्वाहा ।।” इस प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र से लेलिहान-मुद्रा-पूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा करे ।
उक्त प्रकार आवाहनादि करके यथोपलब्ध द्रव्यों से भगवती की राजसी पूजा करे । यथा -


१॰ आसन -
ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! तुभ्यं पद्मासनं कल्पयामि नमः ।।
देवी के वाम भाग में कमल-पुष्प स्थापित करके ‘सिंहासन-मुद्रा’ और ‘पद्म-मुद्रा’ दिखाए ।
२॰ अर्घ्य-दान -
ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! एतत् ते अर्घ्यं कल्पयामि स्वाहा ।।
‘कमल-मुद्रा’ से भगवती के शिर पर अर्घ्य प्रदान करे ।
३॰ पाद्य -
ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! पाद्यं कल्पयामि नमः ।।
चरण-कमलों में ‘पाद्य’ समर्पित करके प्रणाम करे ।
४॰ आचमनीय -
ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै आचमनीयं कल्पयामि नमः ।।
मुख में आचमन प्रदान करके प्रणाम करे ।
५॰ मधु-पर्क -
ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।।
।। श्री महालक्ष्म्यै मधु-पर्क कल्पयामि स्वधा । पुनराचमनीयम् कल्पयामि ।।
पुनः आचमन समर्पित करें ।
६॰ स्नान (सुगन्धित द्रव्यों से उद्वर्तन करके स्नान कराए) -
ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै स्नानं कल्पयामि नमः ।।
‘स्नान’ कराकर केशादि मार्जन करने के बाद वस्त्र प्रदान करे । इसके पूर्व पुनः आचमन कराए ।
७॰ वस्त्र -
ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै वाससी परिकल्पयामि नमः ।।
पुनः आचमन कराए ।
८॰ आभूषण -
ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै सुवर्णानि भूषणानि कल्पयामि ।।
९॰ गन्ध -
ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै गन्धं समर्पयामि नमः ।।
१०॰ पुष्प -
ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै एतानि पुष्पाणि वौषट् ।।
११॰ धूप -
ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।।
ॐ वनस्पति-रसोद्-भूतः, गन्धाढ्यो गन्धः उत्तमः । आघ्रेयः सर्व-देवानां, धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै धूपं आघ्रापयामि नमः ।।
१२॰ दीप -
ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।।
ॐ सुप्रकाशो महा-दीपः, सर्वतः तिमिरापहः । स बाह्यान्तर-ज्योतिः, दीपोऽयं प्रति-गृह्यताम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै प्रदीपं दर्शयामि नमः ।।
दीपक दिखाकर प्रणाम करे । पुनः आचमन कराए ।


१३॰ नैवेद्य -
देवी के समक्ष ‘चतुरस्र-मण्डल′ बनाकर उस पर ‘त्रिपादिका-आधार’ स्थापित करे । षट्-रस व्यञ्जन-युक्त ‘नैवेद्य-पात्र’ उस आधार पर रखें । ‘वायु-बीज’ (यं) नैवेद्य के दोषों को सुखाकर, ‘अग्नि-बीज’ (रं) से उसका दहन करे । ‘सुधा-बीज’ (वं) से नैवेद्य का ‘अमृतीकरण’ करें । बाँएँ हाथ के अँगूठे से नैवेद्य-पात्र को स्पर्श करते हुए दाहिने हाथ में सुसंस्कृत अमृत-मय जल-पात्र लेकर ‘नैवेद्य’ समर्पित करें -


ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।
ॐ सत्पात्र-सिद्धं सुहविः, विविधानेक-भक्षणम् । नैवेद्यं निवेदयामि, सानुगाय गृहाण तत् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै नैवेद्यं निवेदयामि नमः ।।
चुलूकोदक (दाईं हथेली में जल) से ‘नैवेद्य’ समर्पित करें ।
दूसरे पात्र में अमृतीकरण जल लेकर “ॐ हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का पाठ करके – “श्री महा-लक्ष्म्यै अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा” । श्री महा-लक्ष्मि ! अपोशनं कल्पयामि स्वाहा ।
तत्पश्चात् “प्राणाय स्वाहा” आदि का उच्चारण करते हुए ‘पञ्च प्राण-मुद्राएँ’ दिखाएँ । “हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का दस बार पाठ करके समर्पित करें । फिर ‘उत्तरापोशन’ कराएँ । ‘नैवेद्य-मुद्रा’ दिखाकर प्रणाम करें । ‘नैवेद्य-पात्र’ को ईशान या उत्तर दिशा में रखें । नैवेद्य-स्थान को जल से साफ कर ताम्बूल प्रदान करें ।
१४॰ ताम्बूल -
ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्मि ! ऐं हं हं हं इदम् ताम्बूलं गृहाण, स्वाहा ।।
‘ताम्बूल′ देकर प्रणाम करें ।

आवरण-पूजा
पुरश्चरण-विधान

आवरण-पूजा
भगवती से उनके परिवार की अर्चना हेतु अनुमति माँग कर ‘आवरण-पूजा’ करे । यथा -
ॐ संविन्मयि ! परे देवि ! परामृत-रस-प्रिये ! अनुज्ञां देहि मे मातः ! परिवारार्चनाय ते ।।
प्रथम आवरण – केसरों में ‘षडंग-शक्तियों’ का पूजन करे -
१॰ हिरण्य-मय्यै नमः हृदयाय नमः । हृदय-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२॰ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा । शिरः-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३॰ रजत-स्रजायै नमः शिखायै वषट् । शिखा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४॰ हिरण्य-स्रजायै नमः कवचाय हुम् । कवच-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५॰ हिरण्यायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् । नेत्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६॰ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट् । अस्त्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
प्रथम आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, प्रथमावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
पुष्पाञ्जलि प्रदान करे ।

द्वितीय आवरण – पत्रों में पूर्व से प्रारम्भ करके वामावर्त-क्रम से ‘पद्मा, पद्म-वर्णा, पद्मस्था, आर्द्रा, तर्पयन्ती, तृप्ता, ज्वलन्ती’ एवं ‘स्वर्ण-प्राकारा’ का पूजन-तर्पण करे । यथा -
१॰ पद्मायै नमः । पद्मा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२॰ पद्म-वर्णायै नमः । पद्म-वर्णा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३॰ पद्मस्थायै नमः । पद्मस्था-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४॰ आर्द्रायै नमः । आर्द्रा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५॰ तर्पयन्त्यै नमः । तर्पयन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६॰ तृप्तायै नमः । तृप्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
७॰ ज्वलन्त्यै नमः । ज्वलन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
८॰ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
द्वितीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, द्वितीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
तृतीय आवरण – भू-पुर में इन्द्र आदि दिक्-पालों का पूजन-तर्पण करे । यथा -
लं इन्द्राय नमः – पूर्वे । रं अग्न्ये नमः – अग्नि कोणे । यं यमाय नमः – दक्षिणे । क्षं निऋतये नमः – नैऋत-कोणे । वं वरुणाय नमः – पश्चिमे । यं वायवे नमः – वायु-कोणे । सं सोमाय नमः – उत्तरे । हां ईशानाय नमः – ईशान-कोणे । आं ब्रह्मणे नमः – इन्द्र और ईशान के बीच । ह्रीं अनन्ताय नमः – वरुण और निऋति के बीच ।
तृतीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, तृतीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।

चतुर्थ आवरण - इन्द्रादि दिक्पालों के समीप ही उनके ‘वज्र’ आदि आयुधों का अर्चन करें । यथा -
ॐ वं वज्राय नमः, ॐ वज्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ शं शक्तये नमः, ॐ शक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ दं दण्डाय नमः, ॐ दण्ड-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ खं खड्गाय नमः, ॐ खड्ग-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ पां पाशाय नमः, ॐ पाश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ अं अंकुशाय नमः, ॐ अंकुश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ गं गदायै नमः, ॐ गदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ त्रिं त्रिशूलाय नमः, ॐ त्रिशूल-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ पं पद्माय नमः, ॐ पद्म-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ चं चक्राय नमः, ॐ चक्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
चतुर्थ आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, चतुर्थावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।

प्रथम ऋचा से कर्णिका में महा-देवी महा-लक्ष्मी का पुष्प-धूप-गन्ध, दीप और नैवेद्य आदि उपचारों से पुनः पूजन करें ।
तत्पश्वात् पूजा-यन्त्र में देवी के समक्ष गन्ध-पुष्प-अक्षत से भगवती के ३२ नामों से पूजन-तर्पण करें ।
१॰ ॐ श्रियै नमः । श्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२॰ ॐ लक्ष्म्यै नमः । लक्ष्मी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३॰ ॐ वरदायै नमः । वरदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
४॰ ॐ विष्णु-पत्न्यै नमः । विष्णु-पत्नी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
५॰ ॐ वसु-प्रदायै नमः । वसु-प्रदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
६॰ ॐ हिरण्य-रुपिण्यै नमः । हिरण्य-रुपिणी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
७॰ ॐ स्वर्ण-मालिन्यै नमः । स्वर्ण-मालिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
८॰ ॐ रजत-स्रजायै नमः । रजत-स्रजा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
९॰ ॐ स्वर्ण-गृहायै नमः । स्वर्ण-गृहा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१०॰ ॐ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
११॰ ॐ पद्म-वासिन्यै नमः । पद्म-वासिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१२॰ ॐ पद्म-हस्तायै नमः । पद्म-हस्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१३॰ ॐ पद्म-प्रियायै नमः । पद्म-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१४॰ ॐ मुक्तालंकारायै नमः । मुक्तालंकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१५॰ ॐ सूर्यायै नमः । सूर्या-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१६॰ ॐ चन्द्रायै नमः । चन्द्रा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१७॰ ॐ बिल्व-प्रियायै नमः । बिल्व-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१८॰ ॐ ईश्वर्यै नमः । ईश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१९॰ ॐ भुक्तयै नमः । भुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२०॰ ॐ प्रभुक्तयै नमः । प्रभुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२१॰ ॐ विभूत्यै नमः । विभूति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२२॰ ॐ ऋद्धयै नमः । ऋद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२३॰ ॐ समृद्धयै नमः । समृद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२४॰ ॐ तुष्टयै नमः । तुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२५॰ ॐ पुष्टयै नमः । पुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२६॰ ॐ धनदायै नमः । धनदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२७॰ ॐ धनेश्वर्यै नमः । धनेश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२८॰ ॐ श्रद्धायै नमः । श्रद्धा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२९॰ ॐ भोगिन्यै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३०॰ ॐ भोगदायै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३१॰ ॐ धात्र्यै नमः । धात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३२॰ ॐ विधात्र्यै नमः । विधात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।


उपर्युक्त ३२ नामों से भगवती के निमित्त हविष्य ‘बलि’ प्रदान करने का भी विधान है ।


श्री-सूक्त की पन्द्रह ऋचाओं से नीराजन और प्रदक्षिणा करके पुष्पाञ्जलि प्रदान करे । तदुपरान्त पुनः न्यास करके श्री-सूक्त का पाठ करे । ‘क्षमापन-स्तोत्र’ का पाठ करके पूजन और पाठ का फल भगवती को समर्पित करके विसर्जन करे ।


विशेषः- पुरश्चरण-काल में और बाद में भी प्रति-दिन सूर्योदय के समय जलाशय में स्नान करके सूर्य-मण्डलस्था भगवती महा-लक्ष्मी का उपर्युक्त ३२ नामों से तर्पण करना ‘श्री-सूक्त’ के साधकों के लिए आवश्यक है ।.. पुरश्चरण-विधान -


श्री-सूक्त का पुरश्चरण किसी भी प्रशस्त मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से एकादशी तक किए जाने का विधान है । पुरश्चरण के लिए १२ हजार पाठ किया जाना चाहिए । ‘प्रपञ्च-सार’ (पटल १२, श्लोक ४३) में भी कहा गया है – “एकादश्याम् परिसमाप्यार्क साहस्रिकान्तं” प्रतिपदा से एकादशी तक १२ हजार पाठ करना चाहिए ।


उक्त ११ दिनों में श्री-सूक्त की १२ हजार आवृतियाँ असम्भव और अशक्य है । इसकी व्याख्या करते हुए श्रीश्री विद्यार्णव-तन्त्र (२२/१८) में कहा गया है कि यहाँ १२ हजार जप का जो विधान है, उसका तात्पर्य सम्पूर्ण श्री-सूक्त की १२ हजार आवृत्तियाँ नहीं, अपितु श्री-सूक्त की १५ ऋचाओं की १२ हजार आवृत्तियों से है । सम्पूर्ण श्री-सूक्त का ८०० बार पाठ करने से १५ ऋचाओं की (800*15=12000) १२ हजार आवृत्तियाँ हो जाती है ।
श्री-सूक्त का ८०० पाठ करने की विधि इस तरह है -
पहले ८ दिनों तक प्रति-दिन ७३ पाठ करें, फिर ३ दिनों तक प्रति-दिन ७२ पाठ करें ।

हवन - द्वादशी को हवन और ब्राह्मण-भोजन कराएँ ।


हवन-सामग्री - १॰ त्रि-मधुर (घी, शहद, शर्करा) – प्लुत पद्म, २॰ बिल्व-समिध, ३॰ क्षीरान्न (खीर) और ४॰ सर्पिष । इन चारों द्रव्यों से पृथक्-पृथक् तीन-तीन सौ अर्थात् कुल १२०० आहुतियाँ प्रदान करके हवन करें ।
श्री-सूक्त की पन्द्रह ऋचाओं की २० आवृत्तियाँ करते हुए हवन करने से तीन सौ आहुतियाँ प्रत्येक द्रव्य की हो जाती है । इस तरह उपर्युक्त चार द्रव्यों से हवन करने के लिए श्री-सूक्त की बीस-बीस आवृत्तियों के क्रम से चार बार आवृत्ति करनी होगी । इस प्रकार हवन के लिए श्री-सूक्त की कुल 20 X 4 = 80 आवृत्तियाँ होगी ।
ब्राह्मण-भोजन - द्वादशी के दिन ही हवन के बाद १२ (बारह) सत्पात्र-सदाचारी-लक्ष्मी-भक्त ब्राह्मणों को भोजन कराएँ । गुरुदेव एवं ब्राह्मणों को यथा-शक्ति दक्षिणा देकर सन्तुष्ट करें ।

प्रयोगः-
१॰ श्री-सूक्त के १५ मन्त्रों और उपर्युक्त ३२ नामों से प्रति-दिन ‘घी’ से हवन करने पर ६ मास में भगवती लक्ष्मी की कृपा प्राप्त होती है ।
२॰ शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ करके प्रति-दिन “कांसोस्मीति॰” इस ऋचा का एक सौ आठ बार जप करके घी से ग्यारह बार हवन करें । इस प्रयोग से ६ मास में महती सम्पदा की प्राप्ति होती है ।
३॰ स्नान के समय श्री-सूक्त के मन्त्रों से जल-ग्रहण करे । उस जल को तीन बार अभिमन्त्रित करके उससे तीन बार अपना अभिषिञ्चन करे । फिर सूर्य की ओर मुँह करके तीन बार श्री-सूक्त का तीन बार जप करे । फिर तीन बार तर्पण करे । सूर्य-नारायण की पूजा करके हविष्यान्न से प्रतिदिन हवन करे । ६ मास में महती लक्ष्मी की प्राप्ति होती है ।
४॰ प्रत्येक शुक्रवार को १०८ अधखिले कमल लाकर उनमें नवनीत (मक्खन) भरे । अन्तिम ऋचा का पाठ करते हुए इन कमलों से हवन करे । ४४ शुक्रवार तक यह प्रयोग करने से चञ्चला लक्ष्मी अचञ्चला हो जाती है ।
विधि-निषेध – पुरश्चरण/ प्रयोग-काल में साधक शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण करे । शरीर पर हल्दी का लेप न लगाए । द्रोण पुष्प, कमल, बिल्व-पुष्प धारण न करे । नग्न होकर जल में प्रवेश न करे । शुद्ध शय्या पर शयन करे । उच्छिष्ट मुँह और तेल लगाकर जप/पूजा न करे । नीच व्यक्तियों का स्पर्श/सम्पर्क न करे ।.........





सर्वारिष्ट निवारण  स्त्रोत 
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ॐ गं गणपतये नमः । सर्व-विघ्न-विनाशनाय, सर्वारिष्ट निवारणाय, सर्व-सौख्य-प्रदाय, बालानां बुद्धि-प्रदाय, नाना-प्रकार-धन-वाहन-भूमि-प्रदाय, मनोवांछित-फल-प्रदाय रक्षां कुरू कुरू स्वाहा ।।
ॐ गुरवे नमः, ॐ श्रीकृष्णाय नमः, ॐ बलभद्राय नमः, ॐ श्रीरामाय नमः, ॐ हनुमते नमः, ॐ शिवाय नमः, ॐ जगन्नाथाय नमः, ॐ बदरीनारायणाय नमः, ॐ श्री दुर्गा-देव्यै नमः ।।
ॐ सूर्याय नमः, ॐ चन्द्राय नमः, ॐ भौमाय नमः, ॐ बुधाय नमः, ॐ गुरवे नमः, ॐ भृगवे नमः, ॐ शनिश्चराय नमः, ॐ राहवे नमः, ॐ पुच्छानयकाय नमः, ॐ नव-ग्रह ! रक्षां कुरू कुरू नमः ।।
ॐ मन्येवरं हरिहरादय एव दृष्ट्वा द्रष्टेषु येषु हृदयस्थं त्वयं तोषमेति विविक्षते न भवता भुवि येन नान्य कश्विन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि । ॐ नमो मणिभद्रे ! जय-विजय-पराजिते ! भद्रे ! लभ्यं कुरू कुरू स्वाहा ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्-सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।। सर्व विघ्नं शांन्तं कुरू कुरू स्वाहा ।।

ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय महान्-श्याम-स्वरूपाय दीर्घारिष्ट-विनाशाय नाना-प्रकार-भोग-प्रदाय मम (यजमानस्य वा) सर्वारिष्टं हन हन, पच पच, हर हर, कच कच, राज-द्वारे जयं कुरू कुरू, व्यवहारे लाभं वृद्धिं वृद्धिं, रणे शत्रुन् विनाशय विनाशय, पूर्णा आयुः कुरू कुरू, स्त्री-प्राप्तिं कुरू कुरू, हुम् फट् स्वाहा ।।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः । ॐ नमो भगवते, विश्व-मूर्तये, नारायणाय, श्रीपुरूषोत्तमाय । रक्ष रक्ष, युग्मदधिकं प्रत्यक्षं परोक्षं वा अजीर्णं पच पच, विश्व-मूर्तिकान् हन हन, ऐकाह्निकं द्वाह्निकं त्राह्निकं चतुरह्निकं ज्वरं नाशय नाशय, चतुरग्नि वातान् अष्टादश-क्षयान् रोगान्, अष्टादश-कुष्ठान् हन हन, सर्व दोषं भञ्जय-भञ्जय, तत्-सर्वं नाशय-नाशय, शोषय-शोषय, आकर्षय-आकर्षय, मम शत्रुं मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, स्तम्भय-स्तम्भय, निवारय-निवारय, विघ्नं हन-हन, दह-दह, पच-पच, मथ-मथ, विध्वंसय-विध्वंसय, विद्रावय-विद्रावय, चक्रं गृहीत्वा शीघ्रमागच्छागच्छ, चक्रेण हन-हन, पर-विद्यां छेदय-छेदय, चौरासी-चेटकान् विस्फोटान् नाशय-नाशय, वात-शुष्क-दृष्टि-सर्प-सिंह-व्याघ्र-द्विपद-चतुष्पद अपरे बाह्यं ताराभिः भव्यन्तरिक्षं अन्यान्य-व्यापि-केचिद् देश-काल-स्थान सर्वान् हन हन, विद्युन्मेघ-नदी-पर्वत, अष्ट-व्याधि, सर्व-स्थानानि, रात्रि-दिनं, चौरान् वशय-वशय, सर्वोपद्रव-नाशनाय, पर-सैन्यं विदारय-विदारय, पर-चक्रं निवारय-निवारय, दह दह, रक्षां कुरू कुरू, ॐ नमो भगवते, ॐ नमो नारायणाय, हुं फट् स्वाहा ।।
ठः ठः ॐ ह्रीं ह्रीं । ॐ ह्रीं क्लीं भुवनेश्वर्याः श्रीं ॐ भैरवाय नमः । हरि ॐ उच्छिष्ट-देव्यै नमः । डाकिनी-सुमुखी-देव्यै, महा-पिशाचिनी ॐ ऐं ठः ठः । ॐ चक्रिण्या अहं रक्षां कुरू कुरू, सर्व-व्याधि-हरणी-देव्यै नमो नमः । सर्व-प्रकार-बाधा-शमनमरिष्ट-निवारणं कुरू कुरू फट् । श्रीं ॐ कुब्जिका देव्यै ह्रीं ठः स्वाहा ।।
शीघ्रमरिष्ट-निवारणं कुरू-कुरू शाम्बरी क्रीं ठः स्वाहा ।।
शारिका-भेदा महा-माया पूर्णं आयुः कुरू । हेमवती मूलं रक्षा कुरू । चामुण्डायै देव्यै शीघ्रं विध्नं सर्वं वायु-कफ-पित्त-रक्षां कुरू । मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र-कवच-ग्रह-पीडा नडतर, पूर्व-जन्म-दोष नडतर, यस्य जन्म-दोष नडतर, मातृ-दोष नडतर, पितृ-दोष नडतर, मारण-मोहन-उच्चाटन-वशीकरण-स्तम्भन-उन्मूलनं भूत-प्रेत-पिशाच-जात-जादू-टोना-शमनं कुरू । सन्ति सरस्वत्यै कण्ठिका-देव्यै गल-विस्फोटकायै विक्षिप्त-शमनं महान् ज्वर-क्षयं कुरू स्वाहा ।।

सर्व-सामग्री-भोगं सप्त-दिवसं देहि-देहि, रक्षां कुरू, क्षण-क्षण अरिष्ट-निवारणं, दिवस-प्रति-दिवस दुःख-हरणं मंगल-करणं कार्य-सिद्धिं कुरू कुरू । हरि ॐ श्रीरामचन्द्राय नमः । हरि ॐ भूर्भुवः स्वः चन्द्र-तारा-नव-ग्रह-शेष-नाग-पृथ्वी-देव्यै आकाशस्य सर्वारिष्ट-निवारणं कुरू कुरू स्वाहा ।।
१॰ ॐ ऐं ह्रीं श्रीं बटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व-विघ्न-निवारणाय मम रक्षां कुरू-कुरू स्वाहा।।
२॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीवासुदेवाय नमः, बटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय मम रक्षां कुरू-कुरू स्वाहा।।
३॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीविष्णु-भगवान् मम अपराध-क्षमा कुरू कुरू, सर्व-विघ्नं विनाशय, मम कामना पूर्णं कुरू कुरू स्वाहा ।।
४॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीबटुक-भैरवाय आपदुद्धारणाय सर्व-विघ्न-निवारणाय मम रक्षां कुरू कुरू स्वाहा ।।
५॰ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ॐ श्रीदुर्गा-देवी रूद्राणी-सहिता, रूद्र-देवता काल-भैरव सह, बटुक-भैरवाय, हनुमान सह मकर-ध्वजाय, आपदुद्धारणाय मम सर्व-दोष-क्षमाय कुरू कुरू सकल विघ्न-विनाशाय मम शुभ-मांगलिक-कार्य-सिद्धिं कुरू-कुरू स्वाहा।।

एष विद्या-माहात्म्यं च, पुरा मया प्रोक्तं ध्रुवं । शम-क्रतो तु हन्त्येतान्, सर्वांश्च बलि-दानवाः।।१
य पुमान् पठते नित्यं, एतत् स्तोत्रं नित्यात्मना । तस्य सर्वान् हि सन्ति, यत्र दृष्टि-गतं विषं ।।२
अन्य दृष्टि-विषं चैव, न देयं संक्रमे ध्रुवम् । संग्रामे धारयेत्यम्बे, उत्पाता च विसंशयः ।।३
सौभाग्यं जायते तस्य, परमं नात्र संशयः । द्रुतं सद्यं जयस्तस्य, विघ्नस्तस्य न जायते।।४
किमत्र बहुनोक्तेन, सर्व-सौभाग्य-सम्पदा। लभते नात्र सन्देहो, नान्यथा वचनं भवेत् ।।५
ग्रहीतो यदि वा यत्नं, बालानां विविधैरपि । शीतं समुष्णतां याति, उष्णः शीत-मयो भवेत् ।।६
नान्यथा श्रुतये विद्या, पठति कथितं मया । भोज-पत्रे लिखेद् यन्त्रं, गोरोचन-मयेन च ।।७
इमां विद्यां शिरो बध्वा, सर्व-रक्षा करोतु मे । पुरूषस्याथवा नारी, हस्ते बध्वा विचक्षणः ।।८
विद्रवन्ति प्रणश्यन्ति, धर्मस्तिष्ठति नित्यशः । सर्व-शत्रुरधो यान्ति, शीघ्रं ते च पलायनम् ।।९
‘श्रीभृगु संहिता’ के सर्वारिष्ट निवारण खण्ड में इस अनुभूत स्तोत्र के 40 पाठ करने की विधि बताई गई है। इस पाठ से सभी बाधाओं का निवारण होता है। इस पाठ के फल-स्वरुप पुत्र-हीन को पुत्र-प्राप्ति होती है और जिसका विवाह नहीं हो रहा हो, उसका विवाह हो जाता है । इसके अतिरिक्त इस स्तोत्र के पाठ के प्रभाव से सभी प्रकार के दोषों – ज्वर, क्षय, कुष्ठ, वात-पित्त-कफ की पीड़ाओं और भुतादिक सभी बाधाओं का निवारण होता है ।
इस स्तोत्र का पाठ यदि स्वयं अपने लिए करना हो, तो ‘मम’ या ‘मम स-कुटुम्बस्य’ का उच्चारण करे और यदि किसी अन्य (यजमान) के लिए पाठ करना हो तो स्तोत्र में जहाँ ‘यजमान’ -शब्द लिखा है, वहाँ उसके नाम, गोत्रादि का उच्चारण करना चाहिए ।

किसी भी देवता या देवी की प्रतिमा या यन्त्र के सामने बैठकर धूप दीपादि से पूजन कर इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये । विशेष लाभ के लिये ‘स्वाहा’ और ‘नमः’ का उच्चारण करते हुए ‘घृत मिश्रित गुग्गुल’ से आहुतियाँ दे सकते हैं । ऐसा करने से अभीष्ट कामना की पूर्ति शीघ्र और अवश्य होती है । इसके पाठ से निर्धन को धन और बेकार को जीविका का साधन – नौकरी, व्यापार आदि की सुविधा प्राप्त होती है ।

यन्त्रः- इस सर्वारिष्ट-निवारण-यन्त्र को लिखने के लिए गोरोचन, कुंकुम या चन्दन और कर्पूर उपयोग में लें । “रवि-पुष्य”, “गुरु-पुष्य” या अन्य शुभ दिवस पर लिखकर सफेद धागे से लपेटें तथा रेशमी वस्त्र से आच्छादित करें । विधिवत् पूजन हेतु कलश स्थापित करें । गन्ध, पुष्प, नैवेद्य, धूप, दीपादि से पूजन करें और फिर चाँदी के ताबीज में भरकर धारण करें अथवा इसको समक्ष रखकर उक्त स्तोत्र का नित्य पाठ करें ।