Tuesday, December 24, 2013

सिद्धि - कुन्जिका स्त्रोत  एवं  बीसा - यन्त्र  का अनुभूत 
प्रयोग ......................
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प्राण-प्रतिष्ठा करने के पर्व
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चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, दीपावली के तीन दिन (धन तेरस, चर्तुदशी, अमावस्या), रवि-पुष्य योग, रवि-मूल योग तथा महानवमी के दिन ‘रजत-यन्त्र’ की प्राण प्रतिष्ठा, पूजादि विधान करें। इनमे से जो समय आपको मिले, साधना प्रारम्भ करें। 41 दिन तक विधि-पूर्वक पूजादि करने से सिद्धि होती है। 42 वें दिन नहा-धोकर अष्टगन्ध (चन्दन, अगर, केशर, कुंकुम, गोरोचन, शिलारस, जटामांसी तथा कपूर) से स्वच्छ 41 यन्त्र बनाएँ। पहला यन्त्र अपने गले में धारण करें। बाकी आवश्यकतानुसार बाँट दें।

प्राण-प्रतिष्ठा विधि
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सर्व-प्रथम किसी स्वर्णकार से 15 ग्राम का तीन इंच का चौकोर चाँदी का पत्र (यन्त्र) बनवाएँ। अनुष्ठान प्रारम्भ करने के दिन ब्राह्म-मुहूर्त्त में उठकर, स्नान करके सफेद धोती-कुरता पहनें। कुशा का आसन बिछाकर उसके ऊपर मृग-छाला बिछाएँ। यदि मृग छाला न मिले, तो कम्बल बिछाएँ, उसके ऊपर पूर्व को मुख कर बैठ जाएँ।
अपने सामने लकड़ी का पाटा रखें। पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक थाली (स्टील की नहीं) रखें। थाली में पहले से बनवाए हुए चौकोर रजत-पत्र को रखें। रजत-पत्र पर अष्ट-गन्ध की स्याही से अनार या बिल्व-वृक्ष की टहनी की लेखनी के द्वारा ‘यन्त्र लिखें।
पहले यन्त्र की रेखाएँ बनाएँ। रेखाएँ बनाकर बीच में ॐ लिखें। फिर मध्य में क्रमानुसार 7, 2, 3 व 8 लिखें। इसके बाद पहले खाने में 1, दूसरे में 9, तीसरे में 10, चैथे में 14, छठे में 6, सावें में 5, आठवें में 11 नवें में 4 लिखें। फिर यन्त्र के ऊपरी भाग पर ‘ॐ ऐं ॐ’ लिखें। तब यन्त्र की निचली तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें। यन्त्र के उत्तर तरफ ‘ॐ श्रीं ॐ’ तथा दक्षिण की तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें।
प्राण-प्रतिष्ठा
==========अब ‘यन्त्र’ की प्राण-प्रतिष्ठा करें। यथा- बाँयाँ हाथ हृदय पर रखें और दाएँ हाथ में पुष्प लेकर उससे ‘यन्त्र’ को छुएँ और निम्न प्राण-प्रतिष्ठा मन्त्र को पढ़े -
“ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम प्राणाः इह प्राणाः, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम सर्व इन्द्रियाणि इह सर्व इन्द्रयाणि, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम वाङ्-मनश्चक्षु-श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राण इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।”
‘यन्त्र’ पूजन
===========इसके बाद ‘रजत-यन्त्र’ के नीचे थाली पर एक पुष्प आसन के रूप में रखकर ‘यन्त्र’ को साक्षात् भगवती चण्डी स्वरूप मानकर पाद्यादि उपचारों से उनकी पूजा करें। प्रत्येक उपचार के साथ ‘समर्पयामि चन्डी यन्त्रे नमः’ वाक्य का उच्चारण करें। यथा-
1. पाद्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 2. अध्र्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 3. आचमनं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 4. गंगाजलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 5. दुग्धं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 6. घृतं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 7. तरू-पुष्पं (शहद) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 8. इक्षु-क्षारं (चीनी) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 9. पंचामृतं (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 10. गन्धम् (चन्दन) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 11. अक्षतान् समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 12 पुष्प-माला समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 13. मिष्ठान्न-द्रव्यं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 14. धूपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 15. दीपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 16. पूगी फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 17 फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 18. दक्षिणा समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 19. आरतीं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।
तदन्तर यन्त्र पर पुष्प चढ़ाकर निम्न मन्त्र बोलें-
पुष्पे देवा प्रसीदन्ति, पुष्पे देवाश्च संस्थिताः।।
अब ‘सिद्ध कुंजिका स्तोत्र’ का पाठ कर यन्त्र को जागृत करें। यथा-
।।शिव उवाच।।
============श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।।
न कवचं नार्गला-स्तोत्रं, कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वार्चनम्।।
कुंजिका पाठ मात्रेण, दुर्गा पाठ फलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि ! देवानामपि दुलर्भम्।।
मारणं मोहनं वष्यं स्तम्भनोव्च्चाटनादिकम्।
पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।।

मन्त्र – ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।

नमस्ते रूद्र रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमः कैटभ हारिण्यै, नमस्ते महिषार्दिनि।।1
नमस्ते शुम्भ हन्त्र्यै च, निशुम्भासुर घातिनि।
जाग्रतं हि महादेवि जप ! सिद्धिं कुरूष्व मे।।2
ऐं-कारी सृष्टि-रूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी काल-रूपिण्यै, बीजरूपे नमोऽस्तु ते।।3
चामुण्डा चण्डघाती च, यैकारी वरदायिनी।
विच्चे नोऽभयदा नित्यं, नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।4
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः, वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं में शुभं कुरू, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।5
ॐॐॐ कार-रूपायै, ज्रां ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि ! शां शीं शूं में शुभं कुरू।।6
ह्रूं ह्रूं ह्रूंकार रूपिण्यै, ज्रं ज्रं ज्रम्भाल नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवानि ते नमो नमः।।7
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव।
आविर्भव हं सं लं क्षं मयि जाग्रय जाग्रय
त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरू कुरू स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुंजिकायै नमो नमः।
सां सीं सप्तशती सिद्धिं, कुरूश्व जप-मात्रतः।।9
।।फल श्रुति।।
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इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।।
यस्तु कुंजिकया देवि ! हीनां सप्तशती पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।
फिर यन्त्र की तीन बार प्रदक्षिणा करते हुए यह मन्त्र बोलें-
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर-कृतानि च।
तानि तानि प्रणश्यन्ति, प्रदक्षिणं पदे पदे।।
प्रदक्षिणा करने के बाद यन्त्र को पुनः नमस्कार करते हुए यह मन्त्र पढ़े-
एतस्यास्त्वं प्रसादन, सर्व मान्यो भविष्यसि।
सर्व रूप मयी देवी, सर्वदेवीमयं जगत्।।
अतोऽहं विश्वरूपां तां, नमामि परमेश्वरीम्।।
अन्त में हाथ जोड़कर क्षमा-प्रार्थना करें। यथा-

अपराध सहस्त्राणि, क्रियन्तेऽहर्निषं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वरि।।
आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वरि।।
मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वरि !
यत् पूजितम् मया देवि ! परिपूर्णं तदस्तु मे।।
अपराध शतं कृत्वा, जगदम्बेति चोच्चरेत्।
या गतिः समवाप्नोति, न तां ब्रह्मादयः सुराः।।
सापराधोऽस्मि शरणं, प्राप्यस्त्वां जगदम्बिके !
इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरू।।
अज्ञानाद् विस्मृतेर्भ्रान्त्या, यन्न्यूनमधिकं कृतम्।
तत् सर्वं क्षम्यतां देवि ! प्रसीद परमेश्वरि !
कामेश्वरि जगन्मातः, सच्चिदानन्द-विग्रहे !
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वरि !
गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गुहाणास्मत् कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरि।।

Saturday, December 21, 2013

नव ग्रहों  के  वेदोक्त  मंत्र :-
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सूर्य : ॐ आकृष्णेन रजसा वर्त्तमानो निवेशयन्नमृतं मतर्य च
हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन॥
इदं सूर्याय न मम॥

चन्द्र : ॐ इमं देवाSसपत् न ग्वं सुवध्वम् महते क्षत्राय महते ज्येष्ठयाय
महते जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय इमममुष्य पुत्रमुष्यै पुत्रमस्यै विश एष
वोSमी राजा सोमोSस्माकं ब्राह्मणानां ग्वं राजा॥ इदं चन्द्रमसे न मम॥

मंगल : ॐ अग्निमूर्द्धा दिव: ककुपति: पृथिव्या अयम्।
अपा ग्वं रेता ग्वं सि जिन्वति। इदं भौमाय, इदं न मम॥

बुध : ॐ उदबुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहित्वमिष्टापूर्ते स ग्वं सृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत॥
इदं बुधाय, इदं न मम॥

गुरू : ॐ बृहस्पते अति यदर्यो अहार्द् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु।
यददीदयच्छवस ॠतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम॥
इदं बृहस्पतये, इदं न मम॥

शुक्र : ॐ अन्नात् परिस्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत् क्षत्रं पय:।
सोमं प्रजापति: ॠतेन सत्यमिन्द्रियं पिवानं ग्वं
शुक्रमन्धसSइन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोSमृतं मधु॥ इदं शुक्राय, न मम।

शनि : ॐ शन्नो देविरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।
शंय्योरभिस्त्रवन्तु न:। इदं शनैश्चराय, इदं न मम॥

राहु : ॐ कयानश्चित्र आ भुवद्वती सदा वृध: सखा।
कया शचिंष्ठया वृता॥ इदं राहवे, इदं न मम॥

केतु : ॐ केतुं कृण्वन्न केतवे पेशो मर्या अपेशसे।
समुषदभिरजा यथा:। इदं केतवे, इदं न मम॥.



नयना देवी  मंदिर 

मान्यता है कि इसी जगह देवी सती के नयन गिरे थे। इसी वजह से यहां का नाम नयना देवी पड़ा। नयना देवी मंदिर शिवालिक श्रेणी की पहाडि़यों पर स्थित माता का विशाल और भव्य मंदिर है। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में है। यह  देवी के 51 शक्ति पीठों में शामिल है…
नयना देवी हिंदुओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। यहां साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। मान्यता है कि इसी जगह देवी सती के नयन गिर थे। इसी वजह से यहां का नाम नयना देवी पड़ा। नयना देवी मंदिर शिवालिक श्रेणी की पहाडि़यों पर स्थित माता का विशाल और भव्य मंदिर है। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में है। यह देवी के 51 शक्ति पीठों में शामिल है। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 11 हजार मीटर है। मंदिर में लगा पुराना पीपल का पेड़ दर्शकों की श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र है। मंदिर के मेन गेट के दाईं तरफ भगवान गणेश और हनुमान की मूर्ति है, मेन गेट को पार करते ही दो शेर की मूर्तियां है, इन्हें माता के वाहन के तौर पर समझा जाता है। मंदिर में मुख्य रूप से तीन मूर्तियां हैं, दाईं तरफ  माता काली की, मध्य में नयना देवी की और बाईं ओर भगवान गणेश की प्रतिमा है। मंदिर से कुछ दूरी पर पवित्र तालाब है। मंदिर के पास एक गुफा भी है जिसे नयना देवी गुफा के नाम से जाना जाता है।
संबंधित कथाः नयना देवी मंदिर शक्ति पीठ मंदिरों में से एक है। भारत में कुल 51 शक्तिपीठ है। इन सभी की उत्पत्ति कथा एक ही है,ये सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुए हैं। कथाओं के अनुसार इन सभी जगहों पर देवी के अंग गिरे थे। शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया, सती बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गई। वहां शिव के लिए अपमानजनक बातें सती सहन न कर सकीं और हवन कुंड में कूद गईं। सती के आत्मदाह का पता भगवान शिव को लगा तो उन्होंने वीरभद्र को यज्ञ का विध्वंस करने के लिए भेजा, जिसने संपूर्ण यज्ञ को तहस-नहस करके राजा दक्ष का शीश काट डाला। देवताओं ने महादेव की स्तुति करके उन्हें शांत किया और दक्ष को बकरे का सिर लगा कर पुनः जीवित कर दिया जिससे यज्ञ संपूर्ण हो सका। जब भगवान शंकर को इसका पता चला तो वो वहां आए और सती के शरीर को हवन कुंड से निकाल कर तांडव करने लगे, इस वजह से सारे ब्रह्मांड में हाहाकार मच गया। ब्रह्मांड को संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में बांट दिया, इसके बाद सती के जो अंग जहां गिरे वो शक्ति पीठ बन गए। माना जाता है कि नयना देवी में माता सती के नयन गिरे थे। नयना देवी मंदिर में नवरात्र का त्योहार बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। नवरात्र में यहां विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। श्रावण अष्टमी को भी यहां भव्य मेले का आयोजन किया जाता है।


Friday, December 20, 2013

शाबर  मंत्र  :-----

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भगवान् शिव ने सभी मंत्रो को कीलित कर दिया पर साबर मन्त्र कीलित नहीं है ! साबर मन्त्र कलयुग में अमृत स्वरुप है ! साबर मंत्रो को सिद्ध करना बड़ा ही सरल है न लम्बे विधि विधान की आवश्यकता और न ही करन्यास और अंगन्यास जैसी जटिल क्रियाए ! इतने सरल होने पर भी कई बार साबर मंत्रो का पूर्ण प्रभाव नहीं मिलता क्योंकि साबर मन्त्र सुप्त हो जाते है ऐसे में इन मंत्रो को एक विशेष क्रिया द्वारा जगाया जाता है !

साबर मंत्रो के सुप्त होने के मुख्य कारण -
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१. यदि सभा में साबर मन्त्र बोल दिए जाये तो साबर मन्त्र अपना प्रभाव छोड़ देते है !
२.यदि किसी किताब से उठाकर मन्त्र जपना शुरू कर दे तो भी साबर मन्त्र अपना पूर्ण प्रभाव नहीं देते !
३.साबर मन्त्र अशुद्ध होते है इनके शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता क्योंकि यह ग्रामीण भाषा में होते है यदि इन्हें शुद्ध कर दिया जाये तो यह अपना प्रभाव छोड़ देते है !
४.प्रदर्शन के लिए यदि इनका प्रयोग किया जाये तो यह अपना प्रभाव छोड़ देते है !
५.यदि केवल आजमाइश के लिए इन मंत्रो का जप किया जाये तो यह मन्त्र अपना पूर्ण प्रभाव नहीं देते !

ऐसे और भी अनेक कारण है ! उचित यही रहता है कि साबर मंत्रो को गुरुमुख से प्राप्त करे क्योंकि गुरु साक्षात शिव होते है और साबर मंत्रो के जन्मदाता स्वयं शिव है ! शिव के मुख से निकले मन्त्र असफल हो ही नहीं सकते !
आपकी  जन्म  तिथि  और समय  आपके  हाथ  में 

* कभी कभी किसी कारणवश जन्म तारीख और दिन माह वार आदि का पता नही होता है,कितनी ही कोशिशि की जावे लेकिन जन्म तारीख का पता नही चल पाता है,जातक को सिवाय भटकने के और कुछ नही प्राप्त होता है,किसी ज्योतिषी से अगर अपनी जन्म तारीख निकलवायी भी जावे तो वह क्या कहेगा,इसका भी पता नही होता है,इस कारण के निवारण के लिये आपको कहीं और जाने की जरूरत नही है,किसी भी दिन उजाले में बैठकर एक सूक्षम दर्शी सीसा लेकर बैठ जावें,और अपने दोनो हाथों बताये गये नियमों के अनुसार देखना चालू कर दें,साथ में एक पेन या पैंसिल और कागज भी रख लें,तो देखें कि किस प्रकार से अपना हाथ जन्म तारीख को बताता है। लालकिताब से दो प्रकार की जन्म कुन्डलियां बनाई जाती है,एक हाथ की रेखाओं के द्वारा,और दूसरी ज्योतिष शास्त्र के द्वारा बनी हुई जन्म कुन्डली का संशोधन करके,इन दोनो प्रकार से कुन्डली को बनाकर जब फ़लकथन निकाला जाता है,तो सफ़ल कथन कहलाता है,इसके पहले हाथ और जन्म तारीख से कुन्डली बनाने के प्रति कुछ जानकारियां भी चाहिये होती है,जैसे कि वर्तमान की परेशानियां पिछले जीवन में अच्छी और खराब दोनो प्रकार की घटी हुई घटनाये,जो तारीख और समय के साथ याद हों,आदि की जानकारी के बाद फ़लकथन किया जाता है,और जो भी उपाय होते है,उनको दिया जाता है,उपाय सभी जातक के द्वारा करने होते है. हाथ की रेखाओं के द्वारा जन्म कुन्डली बनाना 

* जब इन्सान जन्म लेता है,तो वह अपने जीवन का नक्सा लेकर पैदा होता है,और जो भी उसका भाग्य होता है,वह बन्द मुट्ठी के अन्दर होता है,जब जमीन पर इन्सान का आना होता है,तो वह अपनी मुट्ठियों को एक दम नही खोलता है,जमाने की हवा लगने के बाद और समय के परिवर्तन के बाद ही हाथ खुलते है,जब हाथ पूरी तरह से विकसित हो जाता है,तो विकसित हाथ के आधार को लेकर जन्म कुन्डली बनाई जाती है,लालकिताब के द्वारा ही यह सम्भव है,अन्य दुनिया की कोई भी प्रथा लालकिताब के अनुसार काम नही करती है,हाथ पर अंगूठे और उंगलियों की जडों में बने पर्वत,जैसे अंगूठे के नीचे बना शुक्र और मंगल का पर्वत,पहली उंगली के नीचे बना गुरु का पर्वत,बीच की उंगली के नीचे बना शनि पर्वत,अलामिका के नीचे जिसे अंग्रेजी में रिंग फ़िन्गर कहते है,के नीचे बना सूर्य पर्वत,सबसे छोटी उंगली के नीचे बना बुध पर्वत,और हाथ के अन्त में बना चन्द्र पर्वत और बद मंगल का पर्वत जीवन रेखा के समाप्ति स्थान पर बना राहु पर्वत,हाथ में ग्रहों की स्थिति बताते है,राशियों के लिये तर्जनी का प्रथम पोर मेष राशि का होता है,दूसरा वृष राशि का होता है,तीसरा मिथुन राशि का होता है,अनामिका का प्रथम पोर कर्क राशि का माना जाता है,दूसरा पोर सिंह राशि का माना जाता है,तीसरा पोर कन्या राशि का माना जाता है,बीच की उंगली का प्रथम पोर तुला राशि का माना जाता है,दूसरा पोर वृश्चिक राशि का माना जाता है,तीसरा पोर धनु राशि का माना जाता है,सबसे छोटी उंगली का प्रथम पोर मकर राशि का माना जाता है,दूसरा पोर कुम्भ राशि का माना जाता है,और तीसरा पोर मीन राशि का माना जाता है.जातक की हथेली पर बारह भाव अलग अलग प्रकार से होते है,पहला भाव सूर्य पर्वत के पास,दूसरा भाव गुरु पर्वत के पास,तीसरा भाव अंगूठे के और तर्जनी उन्गली की बीच वाली सन्धि में,चौथा भाव सबसे छोटी उन्गली के सामने हथेली के आखिर में,पांचवा भाव बुध और चन्द्र पर्वत के बीच में छठा भाव हथेली के बिलकुल बीच में,और सातवां भाव बुध पर्वत के नीचे,आठवां भाव चन्द्र पर्वत के नीचे,नवां भाव शुक्र और चन्द्र पर्वत की बीच में,दसवां भाव शनि पर्वत के नीचे,और ग्यारहवां भाव बद मंगल और हथेली के बीच में,बारहवा भाव शुक्र पर्वत और हथेली बीच में जीवन रेखा के नीचे लिखा होता है.हाथ के अन्दर बने अन्य निशानों में सूर्य का निसान सूर्य की तरह से होता है,चन्द्र का निशान चन्द्र और तारा की तरह से होता है,मंगल नेक का निशान चौकोर चतुर्भुज के आकार का होता है,बद मंगल का निशान त्रिकोण के रूप में होता है,बुध का निशान बिलकुल गोल आकृति का होता है,गुरु का निसान एक पताका की तरह से होता है,शुक्र का निशान समान्तर में बनी दो लहराती हुई रेखाऒ से देखा जाता है,शनि का निशान धन के आकार का होता है,राहु का निशान एक आडी तिरछी रेखाऒ के द्वारा बना हुआ जाल सा होता है,और केतु का निशान लम्बी रेखा के नीचे एक अर्धवृत के द्वारा पहिचाना जाता है. ज्योतिषी पद्धति से बनी जन्म कुन्डली को लालकिताब के अनुसार बनाना 

* लालकिताब में राशियों को नही माना जाता है,केवल भावों को ही माना जाता है,ज्योतिष पद्धति से बनी कुन्डली को सामने रखकर उसकी राशियों को मिटा देते है,ग्रह जहां है,वही पर रखा रहने देते है,लगन में एक नम्बर लिख देते है,और फ़िर बायीं तरफ़ के लिये दो और तीन इस प्रकार से लिखते चले जाते है,अथवा इस प्रकार कहिये कि कुन्डली को मेष राशि की लगन वाली बना देते है,लेकिन ग्रहों को वही का वही रहने देते है,फ़िर कारकों को और स्वामी ग्रहों को अपने अनुसार बनाकर लिख लेते है,पहले भाव का स्वामी ग्रह मंगल होता है,और कारक ग्रह सूर्य होता है,दूसरे भाव का स्वामी ग्रह शुक्र होता है,और कारक ग्रह गुरु होता है,तीसरे भाव का स्वामी ग्रह बुध होता है,और कारक ग्रह मंगल होता है,चौथे भाव का स्वामी ग्रह चन्द्र होता है और कारक ग्रह भी चन्द्र ही होता है,पाचवें भाव का स्वामी ग्रह सूर्य होता है,और कारक ग्रह गुरु होता है,छठे भाव का स्वामी ग्रह बुध होता है,और कारक ग्रह केतु होता है,सातवें का स्वामी शुक्र होता है,और कारक ग्रह शुक्र और बुध दोनो होते है,आठवें भाव का स्वामी ग्रह मंगल होता है,और कारक ग्रह शनि मंगल और चन्द्र होते है,दसवें भाव का स्वामी ग्रह भी शनि होता है,और कारक भी शनि होता हओ,ग्यारहवें भाव का स्वामी शनि होता है,लेकिन कारक गुरु होता है,बारहवें भाव का स्वामी गुरु होता है,लेकिन कारक राहु होता है.इस प्रकार से कुन्डली का निर्माण कर लेते है,और इसका भली भांति हाथ के बनायी कुन्डली से मिलाकर विचार करते है
गोमती  चक्र  के प्रयोग :-


= गोमती चक्र . . गोमती नदीं में पाया जाने वाला अल्पमोली कैल्शियम व पत्थर मिश्रित होते है . इनके एक तरफ उठी हुयी सतह होती है, और दूसरी तरफ कुछ चक्र होते है . . इन चक्रों को लक्ष्मी जी का प्रतीक माना जाता है . .
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= गोमती चक्रों का निम्न प्रकार से प्रयोग करके आप-अपनी समस्याओं का निदान कर सकते है . .
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= यदि किसी व्यक्ति या बच्चे को बार-बार नजर लग जाती है, तो वह किसी निर्जन स्थान पर जाकर 3 अभिमंत्रित गोमती चक्रों को अपने उपर से 7 बार उतार कर अपने पीछे फेंक दें और पीछे मुड़कर न देंखे. . इस क्रिया को करने से कभी नजर दोष नहीं होगा . .
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= यदि आपको निरन्तर आर्थिक हानि उठानी पड़ रही है, तो प्रथम सोमवार को 11 अभिमंत्रित गोमती चक्रों का हल्दी से तिलक करें और शंकर जी का ध्यान कर पीले कपड़ें में बांधकर पूरे घर में घुमाकर किसी बहते हुये जल में प्रवाहित करें। . इसे करने से कुछ समय पश्चात ही लाभ मिलेगा। . .
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= यदि कोई बच्चा शीघ्र ही डर जाता है, तो प्रथम मंगलवार को अभिमंत्रित गोमती चक्र पर हनुमान जी के दाये कन्धें का सिन्दूर से तिलक कर किसी लाल कपड़े में बांधकर बच्चे के गले में पहना दें . बच्चे का डरना समाप्त हो जायेगा . .
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= यदि आपके व्यवसाय में किसी की नजर लग जाती है, तो 11 अभिमंत्रित गोमती चक्र और तीन छोटे नारियल को पूजा करने के बाद पीले वस्त्र में बाँधकर मुख्यद्वार पर लटका दें . इसके बाद आपके व्यवसाय में कभी नजर नहीं लगेगी .
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= यदि आपके हाथों से खर्च अधिक होता है, तो प्रथम शुक्रवार को 11 अभिमंत्रित गोमती चक्रों को पीले कपड़े पर रखकर मां लक्ष्मी का स्मरण कर विधिवत पूजन करें . दूसरे दिन उनमें से 4 गोमती चक्र उठाकर घर के चारों कोनों में एक-2 दबा दें और 3 गोमती चक्र को लाल चस्त्र में बांधकर धन रखने के स्थान पर रख दें तथा 3 चक्रों को पूजा स्थल में रख्रें दे। शेष बचें एक चक्र को किसी मन्दिर में अपनी समस्या निवेदन के साथ भगवान को अर्पित कर दें . . यह प्रयोग करने से कुछ समय में लाभ दिखने लगेगा . .
शनि  दोष  शांत  करने का आसान  उपाय  

यंत्रों की यदि विधि-विधान से पूजा की जाए तो ये शीघ्र ही शुभ फल देते हैं। ऐसा ही चमत्कारी है श्रीहनुमान यंत्र। इस यंत्र की नित्य पूजा से साधक की हर मनोकामना पूरी हो जाती है। यदि इस यंत्र की स्थापना शनिवार को की जाए तो सभी शनि दोष दूर हो जाते हैं। श्रीहनुमान यंत्र की पूजा विधि इस प्रकार है-
किसी शनिवार को सुबह जल्दी उठकर नित्य कर्मों से निवृत्त होकर साफ वस्त्र पहनें। किसी शांत एवं एकांत कमरे में पूर्व दिशा की ओर मुख करके लाल आसन पर बैठें। स्वयं लाल या पीली धोती पहनें। अपने सामने चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर हनुमान की मूर्ति स्थापित करें। चित्र के सामने तांबे की प्लेट में लाल रंग के फूल का आसन देकर श्रीहनुमान यंत्र को स्थापित करें। यंत्र पर सिंदूर से टीका करें और लाल फूल चढ़ाएं। मूर्ति तथा यंत्र पर सिंदूर लगाने के बाद धूप, दीप, चावल, फूल व प्रसाद आदि से पूजन करें। सरसों या तिल के तेल का दीपक एवं धूप जलाएं-

ध्यान- दोनों हाथ जोड़कर हनुमानजी का ध्यान करें-
ऊँ रामभक्ताय नम:। ऊँ महातेजसे नम:।
ऊं कपिराजाय नम:। ऊँ महाबलाय नम:।
ऊँ दोणाद्रिहराय नम:। ऊँ सीताशोक हराय नम:।
ऊँ दक्षिणाशाभास्कराय नम:। ऊँ सर्व विघ्न हराय नम:।
आह्वान- हाथ जोड़कर हनुमानजी का आह्वान करें-
हेमकूटगिरिप्रान्त जनानां गिरिसामुगाम्।
पम्पावाहथाम्यस्यां नद्यां ह्रद्यां प्रत्यनत:।।

विनियोग- दाएं हाथ में आचमनी में या चम्मच में जल भरकर यह विनियोग करें-
अस्य श्रीहनुमन्महामन्त्रराजस्य श्रीरामचंद्र ऋषि: जगतीच्छन्द:, श्रीहनुमान, देवता, ह् सौं बीजं, हस्फ्रें शक्ति: श्रीहनुमत् प्रसादसिद्धये जपे विनियोग:।
अब जल छोड़ दें।

इस प्रकार श्रीहनुमान यंत्र की नित्य पूजा से शनि दोष दूर होते हैं और सभी मनोकामना पूरी होती हैं।

Thursday, December 19, 2013

सिन्दूर
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भगवान की पूजा में सिंदूर का भी उपयोग किया जाता है। यह गहरे नारंगी या भगवा रंग का होता है। पूजा में न केवल सिंदूर चढ़ाया जाता है बल्कि देवताओं की मूर्तियों पर सिंदूर का चोला भी चढ़ाया जाता है। आमतौर पर हनुमान की मूर्ति पर सिंदूर का चोला चढ़ाया जाता है। पूजा में सिंदूर को चढ़ाने का अपना महत्व है।

पूजा में इस मंत्र उच्चारण होता है- सिन्दूरं शोभनं रक्तं सौभाग्यं सुखवर्धनम्। शुभदं कामदं चैव सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम्॥ अर्थात- लाल रंग का सिंदूर शोभा, सौभाग्य और सुख बढ़ाने वाला है। शुभ और सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। हे देव! आप स्वीकार करें।

इसी प्रकार देवी-देवताओं के लिए यह मंत्र उच्चारित करें- सिन्दूरमरुणाभासं जपाकुसुमसनिभम्। अर्पितं ते मया भक्त्या प्रसीद परमेश्वरि॥ अर्थात- प्रात:कालीन सूर्य की आभा तथा जवाकुसुम की तरह सिंदूर आपको हम अर्पित करते हैं। हे मां! आप प्रसन्न हों।

सिंदूर का महत्व पूजा में तो है ही लेकिन इसका उपयोग महिलाओं द्वारा विवाह के पश्चात मांग भरने में भी किया जाता रहा है। आजकल सिंदूर से मांग भरने का चलन खत्म-सा हो गया है। सिंदूर से मांग भरने का वैज्ञानिक महत्व भी है। इससे महिला के शरीर में स्थित वैद्युतिक उत्तेजना नियंत्रित होती है। सिंदूर में पारा होता है। इससे महिलाओं के सिर में होने वाली, जूं, लीख (डेन्ड्रफ) भी नष्ट होती है .............
मार्तंड भैरव 
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भैरवा ऊचुः 

नमो मार्ताण्डनाथाय स्थाणवे परमात्मने | 
भैरवाय सुभीमाय त्रिधाम्नेश नमो नमः | | 1 | | 
मृतोद्धारणदक्षाय गर्भोद्धरणहेतवे | 
तेजसां केतवे तुभ्यं हेतवे जगतामपि | | 2 | | 
हिरण्यगर्भरूपाय धीप्रणोदाय ते नमः | 
ओङ्कारव्याहृतिस्थाय महावीराय ते नमः | | 3 | | 
वीरेशाय नमस्तुभ्यं क्षेत्रेशाय नमो नमः |
वेदार्थाय च वेदाय वेदगर्भाय शम्भवे | | 4 | |
विश्वामित्राय सूर्याय सूरये परमात्मने |
महाभैरवरूपाय भैरवानन्ददायिने | | 5 | |
द्विविधध्वान्तध्वंसाय महामोहविनाशिने |
मायान्धकारनाशाय चक्षुस्तिमिरभञ्जिने | | 6 | |
मन्त्राय मन्त्ररूपाय मन्त्राक्षरविचारिणे |
मन्त्रवाच्याय देवाय महामन्त्रार्थदायिने | | 7 | |
यन्त्राय यन्त्ररूपाय यन्त्रस्थाय यमाय ते |
यन्त्रैर्नियन्त्रैर्नियमैर्यमिनां फलदाय च | | 8 | |
अज्ञानतिमिरध्वंसकारिणे क्लेशहारिणे |
महापातकहर्त्रे च महाभयविनाशिने | | 9 | |
भयदाय सुशीलाय भयानकरवाय ते |
बीभत्साय च रौद्राय भीताभयप्रदायिने | | 10 | |
तेजस्वितेजोरूपाय चण्डायोग्राय ते नमः |
बीजाय बीजरूपाय बीजभर्गाय ते नमः | | 11 | |
क्रोधभर्गाय देवाय लोभभर्गाय ते नमः |
महाभर्गाय वै तुभ्यं ज्ञानभर्गाय ते नमः | | 12 | |
घोरभर्गाय ते तुभ्यं भीतिभर्गाय ते नमः |
सुशोकाय विशोकाय ज्ञानभर्गाय ते नमः | | 13 | |
तत्त्वभर्गाय देवाय मनोभर्गाय वै नमः |
दारिद्र्यदुःखभर्गय कामभर्गाय ते नमः | | 14 | |
हिंसाभर्गाय तामिस्रभर्गाय जगदात्मने |
अतिदुर्वासनाभर्ग नमस्ते भैरवात्मने | | 15 | |
ध्यायन्ते यं भर्ग इति भर्गभर्गाय ते नमः |
रोगभर्गाय देवाय पापभर्गाय ते नमः | | 16 | |
महापातकभर्गाय ह्युपपातकभर्गिणे |
महानिरयभर्गाय नृत्तभर्गाय ते नमः | | 17 | |
क्लेशभर्गाय देवाय भौतिकघ्नाय ते नमः |
मृत्युभर्गाय देवाय दुर्गभर्गाय ते नमः | | 18 | |
ध्यानाद्ध्यायन्ति यद्भर्गं यमिनः संयतेन्द्रियाः |
नाथाय भर्गनाथाय भर्गाय सततं नमः | | 19 | |
वीरवीरेश देवेश नमस्तेस्तु त्रिधामक |
महामार्ताण्ड वरद सर्वाभयवरप्रद | | 20 | |
नमो वीराधिवीरेश सूर्यचन्द्रातिधामक |
अग्निधामातिधाम्ने च महामार्ताण्ड ते नमः | | 21 | |
वीरातिवीर वीरेश घोरघोरार्तिघोरक |
महामार्ताण्डदेवेश भूयो भूयो नमो नमः | | 22 | |
RAHASYA OF KUNJIKA STROTAM
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( There are more secret after this also )
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“Ayeengkari Shrishti Rupaaie” that means with the help of beej mantra Ayeeng any thing can be created ,when I said anything means anything, so at time of khral process performs if this beej mantra be continuously recited then the parad have the power to create anything means srajan shakti induces in that, success be there,Through this ayeeing mantra without womb ,and child can be given birth. This process had been successfully demonstrated by sage valmiki on the birth of kush (child of lord Ram) in tretayuga.

“Hreengkari pratipalika” means maya beej ,in this material world you want to posses any metal (create any valuable metal from inferior one) so that you can live happily and easily , that metal transmutation is possible when doing the specified process Reeing beej mantra continuously recited mentally. then success getting chances will be more.

“Kleengkari kamrupinyai” kleem beej mantra is for akarshan or attraction so the bandhan process success be much higher. This beej induces divine body to parad and then that transform from parad to sadhak….this kaam beej used very much in inner alchemy field,

“beej roopen namostute” I am worshopping /saluting the power behind the beej mantra. Oh parad I am worshipping you as a beeej and this also signifies that using parad as a beej we can make siddh soota, so the poverty of whole world can be removed,

“Chanmuda chanda ghati” means even death can be set aside , if all the process of various sanskar performed successfully, then death or illness will be completely vanishes from sadhak. Chand is representing here demaon king. here cha word destroy death, means that induces the power in parad to destroy akal mrutyu(untimely death), ichhamrutyu (death time desired and fix as desired by you) is possible through this parad.

“yaikari vardayeni” means all the boon giving power parad will have,is possible by the result of this.

“vichhe cha abhya da” all the protection needed in the parad tantra science is possible through vichhe beej. means all the destruction forces whatever form may be, total protection is achieved through this.means abhayam is gained through this only,

“Dhaam Dhhem dhoom dhoourjate” all the destruction forces controlled through this beej mantras this governs the dhhorjta shakti(lord shiva’s distruction form),theses beej mantra can be used to destruction of any weakness limitation which is also a form of enemy.

“Vaam veem voonm vaagdheeshwari” means related to goddess sarswati.(goddess of learning) ,,why goddess sarswati is related to parad field, you knew the name how is spelt like sa +ras+wati. Here ras stand for parad.

“kraam kreem kroom kalika devi” means without the blessing of ma kali ,the goddess of time or kaal how the parad sanskar can be done successfully, we all are under the control of time, is only her blessing through parad we can control the time.so the the help of these beej mantra anything can be done,

“shaam sheem shoom me subham kuru” means all the good and positive power of this world help us to achieve success and with the help of these beej ,various positive and subh energy/quality is induces in parad.

“ hum hum humkaarrupinyai” stands for controlling shakti. Parad agni shthai (fire resistant) process is depend upon it. this Hum beej mantra, is a powerful mantra for anything to put in same shape. Just like stabhnam. so agnishathi parad is dream for many of the parad scientist. This is possible through only this mantra.

“jam jam jambhnaadini” all the jrabhankari shaktiyon come to our rescue is the meaning of this .

“bhram bhreem bhroom bharaivi…” this stands for without the blessing of goddess bhairavi (mother parvati) how the beneficial effect of parad can be available to mankind .

“Aam kam cham………..ksham..” all theses beej mantra is used for pran pratistha (life inducing power) to parad without that it is just a element ,nothing else .

“Paam peem poom parvati poorana” as you all know that gandhak (sulpher) is known as parvati beej in all the Alchemy field, without that how can parad(mercury that is bhagvan shiva’s beej ) can be bandh (can be controlled) so there are the three beej mantra by which parad bandhan process can be done suceesfully.

“khaam kheem khoom khechari tatha” that means how can khechratav ability to fly can be induces in the parad the three beej mantra mentioned above is for that . we have several writing which state that khechri gutika can be made but how? Everybody kept silence on this point , from word aa to gya(hindi alphabet total 52 letter )are there , which one has to be used for khechari gutika,nobody knows? this lines indicating that secreat.

“saam seem soom saptsati devya mantrasiddhim” means these are the three beej antra responsible for attaining mantra Siddhi, means in parad science too ,many of the divine mantra is used .if only chemical process is there ,then the scientist already could achieved the success much much earlier, they have all the facilities with them, so mantra sidhhi is an very very important aspect of this science to get success. “Abhkateye naiv datavyam gopitam raksh parvati” oh paravati(lord shiva telles her) please keep this secreat , and it does not have to revealed to any one who has not having devotion to sadguru and parad.

“na tasya jayte Siddhi aarnayen rodanam yatha” means one who does not know this secret how can he achieved success in this divine science ,without this all of his effort goes to fail and his effort is like weeping alone in the deep forest, serve no purpose……”
अंक ब्रह्म समम् ब्याप्तिः पञ्च परम विशेषतः |
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[१] पञ्च तत्व –क्षिति ,जल ,पावक ,गगन ,समीर |
[२]पंचामृत ---गो दुग्धं शर्करा चैब घृतं दधि तथा मधुः|
[३] पञ्च पल्लव –अश्वस्थो दुम्बर प्लक्ष च्युत्त न्यग्रोध संभवा[आम ,पीपर,वर,प्लक्ष आ उदुम्बर ] [४] पञ्च देव ---सूर्य ,अग्नि ,विष्णु,दुर्गा शिव |[राति मे सूर्य स्थाने गणेश ]
[५] पञ्च प्रयाग –देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग ,कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग , विष्णुप्रयाग |
[६] पञ्च कन्या –अहिल्या ,द्रौपदी ,तारा ,कुंती तथा मंदोदरी |
[७]पञ्च पांडव –युधिष्ठिर ,भीम ,अर्जुन ,नकुल ,सहदेव |
[८] पंचाँग – तिथि ,वार ,योग ,नक्षत्र ,करण |
[९] पञ्च गव्य –गाएक गोबर ,मूत्र ,दूध ,दही ,घृत |
[१०] पञ्च भगिनी ---त्रिपुरा ,कालिका ,दुर्गा ,भवानी ,गिरिजा |
[११] पञ्च रत्न –नीलकं,वज्रकं चेति पद्म रागश्च मौक्तिकम् | प्रवालं चेति विज्ञेयं पंचरत्नम् मनीषिभिः............................................. ]१२]पंचोपचार – गंध ,पुष्प ,धूप दीप ,नैवैद्य|
[१३] पञ्च यज्ञ –अध्यापनं ,ब्रह्म यज्ञः पितृ यग्यस्तु तर्पणम् |
[१४] पञ्च पर्व –अमावाश्या ,पुर्णीमा ,सूर्य संक्रान्ति अष्टमी ,चतुर्दशी |
[१५]पंचवाण – आम ,अशोक ,प्रसून ,कोकिल चंद्रमा |
[१६] पंचपात्र –पाद्य ,अर्घ्र्य ,आचमनीय ,मधुपर्क ,पुनराचमनीय पात्रानि |
[१७]पञ्च दान – श्राधक प्रकार –पात्र ,शय्या ,परिधान ,छत्र उपानद तथा गोदान|
[१८] पंचानन –शिवक पर्याय |
[१९ ]पंचांग प्रणाम –वाहुभ्यांचैब जानुभ्यां शिरसा वक्षसा दृशा |
[२०] पञ्च लोक पालाः---विनायकादि पंचकं – विनायक ,अम्बिका ,वायु ,आकाश अश्विनौ |
[२१] पञ्च मकार –मद ,मस्त्य ,माँस ,मदिरा तथा मैथुन |
[२२] पञ्चयन्य – विष्णुक शंख |
[२३] पञ्च काम –दरस ,परस ,आलिंगन ,चुम्बन तथा सम्भोग |
[२४] पञ्च प्रीति –श्रवन आकर्षण ,संभाषाण ,सम्मोहन ,बशीकरण |
[२५] पञ्च श्रृंगार –अलक ,तिलक ,अंगराग ,वसन,आभूषण |
[२६] पंचनेमः –व्रत ,पूजा ,पाठ ,होम ,दान |
[२७] पञ्च वायु ---श्व्वास ,प्रश्वास ,ढेकार ,छींक ,वायुत्याग |
[२८] पञ्च ज्ञान ---श्रवन ,मनन ,चिंतन ,स्मरण ,कथन |
[२९] पंचकाल –उषा ,प्रभात ,मध्यान्ह ,गोधुली ,एबम संध्या |
[३०] पञ्च सकार –श्वसुर ,सासु, सार ,सारि सरहोजि |
[३१] पञ्च महादान –अन्न दान ,वस्त्र दान ,गोदान ,कन्यादान ,भूमि दान |
[३२] पञ्चशाला –पाठ शाला ,यज्ञशाला ,धर्मशाला ,देवशाला ,गोशाला |
[३३] पञ्चकर्म – पितृकर्म ,[मतृ-पितृ श्राद्ध ,पार्वण ,तर्पण आदि ,--देवकर्म –[पूजा ,पाठ ,यज्ञादि ] दानकर्म ,सेवाकर्म सत्कर्म |
[३४] पंचस्वजन ---सज्जन ,संत ,सेवक ,श्रेष्ठ ,मित्र |
[३५] पञ्चसेव्य – श्रद्धा ,शील ,संत ,सुहृद ,सम्मति |
[३६] पञ्चत्याज्य – काम ,क्रोध ,लोभ ,मद ,मोह .|
[३७] पञ्चग्रन्थपूज्य –वेद ,पुराण ,उपनिषद्,गीता ,रामायण |
[३८] पञ्चऋण—मातृऋण, पितृऋण ,देवऋण, गुरुऋण,राष्ट्रऋण |
[३९] पञ्च पाश –ब्रम्ह पाश ,वज्रपाश नागपाश ,भवपाश,यमपाश |
[४०] पंचबल –धनबल ,जनबल ,बाहुबल ,बुद्धिबल ,भाग्यबल |
[४१] पञ्चरात्रि ---नवरात्रि ,कालरात्रि ,मोहरात्रि ,शिवरात्रि ,सुखरात्रि |
[४२]पंचमल –मल ,मूत्र ,कफ ,पित्त ,वायु |
[४३] पंचस्मरणीय—माता ,पिता ,पितर ,गुरु ,ब्रह्म |
[४४] पंचवन – वृन्दावन ,वद्रीवन, दंडकवन बिल्ववन ,सुन्दर वन |
[४५] पंचनाथ – सोमनाथ ,रामेश्वरनाथ ,वैद्यनाथ ,पारसनाथ ,केदारनाथ |
माँ दुर्गा के लोक कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र
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१॰ बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये
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“सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥”

(अ॰१२,श्लो॰१३)

२॰ बन्दी को जेल से छुड़ाने हेतु
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“राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे।।”
(अ॰१२,
श्लो॰२७)

३॰ सब प्रकार के कल्याण के लिये
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“सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥”
(अ॰११,
श्लो॰१०)

४॰ दारिद्र्य-दु:खादिनाश के लिये
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“दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥” (अ॰४,श्लो॰१७)

४॰ वित्त, समृद्धि, वैभव एवं दर्शन हेतु
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“यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि।।
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।
यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने।।
तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके।। (अ॰४,
श्लो॰३५,३६,३७)

५॰ समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव
की प्राप्ति के लिये
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“विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता:
सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति:
स्तव्यपरा परोक्ति :॥” (अ॰११, श्लो॰६)

६॰ शास्त्रार्थ विजय हेतु
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“विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु च का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽति महान्धकारे, विभ्रामयत्येतदतीव
विश्वम्।।” (अ॰११, श्लो॰ ३१)

७॰ संतान प्राप्ति हेतु
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“नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी” (अ॰११,
श्लो॰४२)

८॰ अचानक आये हुए संकट को दूर करने हेतु
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“ॐ इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्ॐ।।” (अ॰११,
श्लो॰५५)

९॰ रक्षा पाने के लिये
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शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥

१०॰ शक्ति प्राप्ति के लिये
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सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

११॰ प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये
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प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥

१२॰ विविध उपद्रवों से बचने के लिये
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रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं
परिपासि विश्वम्॥

१३॰ बाधा शान्ति के लिये
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“सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥” (अ॰११, श्लो॰३८)

१४॰ सर्वविध अभ्युदय के लिये
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ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च
सीदति धर्मवर्ग:।
धन्यास्त एव
निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥
शिखा (चोटी) धारण की आवश्यकता* 
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हिन्दूधर्म की रक्षा के लिए- 
*शिखा (चोटी) धारण की आवश्यकता* 

हिन्दू-संस्कृति बहुत विलक्षण है । इसमेँ छोटी से छोटी अथवा बड़ी से बड़ी 
प्रत्येक बात का धर्म के साध सम्बन्ध है और धर्म का सम्बन्ध कल्याणके साथ 
है । हिन्दूधर्ममेँ जो-जो नियम बताये गये हैँ, वे सब-के-सब नियम मनुष्य 
के कल्याण के साथ सम्बन्ध रखते हैँ । कोई परम्परासे सम्बन्ध रखते हैँ,
कोई साक्षात् सम्बन्ध रखते हैँ । हिन्दूधर्ममेँ विद्याध्ययनका भी सम्बन्ध
कल्याणके साथ है । संस्कृत व्याकरण भी एक दर्शनशास्त्र है, जिससे
परिणाममेँ परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ! इसलिए हिन्दूधर्मके किसी
नियमका त्याग करना वास्तवमेँ अपने कल्याणका त्याग करना है !

जैसे, घड़ी मेँ छोटे-बड़े अनेक पुर्जे होते हैँ । उसमेँ बड़े पुर्जे का जो
महत्त्व है, वही महत्त्व छोटे पुर्जे का भी है । बड़ा पुर्जा अपनी जगह
पूरा है और छोटा पुर्जा अपनी जगह पूरा है । छोटे-से-छोटा पुर्जा भी यदि
निकाल दिया जाय तो घड़ी बन्द हो जायगी । इसी तरह हिन्दूधर्म की
छोटी-से-छोटी बात भी अपनी जगह पूरी है और कल्याण करने मेँ सहायक है ।
छोटी-सी शिखा अर्थात् चोटी भी अपनी जगह पूरी है और मनुष्य के कल्याणमेँ
सहायक है । शिखा का त्याग करना मानो अपने कल्याण का त्याग करना है
!

* शिखा अर्थात चोटी हिन्दुओँ का प्रधान चिह्न है । हिन्दुओँ मेँ चोटी
रखने की परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है । परंतु अब आपने इसका त्याग
कर दिया है- यह बड़े भारी नुकसान की बात है । विचार करेँ, चोटी न रखने के
लिए अथवा चोटी काटने के लिए किसी ने प्रचार भी नहीँ किया, किसी ने आपसे
कहा भी नहीँ, आपको आज्ञा भी नहीँ दी, फिर भी आपने चोटी काट ली तो आप मानो
कलियुगके अनुयायी बन गये ! यह कलियुग का प्रभाव है; क्योँकि उसे सबको
नरकोँ मेँ ले जाना है । चोटी कट जानेसे नरकोँ मेँ जाना सुगम हो जायगा ।
इसलिए आपसे प्रार्थना है कि चोटीको साधारण समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।
चोटी रखना मामूली दीखता है, पर यह मामूली काम नहीँ है ।

अग्नि का नाम \'शिखी\' है । शिखी उसको कहा जाता है, जिसकी शिखा हो-\'शिखा
यस्यास्तीति स शिखी\'। वह धूमशिखावाला अग्नि हमारा इष्टदेव
है-\'अग्निर्देवो द्विजातीनम्\'। अतः शिखा हमारे इष्टदेव (अग्नि) का प्रतीक
है ।...[पृ॰सं॰ ३ से]

* शिखा काटने से मनुष्य मरे हुए के समान हो जाता है और अपने धर्म से
भ्रष्ट हो जाता है । प्राचीनकाल मेँ किसी की शिखा काट देना मृत्युदण्ड के
समान माना जाता था । धर्म के साथ शिखा का अटूट सम्बन्ध है । इसलिए शिखा
काटने पर मनुष्य धर्मच्युत हो जाता है । बड़े दुःखकी बात है आज हिन्दूलोग
मुसलमानोँ-ईसाईयोँ के प्रभाव मेँ आकर अपने हाथोँ अपनी शिखा काट रहे हैँ !
खुद अपने धर्म का नाश कर रहे हैँ ! यह हमारी गुलामी की पहचान है । भगवान
ने गीतामेँ कहा है-

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥ (गीता १६ । २३-२४)

\'जो मनुष्य शास्त्रविधिको छोड़कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न
सिद्धि (अन्तःकरणकी शुद्धि) को, न सुख (शान्ति) को और न परमगति को
प्राप्त होता है ।\'
\'अतः तेरे लिए कर्तव्य-अकर्तव्यकी व्यवस्थामेँ शास्त्र ही प्रमाण है-ऐसा
जानकर तू इस लोक मेँ शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य-कर्म करनेयोग्य है
अर्थात तुझे शास्त्रविधि के अनुसार कर्तव्यकर्म करने चाहिए ।\'

चोटी रखना शास्त्र का विधान है । चाहे सुख मिले या दुःख मिले, हमेँ तो
शास्त्रके विधानके अनुसार चलना है । भगवान जो कहते हैँ, सन्त-महापुरुष जो
कहते हैँ, शास्त्र जो कहते हैँ, उसके अनुसार चलनेमेँ ही हमारा वास्तविक
हित है । भगवान और उनके भक्त -ये दोनोँ ही निःस्वार्थभावसे सबका हित
करनेवाले हैँ-

हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥ (मानस, उत्तर॰ ४७ । ३)
इसलिए इनकी आज्ञा के अनुसार चलनेवाला लोक और परलोक दोनोँमेँ सुख पाता है
।...[पृ॰सं॰ ६ से]

* जिन्होँने अपनी उन्नति कर ली है, जिनका विवेक विकसित हो चुका है, जिनको
तत्त्व की प्राप्ति हो गयी है, ऐसे सन्त-महात्माओँकी बात मान लेनी चाहिए;
क्योँकि उनकी बुद्धिका नतीजा अच्छा हुआ है । उनकी बात माननेमेँ ही हमारा
लाभ है । अपनी बुद्धि से अबतक हमने कितनी उन्नति की है? क्या तत्त्वकी
प्राप्ति कर ली है? इसलिए भगवान, शास्त्र और संतोँकी बात मानकर शिखा धारण
कर लेनी चाहिए । अगर उनकी बात समझमेँ न आये तो भी मान लेनी चाहिए । हमने
आजतक अपनी समझसे काम किया तो कितना लाभ लिया? जैसे, किसी ने व्यापार मेँ
बहुत धन कमाया हो तो वह जैसा कहे, वैसा ही हम करेँगे तो हमेँ भी लाभ होगा
। उनको लाभ हुआ है तो हमेँ लाभ क्योँ नहीँ होगा? ऐसे ही जिन
सन्त-महात्माओँने परमात्मप्राप्ति कर ली है; अशान्ति, दुःख, सन्ताप आदिको
मिटा दिया, उनकी बात मानेँगे तो हमारे को भी अवश्य लाभ होगा ।

आपको क्या दोष लगता है? क्या पाप लगता है? आपके जीवन मेँ क्या अड़चन आती
है? चोटी रखनेकी जो परंपरा सदा से थी, उसका त्याग आपने किसके कहने से कर
दिया? किस सन्तके कहने से, किस पुराणके कहने से, किस शास्त्रकी आज्ञा से,
किस वेदकी आज्ञासे आपने चोटी रखन छोड़ दिया?

चोटी रखना बहुत सुगम काम है, पर आपके लिए कठिन हो रहा है; क्योँकि आपने
उसको छोड़ दिया है । यह बात आपकी पीढ़ियोँ से है । आपके बाप, दादा, परदादा
आदि सब परम्परा से चोटी रखते आये हैँ, पर अब आपने इसका त्याग कर दिया,
इसलिए अब आपको चोटी रखनेमेँ कठिनता हो रही है । विचार करेँ, चोटी रखना
छोड़ देनेसे आपको क्या लाभ हुआ? और अब आप चोटी रख लेँ तो क्या नुकसान
होगा? चोटी रखने से आपको पैसोँकी हानि होती हो, धर्मकी हानि होती हो,
स्वास्थ्यकी हानी होती हो, आपको बड़ा भारी दुःख मिलता हो तो बतायेँ ! चोटी
न रखने से लाभ तो कोई-सा भी नहीँ है, पर हानि बड़ी भारी है ! चोटी के बिना
आपका देवपूजन तथा श्राद्ध-तर्पण निष्फल हो जाता है, आपके दान-पुण्य आदि
सब शुभकर्म निष्फल हो जाते हैँ । इसलिए चोटी को मामुली समझकर इसकी उपेक्षा न करेँ ।

पहले सब लोग चोटी रखते थे । चोटी के बिना कोई आदमी नहीँ दीखता था । पर
हमारे देखते-देखते थोड़े वर्षोँमेँ आदमी शिखारहित हो गये । अब प्रायः
लोगोँ की शिखा नहीँ दीखती । शिखा और सूत्र (जनेऊ) का परस्पर घनिष्ठ
सम्बन्ध है । आश्चर्य की बात है कि आज ऐसे लोग भी हैँ; जिनका सूत्र तो
है, पर शिखा नहीँ है ! यह कितने पतन की बात है ! अगर यही दशा रही तो आगे
आपको कौन कहेगा कि चोटी रखो? और क्योँ कहेगा? कहनेसे उसको क्या लाभ?

शिखा हिन्दुत्वकी पहचान है । यह आपकी जाति की रक्षा करनेवाली है । जनेऊ
तो सबके लिए नहीँ है, केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए है, पर
शिखा हिन्दूमात्र के लिए है । चाहे द्विजाति हो, चाहे अन्त्यज हो, शिखा
सबके लिए है । जैसे मुसलमानोँ के लिए सुन्नत है, ऐसे ही हिन्दुओँ के लिए
शिखा है । सुन्नत के बिना कोई मुसलमान नहीँ मिलेगा, पर शिखा के बिना आज
हिन्दुओँका समुदाय-का-समुदाय मिल जायगा । मुसलमान और ईसाई बड़े जोरोँ से
अपने धर्म का प्रचार कर रहे हैँ और हिन्दुओँ का धर्म-परिवर्तन करनेकी
नयी-नयी योजनाएँ बना रहे हैँ । आपने अपनी चोटी कटवाकर उनके प्रचार-कार्य
को सुगम बना दिया है ! इसलिए समय रहते हिन्दुओँ को सावधान हो जाना चाहिए
। मुसलमान अपने धर्म का प्रचार मूर्खता से करते हैँ और ईसाई बुद्धिमत्ता
से । मुसलमान तो तलवार के जोरसे जबर्दस्ती धर्मपरिवर्तन करते हैँ, पर
ईसाई बाहर से सेवा करके भीतर-ही-भीतर (गुप्त रीतिसे) धर्म-परिवर्तन करते
हैँ । वे स्कूल खोलते हैँ और बालकोँ पर अपने धर्मके संस्कार डालते हैँ ।
इसीका परिणाम है कि घर बैठे-बैठे हिन्दुओँने अपनी चोटीका त्याग कर दिया ।
इस काममेँ ईसाई सफल हो गये ! मुसलमानोँ और ईसाइयोँका उद्देश्य
मनुष्यमात्र का कल्याण करना नहीँ है, प्रत्युत अपनी संख्या बढ़ाना है, जिससे
उनका राज्य हो जाय । कलियुगका प्रभाव प्रतिवर्ष, प्रतिमास, प्रतिदिन
जोरोँसे बढ़ रहा है । लोगोँकी बुद्धि भ्रष्ट हो रही है । मनुष्यमात्र का
कल्याण चाहनेवाली हिन्दू-संस्कृति नष्ट हो रही है । हिन्दू स्वयं ही अपनी
संस्कृति का नाश करेँगे तो रक्षा कौन करेगा?...[पृ॰सं॰ १२ से]

प्रश्न- चोटी रखने से शर्म आती है, वह कैसे छुटे?

उत्तर- आश्चर्यकी बात है कि व्यापार आदिमेँ बेईमानी, झूठ-कपट करनेमेँ
शर्म नही, गर्भपात आदि पाप करनेमेँ शर्म नहीँ आती, चोरी, विश्वासघात आदि
करते समय शर्म नहीँ आती, पर चोटी रखनेमेँ शर्म आती है ! आपकी शर्म ठीक है
या भगवान और संतो की बात मानना, उनको प्रसन्न करना ठीक है? आप चोटी रखो
तो आरम्भमेँ शर्म आयेगी, पर पीछे सब ठीक हो जायेगा ।...[पृ॰सं॰ २१से]

लोग हँसी उड़ायेँ, पागल कहेँ तो उसको सह लो, पर धर्मका त्याग मत करो ।
आपका धर्म आपके साथ चलेगा, हँसी-दिल्लगी आपके साथ नहीँ चलेगी । लोगोँकी
हँसी से आप डरो मत । लोग पहले हँसी उड़ायेँगे, पर बादमेँ आदर करने लगेँगे
कि यह अपने धर्म का पक्का आदमी है ।...[पृ॰सं॰ २२से]

अतः उनकी हँसी की परवाह न करके अपने धर्मका पालन करना चाहिए ।

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मँ त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः ।
नित्यो धर्मः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥
(महाभारत, स्वर्गा॰ ५।६३)

\'कामनासे, भयसे, लोभसे अथवा प्राण बचाने के लिये भी धर्मका त्याग न करे ।
यज्ञाग्नि की शिक्षा तथा प्रेरणा
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अग्नि भगवान् से ऐसी प्रार्थना यजमान करता है कि-
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ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदसे इध्मस्वचवर्धस्व इद्धय वर्धय । -आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/10/17

यज्ञ को अग्निहोत्र कहते हैं । अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता हे । हवन-सामग्री को अग्नि के मुख में ही डालते हैं । अग्नि को ईश्वर-रूप मानकर उसकी पूजा करना ही अग्निहोत्र है । अग्नि रूपी परमात्मा की निकटता का अनुभव करने से उसके गुणों को भी अपने में धारण करना चाहिए एवं उसकी विशेषताओं को स्मरण करते हुए अपनी आपको अग्निवत् होने की दिशा में अग्रसर बनाना चाहिए । नीचे अग्नि देव से प्राप्त होने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा का कुछ दिग्दर्शन कर रहे हैं

(1) अग्नि का स्वभाव उष्णता है । हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए । आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अन्ध-तामसिकता के गण हैं, अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं । जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है, कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए, हमारी भुजाएँ, काम करने के लिए फड़कती रहें, हमारा मस्तिष्क प्रगतिशील, बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में उत्साहपूर्ण कार्य करता रहे । (2) अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती है, उसे वह अपने समान बना लेती है । निकटवर्ती लोगों को अपना गुण, ज्ञान एवं सहयोग देकर हम भी उन्हें वैसा ही बनाने का प्रयत्न करें । अग्नि के निकट पहुँचकर लकड़ी, कोयला आदि साधारण वस्तुएँ भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओ से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करें ।

(3) अग्नि जब तक जलती है, तब तक उष्णता को नष्ट नहीं होने देती । हम भी अपने आत्मबल से ब्रह्म तेज को मृत्यु काल तक बुझने न दें ।

(4) हमारी देह, भस्मान्तं शरीरम् है । वह अग्नि का भोजन है । न मालूम किस दिन यह देह अग्नि की भेट हो जाय, इसलिए जीवन की नश्वरता को समझते हुए सत्कर्म के लिये शीघ्रता करें।

(5) अग्नि पहले अपने में ज्वलन शक्ति धारण करती हैं, तब किसी दूसरी वस्तु को जलाने में समर्थ होती है । हम पहले स्वयं उन गुणों को धारण करें जिन्हें दूसरों में देखना चाहते हैं । उपदेश देकर नहीं, वरन् अपना उदाहरण उपस्थिति करके ही हम दूसरों को कोई शिक्षा दे सकते हैं । जो गुण हम में वैसे ही गुण वाले दूसरे लोग भी हमारे समीप आवेंगे और वैसा ही हमारा परिवार बनेगा । इसलिये जैसा वातावरण हम अपने चारों ओर देखना चाहते हों, पहले स्वयं वैसा बनने का प्रयत्न करें ।

(6) अग्नि, जैसे मलिन वस्तुओं को स्पर्श करके स्वयं मलिन नहीं बनती, वरन् दूषित वस्तुओं को भी अपने समान पवित्र बनाती है, वैसे ही दूसरों की बुराइयों से हम प्रभावित न हों । स्वयं बुरे न बनने लगें, वरन् अपनी अच्छाइयों से उन्हें प्रभावित करके पवित्र बनावें ।

(7) अग्नि जहाँ रहती है वहीं प्रकाश फैलता है । हम भी ब्रह्म-अग्नि के उपासक बनकर ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलावें, अज्ञान के अन्धकार को दूर करें । तमसो मा ज्योतर्गमय हमारा प्रत्येक कदम अन्धकार से निकल कर प्रकाश की ओर चलने के लिये बढ़े ।

(8) अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को उठती रहती है । मोमबत्ती की लौ नीचे की तरफ उलटें तो भी वह ऊपर की ओर ही उठेगी । उसी प्रकार हमारा लक्ष्य, उद्देश्य एवं कार्य सदा ऊपर की ओर हो, अधोगामी न बने ।

(9) अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है, उसे वह अपने पास नहीं रखती, वरन् उसे सूक्ष्म बनाकर वायु को, देवताओं को, बाँट देती है । हमें जो वस्तुएँ ईश्वर की ओर से, संसार की ओर से मिलती हैं, उन्हें केवल उतनी ही मात्रा में ग्रहण करें, जितने से जीवन रूपी अग्नि को ईंधन प्राप्त होता रहे । शेष का परिग्रह, संचय या स्वामित्व का लोभ न करके उसे लोक-हित के लिए ही अर्पित करते रहें ।

रामायण  की चौपाई  के  प्रयोग "

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रोजगार 
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बिस्व भरण-पोषण कर जोई।
ताकर नाम भरत अस होई।।
गई बहोर गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू।।

विपत्ति निवारण
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जपहि नामु जन आरत भारी।
मिटाई कुसंकट होहि सुखारी।।

परीक्षा में सफलता
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जेहि पर कृपा करहि जनु जानी।
कवि उर अजिर नचावहि बानी।।
मोरि सुधारिहि सा सब भांती।
जासु कृपा नहि कृपा अघाती।।

विद्या प्राप्ति
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गुरू गृह गए पढन रघुराई।
अलप काल विद्या सब आई।।

यात्रा में सफलता
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प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
ह्वदय राखि कौसलपुर राजा।।

परिवार सुख
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जबते राम ब्याहि घर आए।
नित नव मंगल मोद बढ़ाए।।

नवग्रह शांति
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मोहि अनुचर कर केतिक बाता।
तेहि महं कुसमउ बाम विधाता।।

कुमार्ग से बचाव
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रघुवसिन कर सुभाऊ।
मन कुपंथ पग धरहि न काऊ।।

प्रेत बाधा निवारण
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प्रनवऊं पवन कुमार खल वन पावक

( जिस चौपाई का प्रयोग करना उसे == रामायण हवन सामग्री == से
मंगलवार/ शनिवार रात १० बजे के बाद हवन करें एवं नित्य १०८ बार
नियमित रूप से जपें ... हनुमान जी की पंचोपकार पूजन करें = सफलता प्राप्त होगी ) रमेश दुबे ....

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किस्मत का ताला खोलने के लिए यह करें
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सबसे पहले आप ताले की दुकान पर किसी भी शुक्रवार को जाएं और एक
स्टील या लोहे का ताला खरीद लें। लेकिन ध्यान रखें ताला बंद
होना चाहिए खुला ताला नहीं। ताला खरीदते समय उसे न दुकानदार
को खोलने दें और न आप खुद खोलें। ताला सही है या नहीं यह जांचने के
लिए भी न खोलें। बस बंद ताले को खरीदकर ले आएं।
उसे ताले को एक डिब्बे में रखें और शुक्रवार की रात को ही अपने सोने
वाले कमरे में बिस्तर के पास रख लें। शनिवार सुबह उठकर स्नान आदि से
निवृत्त होकर ताले को बिना खोले किसी मंदिर या देवस्थान पर रख दें।
ताले को रखकर बिना कुछ बोले, बिना पलटें वापिस अपने घर आ जाए।
विश्वास और श्रद्धा रखें जैसे ही कोई उस ताले
को खोलेगा आपकी किस्मत का ताला भी खुल जाएगा। यह जाना-
माना प्रयोग है अपनी किस्मत चमकाने के लिए इसे अवश्य आजमाएं....

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Protection from black magic
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Chamunda talisman is very powerful tool to remove all types of black magic and act as a healer from black magic Very powerful tool for for hynotise or vashikaran ( Highly reccomended) This chamunda talisman is very powerful talisman , its a very rarely found talisman found in very ancient dark forest , We have to bought this talisman from the tribal group stay in forest and its found very rarely . We have to keep it in vermilon always and in silver case . It so powerful that if you kept it with you it act as miraclous saver from all type of evil power , ghost . accident , mishaps , nobody dare to do black magic on you , Its have vashikaran ( hypnotising power ) power , If you kept this in pocket and if you want sombody to attract towrds you you cant imagine within some time he or she will be yours followers forever . You cant imagine its powerful charisma , JUSt keep it in some safe palce at home or office and you will see changes happened , It found the acquirer by itself , if it wish then only aquirer can aquired it . It give the wearer all types of wealth power , money whatever the aquirer wish . This powerful talsiman come with the vermilon and a beutiful silver box , I myself try it and found amazing result . We fully energised this talisman in auspicious time and make it 500 % more powerful with secret mantra which we provide you with this talisman just have it and feel power in you . Very much useful is mass hypnotism or vashikaran and to get back your love and very powerful love spell .

Friday, September 20, 2013

आइये जानते हैं तुलसी के फायदे...
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1. तुलसी रस से बुखार उतर जाता है। इसे पानी में मिलाकर हर दो-तीन घंटे में पीने से बुखार कम हो जाता है।

2. कई आयुर्वेदिक कफ सिरप में तुलसी का इस्तेमाल अनिवार्य है।यह टी.बी,ब्रोंकाइटिस और दमा जैसे रोंगो के लिए भी फायदेमंद है।

3. जुकाम में इसके सादे पत्ते खाने से भी फायदा होता है।

4. सांप या बिच्छु के काटने पर इसकी पत्तियों का रस,फूल और जडे विष नाशक का काम करती हैं।

5. तुलसी के तेल में विटामिन सी,कै5रोटीन,कैल्शियम और फोस्फोरस प्रचुर मात्रा में होते हैं।

6. साथ ही इसमें एंटीबैक्टेरियल,एंटीफंगल और एंटीवायरल गुण भी होते हैं।

7. यह मधुमेह के रोगियों के लिए भी फायदेमंद है।साथ ही यह पाचन क्रिया को भी मज़बूत करती हैं।

8. तुलसी का तेल एंटी मलेरियल दवाई के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। एंटीबॉडी होने की वजह से यह हमारी इम्यूनिटी भी बढा देती है।

9. तुलसी के प्रयोग से हम स्वास्थय और सुंदरता दोनों को ही ठीक रख सकते हैं।

सावधानी :
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फायदे जानने के बाद तुलसी के सेवन में अति कर देना नुकसानदायक साबित होगा। क्योंकि इसकी तासीर गर्म होती है इसलिए दिन भर में 10-12 पत्तों का ही सेवन करना चाहिए। खासतौर पर महिलाओं के लिए भले ही तुलसी एक वरदान की तरह है लेकिन फिर भी एक दिन में पांच तुलसी के पत्ते पर्याप्त हैं। हां, इसका सेवन छाछ या दही के साथ करने से इसका प्रभाव संतुलित हो जाता है। हालांकि यह आर्थराइटिस, एलर्जी, मैलिग्नोमा, मधुमेह, वायरल आदि रोगों में फायदा पहुंचाती है। लेकिन गर्भावस्था के दौरान इसके सेवन का ध्यान रखना जरूरी है। गर्भावस्था के दौरान अगर दर्द ज्यादा होता है तब तुलसी के काढे से फायदा पहुंच सकता है। इसमे तुलसी के पत्तो को रात भर पानी मे भिगो दें और सुबह उसे क्रश करके चीनी के साथ खाएं ब्रेस्ट- फीडिंग के दौरान भी तुलसी का काढा फायदेमंद होता है। इसके लिए बीस ग्राम तुलसी का रस और मकई के पत्तों रस मिलाएं, इसमें दस ग्राम अश्वगंधा रस और दस ग्राम शहद मिला कर खाएं। तुलसी बच्चेदानी को स्वास्थ रखने के लिए भी सहायक है। हां, एक बात ध्यान रहे कि आपके स्वास्थ पर तुलसी के अच्छे और बुरे दोनों प्रभाव पड सकते हैं इसलिए महिलाओं के लिए हो या बच्चों के लिए, बिना आयुर्वेदाचार्य से परामर्श लिए इसका इस्तेमाल न करे।

Wednesday, September 18, 2013

॥धनलक्ष्मी स्तोत्रम्॥
॥धनदा उवाच॥
देवी देवमुपागम्य नीलकण्ठं मम प्रियम् ।
कृपया पार्वती प्राह शंकरं करुणाकरम् ॥1॥
॥देव्युवाच॥
ब्रूहि वल्लभ साधूनां दरिद्राणां कुटुम्बिनाम् ।
दरिद्र दलनोपायमंजसैव धनप्रदम् ॥2॥
॥शिव उवाच॥
पूजयन् पार्वतीवाक्यमिदमाह महेश्वरः ।
उचितं जगदम्बासि तव भूतानुकम्पया ॥3॥

स सीतं सानुजं रामं सांजनेयं सहानुगम् ।
प्रणम्य परमानन्दं वक्ष्येऽहं स्तोत्रमुत्तमम् ॥4॥

धनदं श्रद्धानानां सद्यः सुलभकारकम् ।
योगक्षेमकरं सत्यं सत्यमेव वचो मम ॥5॥

पठंतः पाठयंतोऽपि ब्रह्मणैरास्तिकोत्तमैः ।
धनलाभो भवेदाशु नाशमेति दरिद्रता ॥6॥

भूभवांशभवां भूत्यै भक्तिकल्पलतां शुभाम् ।
प्रार्थयत्तां यथाकामं कामधेनुस्वरूपिणीम् ॥7॥

धनदे धनदे देवि दानशीले दयाकरे ।
त्वं प्रसीद महेशानि! यदर्थं प्रार्थयाम्यहम् ॥8॥

धराऽमरप्रिये पुण्ये धन्ये धनदपूजिते ।
सुधनं र्धामिके देहि यजमानाय सत्वरम् ॥9॥

रम्ये रुद्रप्रिये रूपे रामरूपे रतिप्रिये ।
शिखीसखमनोमूर्त्ते प्रसीद प्रणते मयि ॥10॥

आरक्त- चरणाम्भोजे सिद्धि- सर्वार्थदायिके ।
दिव्याम्बरधरे दिव्ये दिव्यमाल्यानुशोभिते ॥11॥

समस्तगुणसम्पन्ने सर्वलक्षणलक्षिते ।
शरच्चन्द्रमुखे नीले नील नीरज लोचने ॥12॥

चंचरीक चमू चारु श्रीहार कुटिलालके ।
मत्ते भगवती मातः कलकण्ठरवामृते ॥13॥

हासाऽवलोकनैर्दिव्यैर्भक्तचिन्तापहारिके ।
रूप लावण्य तारूण्य कारूण्य गुणभाजने ॥14॥

क्वणत्कंकणमंजीरे लसल्लीलाकराम्बुजे ।
रुद्रप्रकाशिते तत्त्वे धर्माधरे धरालये ॥15॥

प्रयच्छ यजमानाय धनं धर्मेकसाधनम् ।
मातस्त्वं मेऽविलम्बेन दिशस्व जगदम्बिके ॥16॥

कृपया करुरागारे प्रार्थितं कुरु मे शुभे ।
वसुधे वसुधारूपे वसु वासव वन्दिते ॥17॥

धनदे यजमानाय वरदे वरदा भव ।
ब्रह्मण्यैर्ब्राह्मणैः पूज्ये पार्वतीशिवशंकरे ॥18॥

स्तोत्रं दरिद्रताव्याधिशमनं सुधनप्रदम् ।
श्रीकरे शंकरे श्रीदे प्रसीद मयिकिंकरे ॥19॥

पार्वतीशप्रसादेन सुरेश किंकरेरितम् ।
श्रद्धया ये पठिष्यन्ति पाठयिष्यन्ति भक्तितः ॥20॥

सहस्रमयुतं लक्षं धनलाभो भवेद् ध्रुवम् ।
धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च ।
भवन्तु त्वत्प्रसादान्मे धन- धान्यादिसम्पदः ॥21॥

॥ शइति श्री धनलक्ष्मी स्तोत्रं संपूर्णम् ॥

Monday, September 9, 2013

॥वैभव प्रदाता श्री सूक्त॥
हरिः 
ॐ 
हिरण्यवर्णां 
हरिणीं 
सुवर्णरजतस्र​जाम् 

चन्द्रां 
हिरण्मयीं 
लक्ष्मीं 
जातवेदो 
म 
आवह 
॥१॥

तां 
म 
आवह 
जातवेदो 
लक्ष्मीमनपगामिनीम् 

यस्यां 
हिरण्यं 
विन्देयं 
गामश्वं 
पुरुषानहम् 
॥२॥

अश्वपूर्वां 
रथमध्यां 
हस्तिनादप्रबोधिनीम् 

श्रियं 
देवीमुपह्वये 
श्रीर्मा 
देवी 
जुषताम् 
॥३॥

कां 
सोस्मितां 
हिरण्यप्राकारामार्द्रां 
ज्वलन्तीं 
तृप्तां 
तर्पयन्तीम् 

पद्मे 
स्थितां 
पद्मवर्णां 
तामिहोपह्वये 
श्रियम् 
॥४॥

प्रभासां 
यशसा 
लोके 
देवजुष्टामुदाराम् 

पद्मिनीमीं 
शरणमहं 
प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे 
नश्यतां 
त्वां 
वृणे 
॥५॥

आदित्यवर्णे 
तपसोऽधिजातो 
वनस्पतिस्तव 
वृक्षोऽथ 
बिल्वः 

तस्य 
फलानि 
तपसानुदन्तु 
मायान्तरायाश्च 
बाह्या 
अलक्ष्मीः 
॥६॥

उपैतु 
मां 
देवसखः 
कीर्तिश्च 
मणिना 
सह 

प्रादुर्भूतोऽस्मि 
राष्ट्रेऽस्मिन् 
कीर्तिमृद्धिं 
ददातु 
मे 
॥७॥

क्षुत्पिपासामलां 
ज्येष्ठामलक्ष्मीं 
नाशयाम्यहम् 

अभूतिमसमृद्धिं 
च 
सर्वां 
निर्णुद 
गृहात् 
॥८॥

गन्धद्वारां 
दुराधर्षां 
नित्यपुष्टां 
करीषिणीम् 

ईश्वरींग् 
सर्वभूतानां 
तामिहोपह्वये 
श्रियम् 
॥९॥

मनसः 
काममाकूतिं 
वाचः 
सत्यमशीमहि 

पशूनां 
रूपमन्नस्य 
मयि 
श्रीः 
श्रयतां 
यशः 
॥१०॥

कर्दमेन 
प्रजाभूता 
सम्भव 
कर्दम 

श्रियं 
वासय 
मे 
कुले 
मातरं 
पद्ममालिनीम् 
॥११॥

आपः 
सृजन्तु 
स्निग्धानि 
चिक्लीत 
वस 
गृहे 

नि 
च 
देवी 
मातरं 
श्रियं 
वासय 
कुले 
॥१२॥

आर्द्रां 
पुष्करिणीं 
पुष्टिं 
पिङ्गलां 
पद्ममालिनीम् 

चन्द्रां 
हिरण्मयीं 
लक्ष्मीं 
जातवेदो 
म 
आवह 
॥१३॥

आर्द्रां 
यः 
करिणीं 
यष्टिं 
सुवर्णां 
हेममालिनीम् 

सूर्यां 
हिरण्मयीं 
लक्ष्मीं 
जातवेदो 
म 
आवह 
॥१४॥

तां 
म 
आवह 
जातवेदो 
लक्ष्मीमनपगामिनीम् 

यस्यां 
हिरण्यं 
प्रभूतं 
गावो 
दास्योऽश्वान् 
विन्देयं 
पूरुषानहम् 
॥१५॥

यः 
शुचिः 
प्रयतो 
भूत्वा 
जुहुयादाज्यमन्वहम् 

सूक्तं 
पञ्चदशर्चं 
च 
श्रीकामः 
सततं 
जपेत् 
॥१६॥

पद्मानने 
पद्म 
ऊरु 
पद्माक्षी 
पद्मासम्भवे 

त्वं 
मां 
भजस्व 
पद्माक्षी 
येन 
सौख्यं 
लभाम्यहम् 
॥१७॥

अश्वदायि 
गोदायि 
धनदायि 
महाधने 

धनं 
मे 
जुषताम् 
देवी 
सर्वकामांश्च 
देहि 
मे 
॥१८॥

पुत्रपौत्र 
धनं 
धान्यं 
हस्त्यश्वादिगवे 
रथम् 

प्रजानां 
भवसि 
माता 
आयुष्मन्तं 
करोतु 
माम् 
॥१९॥

धनमग्निर्धनं 
वायुर्धनं 
सूर्यो 
धनं 
वसुः 

धनमिन्द्रो 
बृहस्पतिर्वरुणं 
धनमश्नुते 
॥२०॥

वैनतेय 
सोमं 
पिब 
सोमं 
पिबतु 
वृत्रहा 

सोमं 
धनस्य 
सोमिनो 
मह्यं 
ददातु 
॥२१॥

न 
क्रोधो 
न 
च 
मात्सर्य 
न 
लोभो 
नाशुभा 
मतिः 

भवन्ति 
कृतपुण्यानां 
भक्तानां 
श्रीसूक्तं 
जपेत्सदा 
॥२२॥

वर्षन्तु 
ते 
विभावरि 
दिवो 
अभ्रस्य 
विद्युतः 

रोहन्तु 
सर्वबीजान्यव 
ब्रह्म 
द्विषो 
जहि 
॥२३॥

पद्मप्रिये 
पद्म 
पद्महस्ते 
पद्मालये 
पद्मदलायताक्षि 

विश्वप्रिये 
विष्णु 
मनोऽनुकूले 
त्वत्पादपद्मं 
मयि 
सन्निधत्स्व 
॥२४॥

या 
सा 
पद्मासनस्था 
विपुलकटितटी 
पद्मपत्रायताक्षी 

गम्भीरा 
वर्तनाभिः 
स्तनभर 
नमिता 
शुभ्र 
वस्त्रोत्तरीया 
॥२५॥

लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैस्स्नापिता 
हेमकुम्भैः 

नित्यं 
सा 
पद्महस्ता 
मम 
वसतु 
गृहे 
सर्वमाङ्गल्ययुक्ता 
॥२६॥

लक्ष्मीं 
क्षीरसमुद्र 
राजतनयां 
श्रीरङ्गधामेश्वरीम् 

दासीभूतसमस्त 
देव 
वनितां 
लोकैक 
दीपांकुराम् 
॥२७॥

श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध 
विभव 
ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम् 

त्वां 
त्रैलोक्य 
कुटुम्बिनीं 
सरसिजां 
वन्दे 
मुकुन्दप्रियाम् 
॥२८॥

सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती 

श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च 
प्रसन्ना 
मम 
सर्वदा 
॥२९॥

वरांकुशौ 
पाशमभीतिमुद्रां 
करैर्वहन्तीं 
कमलासनस्थाम् 

बालार्क 
कोटि 
प्रतिभां 
त्रिणेत्रां 
भजेहमाद्यां 
जगदीस्वरीं 
त्वाम् 
॥३०॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये 
शिवे 
सर्वार्थ 
साधिके 

शरण्ये 
त्र्यम्बके 
देवि 
नारायणि 
नमोऽस्तु 
ते 
॥३१॥

सरसिजनिलये 
सरोजहस्ते 
धवलतरांशुक 
गन्धमाल्यशोभे 

भगवति 
हरिवल्लभे 
मनोज्ञे 
त्रिभुवनभूतिकरि 
प्रसीद 
मह्यम् 
॥३२॥

विष्णुपत्नीं 
क्षमां 
देवीं 
माधवीं 
माधवप्रियाम् 

विष्णोः 
प्रियसखीं 
देवीं 
नमाम्यच्युतवल्लभाम् 
॥३३॥

महालक्ष्मी 
च 
विद्महे 
विष्णुपत्नीं 
च 
धीमहि 

तन्नो 
लक्ष्मीः 
प्रचोदयात् 
॥३४॥

श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् 
पवमानं 
महियते 

धनं 
धान्यं 
पशुं 
बहुपुत्रलाभं 
शतसंवत्सरं 
दीर्घमायुः 
॥३५॥

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः 

भयशोकमनस्तापा 
नश्यन्तु 
मम 
सर्वदा 
॥३६॥

य 
एवं 
वेद 
ॐ 
महादेव्यै 
च 
विष्णुपत्नीं 
च 
धीमहि 

तन्नो 
लक्ष्मीः 
प्रचोदयात् 
ॐ 
शान्तिः 
शान्तिः 
शान्तिः 
॥३७॥